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अनन्य देशभक्त संन्यासी थे स्वामी विवेकानंद

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यदि पूरी दुनिया के एनआरआइ, ओसीआइ और भारतवंशियों की गिनती की जाए, तो यह संख्या 10 करोड़ के करीब है. निश्चित रूप से प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में भारत की प्रतिष्ठा विदेशों में बढ़ी है.

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उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’- उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक अपने लक्ष्य पर न पहुंच जाओ. कठोपनिषद् के इस वाक्य को स्वामी विवेकानंद ने जितनी स्पष्टता, दृढ़ता और ओज के साथ कहा, पहले कभी नहीं कहा गया. भगिनी निवेदिता का कथन है कि यदि वे जन्म ही न लेते, तो भी जिन सत्यों का उपदेश उन्होंने किया, वे सत्य उतने ही प्रामाणिक बने रहते. अंतर केवल होता, उनकी प्राप्ति की कठिनाई में, उनकी अभिव्यक्ति में और आधुनिक स्पष्टता और तीक्ष्णता के अभाव में.

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हमारे शास्त्रों में निहित निधियों के उद्घाटक और भाष्यकार के रूप में स्वामी जी का विशेष महत्व है. आधुनिक युग के वातावरण में अपने आदेशों को सुव्यवस्थित और सुगठित करने के लिए हमारे शास्त्रों को आवश्यकता थी एक प्रामाणिक वाणी की, जो विवेकानंद की वाणी के रूप में प्राप्त हो गयी.

निर्मल वर्मा ने लिखा है कि भारतीय चिंतन परंपरा जितने रत्न, माणिक्य शायद ही विश्व के किसी अन्य देश के पास हों, जिन्हें हमने कंकड़-पत्थर समझ कर फेंक दिया है. हमारी त्रासदी का सबसे बड़ा कारण है कि हम अपने शास्त्रों का ज्ञान नहीं रखते, और बिना विचारे बाहर से प्राप्त ज्ञान से अपनी समस्याओं के समाधान का असंगत प्रयास करते हैं. स्वामी विवेकानंद हमारे शास्त्रों में सन्निहित सत्य, ज्ञान और शिक्षाओं के मूर्तिमान रूप थे.

यदि हमें शास्त्रों की गहराई में उतरने का साहस नहीं है, तो न हो, किंतु स्वयं को समझने के लिए, अपनी संस्कृति को समझने के लिए यदि कुछ नहीं, तो स्वामी विवेकानंद को अवश्य समझें. वे अलौकिक गुणों से परिपूर्ण वक्ता थे. वे अनन्य देशभक्त संन्यासी थे. ऐनी बेसेंट ने कहा था कि वे उन्हें संन्यासी योद्धा लगते हैं. पहली नजर में ही कोई व्यक्ति उन्हें नेता, भगवान द्वारा अभिषिक्त, आदेश देने का अधिकारी मान लेता. भगिनी क्रिस्टीन ने लिखा है, ‘अन्य लोग तेजस्वी हो सकते हैं, लेकिन उनका मन प्रकाशमय है, क्योंकि वह समस्त ज्ञान के स्रोत के साथ अपना संयोग स्थापित करने में समर्थ हैं.

स्वामी विवेकानंद का जन्मदिन 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है. उनका जीवन, विचार, आदर्श और मातृभूमि के प्रति अदम्य प्रेम युवाओं के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण प्रेरणा स्रोत है. जब स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष चल रहा था, हमारे सभी राष्ट्रीय नेताओं ने स्वीकार किया है कि स्वामी जी के भाषण तथा कृतियों ने उन्हें मातृभूमि की सेवा और स्वतंत्रता के लिए तन और मन से समर्पित होने की प्रेरणा दी है.

महात्मा गांधी ने लिखा है कि विवेकानंद को पढ़कर उनका राष्ट्रप्रेम हजार गुणा बढ़ गया. आज आवश्यकता है कि उनके जीवन, विचार, संकल्प और संघर्ष की बात जन-जन, विशेषकर युवाओं, तक पहुंचे. इससे युवा पीढ़ी अपने जीने का अर्थ तलाश सकती है, अपने जीवन का ध्येय और लक्ष्य निर्धारित कर सकती है. आज वस्तुतः विवेकानंद के लिए नहीं, अपने स्वयं के होने का अर्थ और उद्देश्य जानने के लिए उनका स्मरण जरूरी है.

वे मात्र 39 वर्ष जीये, पल-पल जीये और अतुलनीय काम कर गये, वह भी अनंत परेशानियों, चुनौतियों और मुसीबतों के बीच, जिनसे वे आजीवन घिरे रहे. नितांत अभावों में रहने वाले और निजी जीवन में निरंतर बीमारियों से जूझते रहने वाले एक संन्यासी ने राष्ट्रीय जीवन के हर क्षेत्र में एक चेतना का संचार किया, भारत की आध्यात्मिक शक्ति को एक नयी ऊर्जा दी. जब देश दासता के दौर से गुजर रहा था, तो अकेले विवेकानंद ने ज्ञान और अध्यात्म के क्षेत्र में भारत को जगद्गुरु होने का गौरव दिलाया.

उनके तूफानी झोंकों ने भारत को करवट लेने के लिए बाध्य किया. सदियों से मिथ्या स्वप्नों में दबे, अंधविश्वासों से जकड़े और हताश भारतीय समाज को झकझोरा और अपने स्वप्नों में आगे बढ़ने का शंखनाद किया. एक ओर हम अपनी महान संस्कृति और मनीषियों का नाम लेकर गर्व की अनुभूति करते हैं और दूसरी ओर उनकी मूलभूत शिक्षाओं, विचारों और आदर्शों की उतनी ही उपेक्षा भी. विवेकानंद को प्रस्थान किये एक सौ बीस साल हो गये हैं. हम उनकी जयंती मनाते रहे हैं.

उनके विचारों और शिक्षाओं पर कितना अमल किया है? उन्होंने शिक्षा में चरित्र निर्माण को सर्वोपरि माना था. क्या आज हम शिक्षा को मनुष्य निर्माण की, चरित्र निर्माण की प्रक्रिया का आधार बना सके हैं? हमारे पास साधन है, संपन्नता है, पर न नैतिक तेज है, न मूल्य, न संकल्प. इसके पीछे हमारी दास मानसिकता है. आज भारत को विवेकानंद का तेज, शौर्य, साहस और संकल्प ही उबार सकता है.

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