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तुम तो उस्ताद हो मीता!

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उन्होंने अपने लिखे में बदलते गांव को भी जगह दी थी. उन्होंने विलुप्त हो रही लोक संस्कृति को महसूस किया था. रसप्रिया हो या फिर भित्तिचित्र की मयूरी, इन सब में आप बदलते गांव को महसूस कर सकते हैं.

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गिरींद्र नाथ झा, ब्लॉगर एवं किसान

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girindranath@gmail.com

साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु अपने साथ अनुभवों की एक संपदा लेकर चलते थे. माटी की आवाज सुनने की ताकत रेणु में थी. जिस सूक्ष्म संवेदना और गहरे लगाव से बिहार के एक अंचल की जमीन को उन्होंने कुरेदा था, उसके फैलाव को छवियों से ध्वनित किया था, जिस काव्यात्मक मुहावरे को अपनाया था, वह अभूतपूर्व था. यही कारण है कि रेणु का अर्थ ही माटी हो गया, कोसी अंचल की वह माटी, जिसमें बालू का भी अंश है और उस चिकनी माटी का भी, जो धूप में ईंट का रूप ले लेती है. उनकी आंखों में मानो कैमरे का लेंस था, जो सब कैप्चर कर लेता था और फिर जब देर रात वे तकिये के सहारे लेटकर कागज पर शब्द उकेरते थे, तो बोलती हुई कहानी हमारे सामने आती थी. ये थे रेणु.

निर्मल वर्मा का एक संस्मरण है, जिसमें वे रेणु को कुछ इस तरह याद करते हैं- ‘रेणु की जिस चीज ने सबसे अधिक मुझे खींचा, वह उनका उच्छल हल्कापन था. वह छोटे-छोटे वाक्यों में बोलते थे और फिर शरमा कर हंसने लगते थे. उनक हल्कापन कुछ वैसा ही था, जिसके बारे में चेखव ने एक बार कहा था- कुछ लोग जीवन में बहुत भोगते सहते हैं- ऐसे आदमी ऊपर से बहुत हल्के और हंसमुख दिखायी देते हैं. वे अपनी पीड़ा दूसरों पर नहीं थोपते, क्योंकि शालीनता उन्हें पीड़ा का प्रदर्शन करने से रोकती है.’ रेणु को जिन्होंने महसूस किया, वे सब ऐसी ही बात करते हैं.

आज भी पूर्णिया अंचल में रेणु का लिखा दिख जायेगा, रेणु का मैला आंचल, परती परिकथा यहां अलग-अलग रंग-रूप में व्याप्त है. रेणु आंचलिक होकर भी देश-दुनिया की बात गांव में करते थे. गांव की कथा बांचते हुए वे देश और काल की छवियां सामने लाते थे. वे केवल गांव को लिखते ही नहीं थे, जीते भी थे. वे जहां गये, गांव उनके साथ गया. इसका उदाहरण केथा है. पुराने कपड़े से बुनकर जो बिछावन तैयार किया जाता है, उसे केथा कहते हैं. रेणु जब मुंबई गये, तो केथा भी साथ ले गये. उन्हें अपने गांव को कहीं ले जाने में हिचक नहीं थी.

रेणु हिंदी के लोगों के लिए एक वर्कशॉप की तरह हैं, जहां हम नयी बात, नये प्रयोग सीख सकते हैं. वे रोज की आपाधापी के छोटे-छोटे ब्योरे से वातावरण गढ़ने की कला जानते थे. रेणु को सब याद करते हैं, लेकिन उस किसान रेणु को कोई याद नहीं करता, जो यह कहता था- ‘एक एकड़ धरती में धान उपजाना उपन्यास लिखने जैसा है. लेखन का ही आनंद मिलेगा खेती करने में.’ वे दुख में भी सुख के अंश खोजनेवाले किसान थे.

राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित रेणु रचनावली में उनकी ढेरों चिट्ठियां हैं. आप उनमें रेणु को अलग-अलग रंग-रूप में देख सकते हैं. उनकी एक कविता है- मेरा मीत सनीचर. यह पंक्ति ही रेणु की पहचान है- ‘गांव छोड़कर चले गये हो शहर/ मगर अब भी तुम सचमुच गंवई हो/ शहरी तो नहीं हुए हो/ इससे बढ़कर और भला क्या हो सकती है बात/ अब भी बसा हुआ है इन गांवों का प्यार!’

गांव से रेणु का यही अनुराग उन्हें ‘देश का देसी रेणु’ बनाता है. रेणु को पढ़ते हुए रेणु को जिया जा सकता है. उन्होंने कहा था कि मैला आंचल में ‘यह आजादी झूठी है…’ का नारा उनका ही था. वे अनजान अज्ञात व्यक्ति होकर प्रतिवादी स्वर थे. ‘आजादी को झूठा’ कहनेवाला लेखक अपनी हिंदी का लेखक अपना रेणु था. एक बात और, रेणु के साहित्य में डॉट्स बहुत मिलते हैं. दरअसल, अभिव्यक्ति में असमर्थ होती भाषा के संकेत हैं ये डॉट्स. अपनी लेखनी में असमर्थता को जाहिर करने का साहस रेणु में था. आज रेणु का गांव बदल चुका है, लेकिन उन्होंने अपने लिखे में उस समय के बदलते गांव को भी जगह दी थी.

उन्होंने गांव से विलुप्त होती जा रही लोक संस्कृति को महसूस किया था. रसप्रिया हो या फिर भित्तिचित्र की मयूरी, इन सब में बदलते गांव को आप महसूस कर सकते हैं. भित्तिचित्र की मयूरी में वे एक जगह कहते हैं- ‘बिरादरी को कौन पूछता है आजकल. पूछो कि आदमी क्या है, हैसियत क्या है!’ आजादी के बाद गांव बिखरता है, उसकी सामूहिकता भंग होती है.

रेणु हमारी पहचान हैं, यह अंचल रेणु का है. बाहर से कोई भी आता है, तो आज भी रेणु के बारे में जरूर पूछता है. उन्हें जिसने भी पढ़ा, वह उनका ऋणी हो गया. रेणु सब कुछ देखते-भोगते शहर-गांव करते अंचल की कथा बांचते रहे और उनका कथा संसार हिंदी का संसार बनता चला गया. वे हमारे उस्ताद थे, हमारे अंचल के वही गाड़ीवान थे, वही हीरामन थे, वही डॉक्टर प्रशांत थे… रेणु की ही बोली-बानी में कहिये तो- तुम तो उस्ताद हो मीता!

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