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क्रेडिट एजेंसियों की प्रासंगिकता पर सवाल

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रेटिंग एजेंसियों का पूरी दुनिया में एकाधिकार है और वे ज्यादातर अमेरिका आधारित हैं. इस वजह से यह भी देखा गया है कि अमेरिका और उसकी कंपनियों को बेहतर रेटिंग मिलती है.

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वर्ष 2007-08 के दौरान अमेरिकी अर्थव्यवस्था एक भयंकर त्रासदी से गुजरी और लीमन ब्रदर्स के साथ सैकड़ों अमेरिकी बैंक दिवालिया हो गये थे. जैसा कि होता रहा है, इस वित्तीय संकट से यूरोप के बैंकों पर भी भारी मुश्किल आयी और दुनियाभर के देशों पर भी कुछ न कुछ प्रभाव हुआ. तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने कहा था कि भारत इस संकट से अछूता है क्योंकि भारतीय बैंकों का कोई विशेष एक्सपोजर पश्चिम के बैंकों के साथ नहीं है.

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भारत के निर्यात पर कुछ असर जरूर हुआ, लेकिन भारत की आर्थिक वृद्धि की यात्रा जारी रही और भारत सबसे तेजी से बढ़ने वाले मुल्कों में बना रहा. वह संकट अमेरिकी सरकार द्वारा तीन खरब डालर की सहायता से उस समय तो टल गया, लेकिन जानकारों का कहना है कि उसके बाद अमेरिकी अर्थव्यवस्था कमजोर जरूर हुई. दिलचस्प बात यह रही कि दुनिया और महत्वपूर्ण संस्थाओं पर ‘पैनी’ नजर रखने वाली रेटिंग एजेंसियों की भूमिका उस संकट के पहले और उसके बाद संदेहास्पद बनी रही.

मार्च के दूसरे सप्ताह में अमेरिकी टेक स्टार्टअप की फंडिंग करने वाला सिलिकॉन वैली बैंक अचानक बंद हो गया और उसका अधिग्रहण सरकार ने कर लिया. जानकारों का मानना है कि इस बैंक का डूबना प्रौद्योगिकी क्षेत्र के लिए ‘लीमन ब्रदर्स’ के डूबने सरीखा है. इसके साथ ही अमेरिकी वित्तीय संकट फिर गहराने लगा है. बढ़ती ब्याज दरों के चलते अमेरिकी सरकार समर्थित मोर्टगेज प्रतिभूतियां और यहां तक कि अमरीकी ट्रेजरी बिल, जो अत्यंत सुरक्षित माने जाते थे, की कीमत में भी नाटकीय ढंग से गिरावट आयी.

सिलिकॉन वैली बैंक के बाद 167 साल पुराना स्विट्जरलैंड का दूसरा सबसे बड़ा बैंक और वैश्विक इतिहास में सर्वाधिक प्रभावशाली बैंक ‘क्रेडिट स्विस’ वहां के सबसे बड़े बैंक ‘यूबीएस’ के हाथों बिक गया. दुनिया की बड़ी रेटिंग एजेंसियां फिर निवेशकों को जोखिम के बारे में आगाह करने में पूरी तरह विफल रही हैं. सिलिकॉन वैली बैंक के डूबने से पहले तक मूडीज ने इस पर ए3 की रेटिंग बनाये रखी, जो उसकी सातवीं उच्चतम रेटिंग है.

इससे ज्यादा दिलचस्प बात यह रही कि डूबने के दिन भी मूडीज ने उसे मात्र एक पायदान नीचे किया था. ये दोनों रेटिंग निवेशकों को रत्ती भर भी आगाह नहीं करती कि इस संस्था में निवेश हेतु कोई जोखिम है. यही बात ‘क्रेडिट सुइस’ के संबंध में भी लागू होती है. उसकी वेबसाइट पर ही लिखा है कि उसकी क्रेडिट रेटिंग 20 मार्च तक बरकरार रही. यह बात उजागर हो चुकी है कि रेटिंग एजेंसियां निवेशकों को समय पर चेतावनी देने में बुरी तरह असफल रही हैं.

दुनिया में तीन प्रमुख रेटिंग एजेंसियों- स्टैंडर्ड एंड पुअर्स, मूडीज और फिच- की महत्वपूर्ण उपस्थिति है. स्टैंडर्ड एंड पुअर्स और मूडीज का मुख्यालय अमेरिका में है, जबकि फिच का मुख्यालय न्यूयॉर्क और लंदन दोनों में है. वे देशों और वित्तीय संस्थानों की रेटिंग करती हैं, जिसके आधार पर इन देशों द्वारा लिये गये ऋण पर ब्याज दरें निर्धारित की जाती हैं. विभिन्न वित्तीय संस्थानों पर लोगों का भरोसा भी इन्हीं रेटिंग पर निर्भर करता है, जबकि ये एजेंसियां स्वयं संदेह के घेरे में हैं.

यही एजेंसियां, जो अमेरिका और यूरोप पर संकट के बावजूद गहरी निद्रा में रहती हैं, भारत जैसे देशों के बारे में जरूरत से ज्यादा संवेदनशील हो जाती हैं, जिसका फायदा उन्हीं के आका देशों को होता है. भारत जैसे देशों पर इतनी तल्खी तथा अमेरिका और यूरोपीय देशों पर मेहरबानी इन एजेंसियों पर सवालिया निशान लगाती हैं. तीन साल पहले यस बैंक पर आये संकट के बाद मूडीज ने भारतीय बैंकों का आउटलुक स्टेबल से घटाकर निगेटिव कर दिया था.

इसमें कहा गया था कि भारतीय बैंकों की संपत्ति की गुणवत्ता कोरोना महामारी से हुए नुकसान के कारण बिगड़ी है और इसका असर कॉरपोरेट, मध्यम और लघु उद्योगों तथा खुदरा सहित सभी क्षेत्रों में होने की उम्मीद है. इससे बैंकों की पूंजी और तरलता प्रभावित होगी. मूडीज ने यह भी कहा था कि निजी क्षेत्र के बैंक (यस बैंक) में हालिया गड़बड़ी के कारण छोटे कर्जदाताओं को लिक्विडिटी के संकट का सामना करना पड़ सकता है. इस घोषणा के बाद भारतीय बैंकों के शेयरों में भारी गिरावट आयी थी. गौरतलब है, उसके बाद भारतीय बैंकों का ही नहीं, भारतीय अर्थव्यवस्था का भी आगे बढ़ना जारी है, पर ये एजेंसियां अभी भी भारत की क्रेडिट रेटिंग में कंजूसी बरत रही हैं.

भारतीय बैंकों की रेटिंग में गिरावट से न केवल शेयर बाजार में उथल-पुथल मची, बल्कि तब एनपीए समस्या से उबरने वाले बैंकों के लिए और भी बाधाएं पैदा हो गयीं. गौरतलब है कि चारों बैंक- आइसीआइसीआइ, इंडस, आइडीबीआइ और एक्सिस- तेजी से आगे बढ़ रहे हैं. माना जाता है कि निवेशक अपने निवेश के फैसले ऐसी एजेंसियों की रेटिंग के आधार पर लेते हैं.

अब स्थिति बदल रही है और निवेशकों ने खुद भी अन्य मापदंडों पर जांच शुरू कर दी है. लेकिन रेटिंग एजेंसियां अभी भी प्रमुख भूमिका निभाती हैं. आज जरूरत इस बात की है कि इन रेटिंग एजेंसियों की एकाधिकारवादी शक्तियों पर अंकुश लगाया जाए, ताकि हितों के टकराव को रोकते हुए कंपनियों की विश्वसनीयता का सही आकलन किया जा सके.

आज दुनियाभर के निवेशक झूठी क्रेडिट रेटिंग के कारण नुकसान उठा रहे हैं, लेकिन इन कंपनियों पर जुर्माना मामूली होता है. यह सच है कि कई मामलों में रेटिंग एजेंसियों के लिए पूरी जानकारी रखना संभव नहीं होता है, पर प्राप्त जानकारी को छुपाना भी उचित नहीं कहा जा सकता. इन रेटिंग एजेंसियों का पूरी दुनिया में एकाधिकार है और वे ज्यादातर अमेरिका आधारित हैं.

इस वजह से यह भी देखा गया है कि अमेरिका और उसकी कंपनियों को बेहतर रेटिंग मिलती है. इतना ही नहीं, चूंकि रेटिंग का पूरा कारोबार केवल तीन कंपनियों के हाथों में है, इसलिए एकाधिकारिक शक्तियों के दुरुपयोग की संभावनाएं बढ़ जाती हैं. इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि इन रेटिंग कंपनियों को प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़े.

अधिक से अधिक रेटिंग एजेंसियों को मान्यता मिलनी चाहिए. विभिन्न देशों में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है. भारत की भी अपनी रेटिंग एजेंसी क्यों नहीं हो सकती? गौरतलब है कि इन रेटिंग एजेंसियों को चीन की किसी कंपनी का मूल्यांकन करने का अधिकार नहीं है. अलग-अलग देशों की अपनी रेटिंग एजेंसियां हो सकती हैं. साथ ही, इन रेटिंग एजेंसियों के पास खुद निवेशकों से पैसे कमाने की व्यवस्था होनी चाहिए. इन्हें कंपनियों से शुल्क लेने की अनुमति नहीं होनी चाहिए.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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