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बुजुर्गों के हित में भी बने वित्तीय नीति

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अर्थव्यवस्था को ऊंचाइयों पर पहुंचाने में बुजुर्गों की बड़ी भूमिका रही है, लेकिन अब वे थक गये हैं और आगे बढ़ने में लाचार हैं. यह दास्तान है भारत के 15 करोड़ से भी ज्यादा बुजुर्गों की. इनमें लगभग 70 लाख ही ऐसे भाग्यशाली हैं, जिन्हें केंद्र सरकार से पेंशन मिलती है. राज्य सरकारों के भी पेंशनर हैं. अब केंद्र और कई राज्य सरकारों ने पेंशन की सुविधा खत्म कर दी है. उनका कहना है कि सरकार के बजट में पेंशन पर खर्च इतना बढ़ गया था कि उससे बजट प्रभावित होने लगा और राज्यों के हजारों करोड़ रुपये सिर्फ पेंशन पर जाने लगे. बिहार जैसा गरीब राज्य इस वर्ष पेंशन पर लगभग 30 हजार करोड़ रुपये खर्च करेगा. यह एक गैर-उत्पादक खर्च है. इसी दबाव में पेंशन को धीरे-धीरे खत्म कर दिया गया. सरकारी कर्मचारियों के लिए नेशनल पेंशन स्कीम की सुविधा है. फिलहाल स्थिति यह है कि निजी कंपनियों से रिटायर और अपना कारोबार वगैरह करने वाले बुजुर्गों को बड़ी आर्थिक कठिनाइयों में जीना पड़ रहा है. आय के नियमित स्रोत के अभाव में वे निराशा की जिंदगी जीने को मजबूर हो जाते हैं.
देश में जीने की औसत उम्र बढ़कर 67.2 वर्ष हो जाने से लोगों को लंबे समय तक अपनी रोजी-रोटी के लिए मशक्कत करना पड़ता है. पुरानी बचत इतनी नहीं होती कि एक अच्छी जिंदगी जी जा सके. वे बच्चों से आत्मसम्मान के कारण मदद लेने में झिझकते हैं और सच है कि मदद मिलती भी नहीं. उन्हें रोजमर्रा के खर्चों के अलावा अपने या जीवन साथी के गिरते हुए स्वास्थ्य की रक्षा के लिए भी खर्च करना होता है. इतना ही नहीं, इन बुजुर्गों के लिए मेडिकल सुविधाएं भी कम हैं. सरकारी अस्पतालों में उच्च कोटि के बुनियादी ढांचे और सिद्धहस्त डॉक्टरों की कमी है, जबकि प्राइवेट मल्टी स्पेशिएलिटी हॉस्पिटलों की बाढ़ आ गयी है. लेकिन वहां इलाज के लिए या तो बीमा होना चाहिए या फिर काफी पैसे. भारत में स्वास्थ्य बीमा बहुत ही कम लोग करा पाते हैं क्योंकि मेडिक्लेम पॉलिसी काफी महंगी है. सरकार चाहती है कि भारत में बीमा लोकप्रिय हो और घर-घर पहुंचे, पर इसके लिए बीमा पॉलिसी की दरों को घटाना होगा और 60 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों के लिए इसे उनके बजट के हिसाब से तैयार करना होगा. मेडिक्लेम पर जीएसटी 18 फीसदी है, जिसे घटाना ही चाहिए. हाल में केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने भी यह सुझाव दिया था. अगर ऐसा संभव नहीं है, तो सरकारी अस्पतालों को कई गुना बेहतर बनाना चाहिए. गोवा और केरल जैसे राज्यों में चिकित्सा संबंधी सुविधाएं बेहतरीन हैं, लेकिन बाकी राज्य पिछड़े हुए हैं. राज्यों का दायित्व है कि वे अपने बुजुर्ग नागरिकों को बेहतर मेडिकल सुविधाएं दें, पर बुजुर्गों को इस मामले में निराशा ही हाथ लगती है.
पहले बड़ी संख्या में बुजुर्ग बैंकों के ब्याज पर निर्भर रहते थे, जो एक समय 10 फीसदी या उससे भी ज्यादा हुआ करता था, पर करीब दस वर्षों से ब्याज दरों में गिरावट आयी है. इस राशि से उन्हें कोई खास मदद नहीं मिल पाती है क्योंकि पिछले कुछ समय से महंगाई की दर पांच फीसदी से भी ज्यादा रही है. मुद्रास्फीति हमेशा पैसे की कीमत घटाती है. हालांकि शेयर मार्केट तेज है, लेकिन बुजुर्गों को उतनी समझ और सही शेयरों की पहचान नहीं होती है. बेहतर होगा कि वे अच्छे बैंकों या वित्तीय संस्थानों के म्युचुअल फंड में निवेश करें, जिससे उन्हें घाटा न हो और जरूरत पड़ने पर एक अच्छी राशि मिल जाए, पर इसके लिए भी किसी योग्य व्यक्ति से सलाह लेनी चाहिए. देश में बहुत ही कम वित्तीय विकल्प हैं, जिनमें अपनी जवानी में पैसे लगाकर लोग बुढ़ापे में अच्छे पैसे पा सकें. इनमें एनपीएस, पीपीएफ वगैरह हैं. पोस्ट ऑफिस की भी कुछ स्कीम अच्छी हैं. बुजुर्गों के लिए भारत सरकार की सीनियर सिटीजन्स सेविंग्स स्कीम एक अच्छी योजना है, जिसमें उन्हें 8.2 फीसदी ब्याज मिलता है. इस योजना के तहत, पांच साल के लिए अधिकतम 30 लाख रुपये तक का निवेश किया जा सकता है. इस तरह, सालाना 2.46 लाख रुपये तक का रिटर्न मिल सकता है. इस योजना के ब्याज दर की समीक्षा हर तीन महीने में होती है और इसमें बदलाव होता है. लेकिन यहां पर एक पेंच है कि अगर किसी वित्त वर्ष में सभी खातों में कुल ब्याज 50 हजार रुपये से ज्यादा हो जाता है, तो उस पर टैक्स देना होता है.
सरकार को चाहिए कि वह ऐसी नयी स्कीम को बढ़ावा दे या फिर बुजर्गों के लिए टैक्स माफी की योजना बनाये. सरकारी नीतियां ऐसी हों, जो नागरिकों के हित में काम करें. हमारे बुजुर्गों का देश के विकास में बहुत बड़ा योगदान रहा है. हमारा वर्तमान उनके अतीत से बना है. उन्होंने जो परिश्रम किया, वह आज हमारे काम आ रहा है. पर सरकार और नेता उनके बारे में उस दृष्टि से नहीं सोच रहे हैं. उनकी सोच वोट बैंक के इर्द-गिर्द घूमती रहती है. इस समय सरकार का खजाना भरा हुआ है और उसके टैक्स टारगेट न केवल पूरे हुए हैं, बल्कि ज्यादा वसूली हुई है. ऐसे में बुजुर्गों के हित में वित्तीय नीति बनाना कठिन नहीं है. बस इच्छाशक्ति चाहिए.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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