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आर्थिक तबाही के कगार पर पाकिस्तान

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निर्वाचित सरकार से ज्यादा शक्ति सेना के पास थी और है, लेकिन सेना की भी अपनी सीमा है, क्योंकि चीन पाकिस्तान के भीतर है.

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प्रो सतीश कुमार

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राजनीति विज्ञान संकाय, इग्नू, नयी दिल्ली

singhsatis@gmail.com

पाकिस्तान के हालात श्रीलंका से भी खतरनाक बन सकते हैं. सेना की वजह से शहबाज शरीफ प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठ तो गये हैं, पर पाकिस्तान की राजनीतिक व्यवस्था ऐसे मुकाम पर खड़ी है, जो कभी भी फिसल कर गर्त में जा सकती है. इसके कई लक्षण दिख रहे हैं. पहला, पाकिस्तान 75 वर्षों में राष्ट्र-राज्य होने की बुनियादी शर्तों को पूरा नहीं कर पाया है. भारत विरोध की बेचैनी और बेवकूफी ने उसे विदेशी शक्तियों का आहार बना दिया. शीत युद्ध के दौरान अमेरिका उसके सामरिक समीकरण को अपने हित में उपयोग करता रहा. अपने सैन्य खेमे में शामिल कर अमेरिका उसे मुलायम मुस्लिम स्टेट के नाम पर उसका दोहन करता रहा. फिर पाकिस्तान चीन के झांसे में आ गया.

चूंकि चीन पड़ोसी देश है, इसलिए उसकी घेराबंदी पाकिस्तान के गले की हड्डी बन गयी. पाकिस्तान में चीनी छल को बारीकी से समझा जा सकता है. साल 1963 में जब पाकिस्तान ने पाक अधिकृत कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा चीन को दे दिया, तब से चीन ने उसके सामरिक महत्व को अपने ढंग से इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. चीन दूर की सोचता है. अस्सी के दशक में उसे एक नये समुद्री मार्ग की जरूरत थी. उसे मालूम था कि साउथ चाइना सी और पूर्वी एशिया में अमेरिकी बेड़े दस्तक दे रहे हैं. उस क्षेत्र में जापान और अन्य देश अमेरिका के सहयोगी हैं.

ऐसी स्थिति में चीन ने पाकिस्तान को एक सपना दिखाया, जिसे आर्थिक गलियारे सिपेक के नाम से जानते हैं. पाकिस्तान के पास विकास का कोई अपना ढांचा तो कभी बना नहीं, तो उसे चीन का मॉडल आकर्षक लगा. शायद उसे मालूम नहीं था कि यह एक ऐसा फंदा है, जो पाकिस्तान को हमेशा के लिए बंधुआ बना सकता है. जब सिपेक का रोडमैप बन रहा था, तब चीन ने चालाकी से यह स्पष्ट कर दिया था कि इससे संबधित कोई भी विवाद चीन के नियमों से हल किये जायेंगे, क्योंकि चीन को मालूम था कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाक अधिकृत विवादास्पद क्षेत्र है और पाकिस्तान का अपना कोई नियम नहीं है.

आज पाकिस्तान की राजनीतिक व्यवस्था उसी नागपाश में बंधी हुई दिख रही है. गिलगित-बल्टिस्तान में चीन की अलग कॉलोनी बन गयी है. वहां मुस्लिम समुदाय के लिए अधर्म और घृणा का विषय सुअर का मांस धड़ल्ले से बेचा-खरीदा जाता है. स्थानीय लोग हताशा से यह सब होते हुए देख रहे हैं. इतना ही नहीं, गवादर पोर्ट से लेकर सिपेक के कार्यस्थल तक पर इंजीनियर से लेकर मजदूर भी चीनी हैं, यानी रोजगार के नाम पर पाकिस्तान को कुछ हासिल नहीं हुआ है. क्या इस संबंध को ‘हिमालय से भी ऊंचा और समुद्र से भी गहरा’ कहा जा सकता है, जैसा पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान कहा करते थे?

पाकिस्तान आर्थिक बदहाली का सामना कर रहा है. लोगों का दैनिक जीवन एक बड़ा संघर्ष बन गया है. पाकिस्तान भारी विदेशी कर्ज में भी डूबता जा रहा है. उसे लगातार बढ़ती मुद्रास्फीति का भी सामना करना पड़ रहा है. इस आर्थिक संकट की स्थिति में आयात में अभूतपूर्व वृद्धि होने के कारण देश का व्यापार घाटा भी नौ महीनों से बढ़ता जा रहा है, जबकि निर्यात लगभग 2.5 बिलियन अमरीकी डॉलर से 2.8 बिलियन अमरीकी डॉलर प्रतिमाह पर स्थिर है. पाकिस्तान बिजली की कमी का भी सामना कर रहा है. तमाम मुश्किलों के बीच ईंधन की कमी और तकनीकी बाधाओं के कारण पाकिस्तान गंभीर बिजली संकट से भी त्रस्त है.

देशव्यापी 21,500 मेगावाट मांग की तुलना में 15,500 मेगावाट बिजली का ही उत्पादन होने से 6000 मेगावाट बिजली कम मिल रही है. ऊर्जा मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार, कुल 33,000 मेगावाट ऊर्जा उत्पादन क्षमता में से पनबिजली प्लांट 1000 मेगावाट, निजी क्षेत्र के बिजली प्लांट 12000 मेगावाट तथा ताप विद्युत प्लांट 2,500 मेगावाट बिजली का उत्पादन कर रहे हैं. पाकिस्तान के कई बिजली प्लांट बंद होने से भी यह कमी गंभीर हो गयी है. इस कारण वहां रोजाना 10 घंटे तक बिजली गुल रहती है.

सैनिक तानाशाह जनरल मुशर्रफ के सत्ता छोड़ने के वर्षों बाद भी पाकिस्तानी सेना, सत्ता और सरकार पर अपना काबू बनाये हुए है. पाकिस्‍तान की सियासत में उसका प्रत्‍यक्ष या अप्रत्‍यक्ष दखल हमेशा रहता है. देश की सुरक्षा, विदेश नीति और अर्थव्यवस्था के विषय में उसका पूरा हस्‍तक्षेप है. राजनेता फौज के इस प्रभाव को समझते हैं और उसके दरवाजे पर हाजिरी भी देते हैं. वर्ष 2018 में इमरान की जीत के बाद पाकिस्‍तान के इतिहास में महज दूसरी बार सत्ता राजनेता से राजनेता के पास गयी थी. इमरान के हालिया संकट के पीछे भी फौज का नाखुश होना ही माना जा रहा है. पाकिस्तान में लोकतंत्र अभी खोखला ही है.

इसी कारण वहां अभी तक कोई प्रधानमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सका है. इमरान खान भी नहीं कर सके और इसकी वजह यही रही कि जो सेना छल-बल से उन्हें सत्ता में लायी थी, वह उनसे आजिज आ गयी थी. इसका पता इससे चलता है कि जिस समय इमरान यह शोर मचा रहे थे कि विपक्ष अमेरिका के इशारे पर उनकी सरकार गिराने की साजिश रच रहा है, उसी समय पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा न केवल अमेरिका से अच्छे रिश्तों को रेखांकित कर रहे थे, बल्कि यूक्रेन पर रूस के हमले की आलोचना भी कर रहे थे.

उनके इस बयान से यही संकेत मिला कि उन्हें इमरान का हालिया रूस दौरा रास नहीं आया. इसका एक कारण यह है कि सेना प्रमुख बाजवा एक और सेवा विस्तार चाह रहे हैं. इससे उन सैन्य अधिकारियों का क्षुब्ध होना स्वाभाविक है, जो सैन्य प्रमुख बनने की कतार में हैं. यह भी किसी से छिपा हुआ नहीं है कि इमरान खान जिस सैन्य अफसर को खुफिया एजेंसी आईएसआई का प्रमुख बनाना चाहते थे, वह बाजवा को स्वीकार नहीं था.

पाकिस्तान की अंदरूनी राजनीति का उतना महत्व नहीं है. अगर निर्णय प्रक्रिया की बात करें, तो निर्वाचित सरकार से ज्यादा शक्ति सेना के पास थी और है, लेकिन सेना की भी अपनी सीमा है, क्योंकि चीन पाकिस्तान के भीतर है. निर्णय पर उसका अंगूठा चलता है. इसलिए पाकिस्तान की मुसीबत गंभीर है. अमेरिकी प्रभाव के काल में हस्तक्षेप दूर की गोटी थी, लेकिन चीन तो भीतर है. पाकिस्तान भारत विरोध की सोच के कारण अपनी संप्रभुता को दांव पर लगा चुका है. ड्रैगन के चंगुल में न ही पाकिस्तान एक देश बन पायेगा और न ही उसकी जनता को राहत मिलेगी.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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