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अर्थव्यवस्था में आशा के संकेत

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महामारी के दौर को छोड़कर बीते 40 सालों में रियल टर्म में औसत वृद्धि दर सात प्रतिशत रही है तथा 1980 से कभी भी संकुचन नहीं हुआ है. भारतीय वृद्धि प्रक्रिया की यह ताकत है.

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वर्ष 2021 की अंतिम तिमाही के आंकड़ों के हिसाब (डॉलर में) से भारतीय अर्थव्यवस्था ने ब्रिटिश अर्थव्यवस्था को पीछे छोड़ दिया है. इस गणना में भारतीय मुद्रा रुपया और ब्रिटिश मुद्रा पाउंड तथा अमेरिकी मुद्रा डॉलर के वर्तमान विनिमय दर को आधार बनाया गया है. सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आंकड़े अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के हैं. इस गणना से भारत अब दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है.

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इससे पहले अमेरिका, चीन, जापान और जर्मनी हैं. मुद्रा कोष के आंकड़े के हिसाब से भारत की जीडीपी 3.2 ट्रिलियन डॉलर है. यदि इसकी विकास दर सालाना सात फीसदी रही और जर्मनी की अर्थव्यवस्था में ठहराव रहा, तो भारत चार सालों में जर्मनी को पीछे छोड़ सकता है. अभी जर्मनी की जीडीपी 4.2 ट्रिलियन डॉलर है. यदि दर 5.5 फीसदी रही, तो पांच साल लगेंगे. अगर हम यह भी मान लें कि जर्मन अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर शून्य रहेगी, तब भी इसमें एक पेंच है.

यह पेंच मुद्रा विनिमय दर है. अगर यूरो की तुलना में डॉलर के सामने रुपये का मूल्य अधिक गिरता है, तो जर्मनी (जर्मनी की मुद्रा यूरो है) से आगे निकलना मुश्किल होगा. जीडीपी वृद्धि पर मुद्रा मूल्य में कमी पानी फेर सकती है. अगर डॉलर के मुकाबले रुपया मजबूत होगा, तो डॉलर में गणना करने पर अर्थव्यवस्था मजबूत दिखेगी. लेकिन मजबूत मुद्रा नुकसान भी कर सकती है क्योंकि इसका असर निर्यात पर होगा.

अंतरराष्ट्रीय तुलना के लिए विनिमय दरों के उपयोग की संवेदनशीलता को देखते हुए विश्व बैंक ने एक अलग तरीका निकाला है, जिसे क्रय शक्ति समता (पर्चेजिंग पॉवर पैरिटी) कहा जाता है. इसमें मुद्राओं की वास्तविक क्रय शक्ति का संज्ञान लिया जाता है. एक डॉलर का मूल्य 80 रुपया होने के आंकड़े से रुपया बहुत कमजोर दिखता है, लेकिन अमेरिका में एक डॉलर में जितनी खरीद हो सकती है, उससे बहुत अधिक खरीद एक डॉलर में भारत में की जा सकती है.

इस आधार पर गणना करने पर भारत की जीडीपी दुनिया में तीसरे स्थान पर आ जाती है और वह इस पायदान पर कम से कम पांच सालों से है. और, चीन की अर्थव्यवस्था पहले से ही अमेरिका से बड़ी हो चुकी है. अपनी तीव्र वृद्धि दर और बड़ी जनसंख्या के कारण 21वीं सदी की आर्थिक तस्वीर पर दो एशियाई शक्तियों का वर्चस्व रहेगा. यह जगजाहिर है और जनसंख्या के कारण यह अवश्यंभावी भी है. इसीलिए यह अचरज की बात नहीं है कि विश्व के निवेशक इन दो बड़ी उपभोक्ता अर्थव्यवस्थाओं की ओर देख रहे हैं, भले ही तकनीक को लेकर पश्चिम और चीन के बीच शीत युद्ध चल रहा हो.

बहरहाल, भारत का स्थान पांचवा हो या तीसरा या कितनी जल्दी इसकी अर्थव्यवस्था पांच ट्रिलियन डॉलर होगी, यह बहुत दिलचस्प नहीं है क्योंकि ऐसा तो होना ही है. महामारी के दौर को छोड़कर बीते 40 सालों में रियल टर्म में औसत वृद्धि दर सात प्रतिशत रही है तथा 1980 से कभी भी संकुचन नहीं हुआ है. भारतीय वृद्धि प्रक्रिया की यह ताकत है. अहम सवाल यह है कि अर्थव्यवस्था कैसी चल रही है.

इसका अर्थ है अल्पकालिक अवधि को देखना तथा उत्पादन विस्तार, रोजगार सृजन, मुद्रास्फीति नियंत्रण और वित्तीय एवं व्यापार घाटे के संतुलन की संभावनाओं का परीक्षण करना. हम नियमित रूप से सामने आते आंकड़ों को देख सकते हैं, जैसे- शेयर बाजार, आयात-निर्यात, औद्योगिक उत्पादन, जीडीपी आदि. कुछ समय पहले राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने बताया कि अप्रैल से जून के बीच भारत की जीडीपी 36.85 लाख करोड़ रही थी. यह रियल जीडीपी है और इसमें मुद्रास्फीति का असर शामिल नहीं है.

यह आंकड़ा पिछले साल इसी तिमाही से 13.5 फीसदी ज्यादा है. यह उच्च वृद्धि दर बेहद खुश होने का कारण हो सकती है, पर हमें इसे सही परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए. पिछले साल हमें कोरोना की भयावह दूसरी लहर का सामना करना पड़ा था. लॉकडाउन और पाबंदियों के कारण कारोबार में मंदी रही थी. इस तरह से यह दर ठीक है और विशेषज्ञों ने इसके 15 फीसदी से अधिक होने का अनुमान लगाया था.

अगर आप महामारी के दो सालों के असर को हटाना चाहते हैं, तो आपको अप्रैल-जून, 2019 के आंकड़ों को देखना होगा. तब जीडीपी का आंकड़ा 35.67 लाख करोड़ था. इसका अर्थ यह है कि तिमाही जीडीपी केवल 3.3 प्रतिशत बढ़ी है यानी हर साल 1.1 फीसदी से भी कम. यह चिंताजनक है. इस मामूली बढ़ोतरी का अधिकांश वित्तीय विस्तार के कारण संभव हुआ है, जो निश्चित ही जरूरी था.

वर्तमान आंकड़ों के विश्लेषण का दूसरा तरीका गति को देखना है, यानी जीडीपी की वृद्धि तिमाही-दर-तिमाही क्या रही है. यहां भी आंकड़े उत्साहजनक नहीं है. बार्कलेज रिपोर्ट के अनुसार, जनवरी-मार्च से अप्रैल-जून तक जीडीपी 3.3 प्रतिशत संकुचित हुई यानी वृद्धि ऋणात्मक रही. कुछ तो मौसमी असर से ऐसा हुआ, पर जनवरी-मार्च के तिमाही में उसके पहले की तिमाही में त्योहारों पर खरीद से बढ़त हुई थी.

मुद्रा कोष और अन्य कुछ एजेंसियों ने भारत की वृद्धि दर के अनुमान को संशोधित कर दर कम कर दिया है, फिर भी भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया में सबसे तेज गति से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था होगी. यह स्थिति अमेरिका और यूरोप की मंदी और चीन की विकास दर में कमी से बिल्कुल उलट है. भारत का भाग्य वैश्विक हलचलों से प्रभावित है.

भारतीय रिजर्व बैंक भी चिंतित है कि भारत उच्च मुद्रास्फीति और कमजोर अर्थव्यवस्था के दौर में प्रवेश कर रहा है. वर्तमान वित्तीय वर्ष की आखिरी तिमाही में वृद्धि दर के चार प्रतिशत रहने का इसका अनुमान है. इस वजह से मौद्रिक नीति कठोर होती है, जो वृद्धि में बाधक है, लेकिन मुद्रास्फीति को देखते हुए ऐसा करना मजबूरी भी है. स्टॉक मार्केट पर भी इसका असर दिख रहा है और इसमें कमी आ सकती है.

इस प्रकार, दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का आकलन यह है कि अभी यह गति धीमी होने का दौर है क्योंकि वृद्धि के कारकों में बढ़ोतरी निवेश भावनाओं के साथ होनी है. आशा के कुछ संकेत भी हैं, जैसे- वस्तु एवं सेवा कर में लगातार उच्च संग्रहण (चार माह से 1.4 लाख करोड़ से अधिक) तथा मई व जून में औद्योगिक उत्पादन सूचकांक में दो अंकों की वृद्धि. अगस्त में बैंक क्रेडिट में वृद्धि 11 सालों के उच्चतम स्तर पर है और इसकी गति बैंक जमा से अधिक है. इसमें आवास और खुदरा कर्ज भी शामिल हैं. इस प्रकार मध्य अवधि में हमेशा सतर्क आशावाद की स्थिति है.

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