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राजनीति में अनुकरण की रणनीति

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भाजपा ने सारा दारोमदार मोदी पर छोड़ दिया है. विजेता के निर्धारण में महाराष्ट्र की महत्वपूर्ण भूमिका होगी. पूर्वी भारत में छोटे राज्यों में भाजपा मजबूत है, पर ओडिशा में मुकाबला होगा.

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राजनीति अतिरेकों से बुनी होती है, जिसमें स्मृति और विस्मृति के डिजाइन होते हैं. दिसंबर 1988 में तत्कालीन प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गांधी तमिलनाडु में पार्टी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार जीके मूपनार के लिए प्रचार कर रहे थे. वे लोग दूर-दराज के एक टोले में स्थित एक झोपड़ी में गये. मूपनार ने वहां रहने वाली बूढ़ी महिला से पूछा कि क्या वह राजीव को पहचानती है. उसने तुरंत जवाब दिया- ‘हां, ये इंदिरा अम्मा के बेटे हैं. आप कौन हैं?’ यह जवाब कांग्रेस और अन्य दलों के व्यक्तिगत और वंशगत कुलीनता के विरोधाभास को बिंबित करता है. मतदाता प्रधानमंत्री को जानते थे, पर क्षेत्रीय नेता को नहीं. इस चुनाव के नतीजे ने यही साबित किया. विधानसभा की 234 सीटों में कांग्रेस को केवल 26 सीटें मिलीं तथा उसे 20 प्रतिशत से भी कम वोट मिले. हालांकि 2024 का साल 1989 नहीं है, पर लगभग सभी राज्यों में स्मृति का हाल वैसा ही है. पूर्व में इटानगर से दक्षिण में तिरुवनंतपुरम तक मतदाता तुरंत सर्वव्यापी नरेंद्र मोदी से जुड़ जाते हैं. लेकिन उनमें से आधे से अधिक ने भाजपा या उसके स्थानीय प्रत्याशी को नहीं चुना है. पहली बार आम चुनाव मुद्दों की किसी एक राष्ट्रीय सूची के बिना हो रहा है. हर क्षेत्र में अलग-अलग मुद्दे हैं, पर व्यक्तिगत सर्वोच्चता सामान्य बात बन गयी है. राष्ट्रीय स्तर पर माध्यम, संदेश और संदेशवाहक एक ही व्यक्ति है- नरेंद्र मोदी. प्रचार अभियानों में उनके समर्थक उनकी वैचारिक अभिव्यक्तियों से कहीं अधिक उनके व्यक्तित्व, हाव-भाव और मानसिक क्षमता से प्रभावित होते हैं. इस रणनीति से उन्हें बड़े लाभ हुए हैं और शायद तीसरी बार भी उन्हें रिकॉर्ड सफलता मिले.


राजनीति में अनुकरण रणनीति का एक रूप है. कई क्षेत्रीय खिलाड़ी मोदी की नकल मात्र हैं. स्थानीय चुनावी आख्यान शासन के वैकल्पिक रूपों के इर्द-गिर्द नहीं, बल्कि क्षेत्रीय नेताओं के चारों ओर घूमता है. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख, मुख्यमंत्री और संदेशवाहक हैं. वहां वोट या तो उनके पक्ष में होगा या विरोध में. ऐसा कर्नाटक में डीके शिवकुमार और तमिलनाडु में मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के साथ है. दिल्ली में अरविंद केजरीवाल और पंजाब में भगवंत मान के पक्ष या विरोध में मतदान होगा. ऐसे अन्य क्षेत्रीय नेता बिहार में तेजस्वी यादव, तेलंगाना में रेवंत रेड्डी और केरल में पिनराई विजयन हैं. दुखद है और अचरज की बात भी कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और राहुल गांधी वैकल्पिक संदेशवाहक नहीं बन सके. सभी पार्टियों के लिए मुद्दे या तो तभी उठाने के लिए हैं, जब बहुत जरूरी हो या ध्यान भटकाना हो. राजनीतिक विमर्श क्षेत्र के हिसाब से बदल जाता है. उत्तर भारत में ‘फूट डालो और राज करो’ के तरीके के लिए संस्कृति, राजनीति और धर्म शिकार के मैदान हैं. लगभग 60 प्रतिशत सीटों पर मुख्य रूप से मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच है, उत्तर प्रदेश और बिहार को छोड़कर. उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ मुख्य खिलाड़ी हैं, पर बाकी राज्यों में मोदी ही महत्व रखते हैं. मुख्यमंत्री केवल सांकेतिक दूसरा इंजन भर हैं.


सभी राज्यों में भाजपा विकास का कार्ड खेल रही है, पर अंततः उसका अभियान हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के इर्द-गिर्द घूम रहा है. इसको जोड़ने वाला सूत्र मोदी का दृढ़ निश्चय है- अनुच्छेद 370 हटाना, राम मंदिर, पाकिस्तान पर लगाम और जोर-शोर के साथ गिरफ्तारियों से आतंक को कम करना. प्रधानमंत्री की सभाओं में भाजपा के मुख्यमंत्री महज कट-आउट हैं. दूसरी ओर, अखिलेश, तेजस्वी, मान, केजरीवाल, अब्दुल्ला और महबूबा अपने को मोदी के स्थानीय विकल्प के रूप में पेश कर रहे हैं. दक्षिण भारत (130 सीटें) एकमात्र ऐसा स्थान है, जहां मोदी का सीधा मुकाबला ताकतवर स्थानीय क्षत्रपों से है. इसीलिए वे दक्षिणी राज्यों के अधिक दौरे करते हैं. भाजपा के लिए 370 सीटें जीतने का उनका लक्ष्य पांच दक्षिणी राज्यों के नतीजों पर निर्भर करता है. भाजपा ने ऐसा कोई स्थानीय नेता नहीं तैयार किया है, जिसका जनाधार पूरे राज्य में हो. अन्नामलाई को मीडिया में खूब जगह मिली है, पर उन्हें अभी जमीन पर ठीक-ठाक स्वीकार्यता हासिल करनी है. मोदी की व्यक्तिगत लोकप्रियता बढ़ी है, पर तमिल और मलयाली वोटरों की चेतना में कमल खिलना अभी बाकी है. तमिलनाडु में द्रमुक और अन्ना द्रमुक की सर्वाधिक लोकप्रियता है. करुणानिधि और जयललिता के निधन के बाद स्टालिन सबसे बड़े द्रविड़ नेता हैं. भाजपा ने कच्‍छतीवू का मुद्दा उठाकर द्रमुक को पीछे करने की कोशिश की, पर विफल रही. ऐसी कोशिश केरल में भाजपा ने ‘द केरला स्टोरी’ नामक फिल्म को प्रचारित कर की. भाजपा के स्थानीय नेता तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी, आंध्र प्रदेश के जगन रेड्डी और कर्नाटक के सिद्धारमैया-शिवकुमार की जोड़ी की कोई बराबरी नहीं कर सकते. दक्षिण भारत में लड़ाई मोदी बनाम शेष है.


पश्चिम में गुजरात और महाराष्ट्र मोदी के जादू पर निर्भर हैं. उद्धव ठाकरे, शरद पवार और कांग्रेस की ताकत के सामने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे, फड़नवीस और अजीत पवार कमजोर साबित हो रहे हैं. इनके भाषणों में असली मुद्दे नहीं हैं, अधिक जोर परिवारवाद और भ्रष्टाचार पर है. भाजपा ने सारा दारोमदार मोदी पर छोड़ दिया है. विजेता के निर्धारण में महाराष्ट्र की महत्वपूर्ण भूमिका होगी. पूर्वी भारत में छोटे राज्यों में भाजपा मजबूत है, पर ओडिशा में मुकाबला होगा. प्रधानमंत्री मोदी के साथ मुख्यमंत्री पटनायक के मधुर संबंध हैं, पर पहली बार भाजपा चौथाई सदी के वर्चस्व के बाद बीजद को गंभीर चुनौती देती दिख रही है. राज्य की 21 में से 15 सीटें जीतने का लक्ष्य तय किया है. बीजद मोदी के करिश्मे पर पटनायक के जादू को प्रभावी सिद्ध करने के लिए प्रतिबद्ध है. बीते पांच सालों में भाजपा नेताओं ने सभी राज्यों की कुल यात्रा से कहीं अधिक दौरे पश्चिम बंगाल के किये हैं. मोदी बंगाल को हिंदुत्व के चुंबक और भ्रष्टाचार विरोधी भाषणों से जोड़ने के लिए प्रयासरत हैं. ऐसा लगता है कि यह चुनाव भारत को बेहतर बनाने और इसके लोकतांत्रिक आधार को मजबूती देने का अभियान नहीं है. यह अपना राजनीतिक दायरा बढ़ाने और सामने खड़े विपक्षियों को खत्म कर देने के लिए व्यक्तिगत नेताओं के बीच एक कटुतापूर्ण युद्ध है. यह आखिरी नतीजा ही तय करेगा कि क्या भारत एक ऐसा देश है, जिसे विविधता राजनीतिक एवं सांस्कृतिक रूप से एकजुट करती है. यह वैश्विक स्तर पर विचारधारा के वैयक्तीकरण का दौर है. मोदी आदर्श के तौर पर भारत का संचालन कर रहे हैं और क्षेत्रीय शासक भी उन्हीं का अनुसरण कर रहे हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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