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आर्थिक समीक्षा में आशावादी तसवीर

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समीक्षा में मुद्रास्फीति को लेकर भी चिंता जतायी गयी है. इसमें सुधार की बहुत अधिक गुंजाइश नहीं दिख रही है क्योंकि रूस-यूक्रेन युद्ध के समाप्त होने के आसार अभी नजर नहीं आ रहे हैं.

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इस वर्ष की आर्थिक समीक्षा में देश की अर्थव्यवस्था की एक आशावादी तसवीर प्रस्तुत की गयी है. इसमें कहा गया है कि आगामी वित्त वर्ष 2023-24 में हमारी अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर छह से 6.8 प्रतिशत तक रह सकती है. यह आकलन उचित ही है. समीक्षा ने सही इंगित किया है कि वैश्विक स्तर पर, विशेष रूप से महत्वपूर्ण अर्थव्यवस्थाओं में, सुस्ती का माहौल है. कोविड के कारण चीन की अर्थव्यवस्था में भी संकुचन आया है.

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इसमें कोई दो राय नहीं है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में अगले साल गिरावट आयेगी. समीक्षा भारत को लेकर इस कारण आशावादी है क्योंकि अर्थव्यवस्था की गति बनी हुई है और हम महामारी से पहले की स्थिति में पहुंच चुके हैं. इसका अर्थ यह है कि हमारी अर्थव्यवस्था महामारी के असर से बाहर निकल चुकी है. इसमें यह भी बताया गया है कि पूंजी व्यय भी बढ़ा है और घरेलू मांग में भी बढ़ोतरी हुई है.

मांग बढ़ने के बारे में जो कहा गया है, वह कुछ निजी सर्वेक्षणों के आंकड़ों पर आधारित है. इस संबंध में सही और पूरी तसवीर तभी सामने आयेगी, जब वर्तमान वित्त वर्ष 2022-23 की आर्थिक वृद्धि के सभी तथ्य हमारे सामने होंगे. संभव है कि इसके बारे बजट में भी उल्लेख हो.

आर्थिक समीक्षा में यह भी उल्लेख किया गया है कि वित्त वर्ष 2021-22 की तुलना में वस्तु एवं सेवाकर (जीएसटी) के संग्रहण में उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई है. यह भी बताया गया है कि छोटे कारोबारों द्वारा दिये जाने वाले जीएसटी में भी वृद्धि हुई है.

इसका अर्थ यह है कि छोटे उद्यम और उद्योग, जिन पर महामारी का सबसे अधिक असर हुआ था, अब उबर चुके हैं या उबरने की प्रक्रिया में हैं. इन कारोबारों से होने वाला संग्रहण महामारी से पहले के स्तर को पार कर चुका है. समीक्षा में पूंजी व्यय पर बहुत जोर दिया गया है. बताया गया है कि नवंबर, 2022 तक इसमें 63.4 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है.

समीक्षा की आशा का एक आधार यह भी है कि आवास के मूल्यों में वृद्धि होने लगी है. इसका मतलब यह है कि हाउसिंग में भी मांग बढ़ रही है. बैंकों द्वारा दिये जाने वाले कर्ज में वृद्धि हुई है. इसमें एक उल्लेखनीय कारक वे कर्ज हैं, जो वैसी सरकारी योजनाओं के तहत दिये जा रहे हैं, जिनमें ब्याज दर बहुत कम है.

समीक्षा में यह भी स्वीकार किया गया है कि हमारे निर्यात में कमी आयी है. इस संदर्भ में यह तथ्य भी रेखांकित किया गया है कि वैश्विक व्यापार में भी अनेक कारणों से गिरावट दर्ज की गयी है. अब ऐसे में स्वाभाविक ही है कि हमारा निर्यात इससे प्रभावित हुआ है.

अगर हम समीक्षा की समझ के अनुरूप यह मानें कि उपभोग और मांग बनी रहेगी, तो भी हमें स्वीकार करना होगा कि निर्यात में कमी आयेगी और आयात में बढ़ोतरी होगी. उदाहरण के लिए, साधारण मोबाइल और कम दाम के फोन की मांग भी बढ़ती है, तो उसे आयात ही करना पड़ेगा. ऐसे में चालू खाता घाटा में वृद्धि होगी. इस बात को समीक्षा में भी स्वीकार किया गया है. यह घाटा बढ़ा भी है और इसके बहुत अधिक बढ़ने की आशंका भी है.

इसमें एक कारक रुपये की तुलना में डॉलर का मूल्य बढ़ना भी है. घाटा बढ़ने पर रुपये में और गिरावट आयेगी. इस पहलू पर समीक्षा में बात की जानी चाहिए थी. ऐतिहासिक रूप से तीन प्रतिशत के आसपास चालू खाता घाटा बना रहता है, जिसका प्रबंधन आसानी से किया जाता रहा है क्योंकि विदेशों से आने वाली पूंजी से उसे संतुलित कर लिया जाता है.

लेकिन अगर इसमें बढ़ोतरी होती है, मुश्किलें आ सकती हैं. कुछ लोगों का आकलन है कि यह सात प्रतिशत तक भी हो सकता है. सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) में निर्यात की उल्लेखनीय भूमिका होती है. अगर उसमें गिरावट आयेगी, तो घरेलू मांग को अधिक समय तक बनाये रखा पाना संभव नहीं होगा.

इस समीक्षा में मुद्रास्फीति को लेकर भी चिंता जतायी गयी है. इसमें सुधार की बहुत अधिक गुंजाइश नहीं दिख रही है क्योंकि रूस-यूक्रेन युद्ध के समाप्त होने के आसार अभी नजर नहीं आ रहे हैं. इसके साथ अन्य कुछ कारक भी हैं. ऐसे में अनिश्चितता स्वाभाविक है. समीक्षा में चीन की अर्थव्यवस्था लड़खड़ाने का उल्लेख है.

यह भारत के लिए भी चिंता का एक कारण है क्योंकि वह हमारे सबसे बड़े व्यापारिक भागीदारों में एक है. उसकी अर्थव्यवस्था मंद पड़ने से हमारी आपूर्ति शृंखला प्रभावित होगी. घरेलू मांग से कहीं अधिक इसका असर औद्योगिक उत्पादन प्रक्रिया पर होगा क्योंकि उत्पादन के लिए आवश्यक वस्तुओं का मिलना मुश्किल हो जायेगा और उनके दाम बहुत बढ़ जायेंगे.

समीक्षा में कहा गया है कि भारत के पास समुचित विदेशी मुद्रा है, तो आपूर्ति शृंखला से संबंधित प्रक्रियाओं के लिए वित्त उपलब्धता में समस्या नहीं आयेगी. अगर मुद्रास्फीति उच्च स्तर पर बनी रहेगी, तो ब्याज दर भी अधिक रहेंगे. ब्याज दर बढ़ाने से मुद्रास्फीति कम तो होती है, लेकिन इससे लेनदारी का खर्च भी बढ़ जता है. समीक्षा ने यह भी बताया है कि जो पूंजी खर्च हो रहा है, वह मुख्य रूप से सरकार की ओर से हो रहा है. निजी क्षेत्र का निवेश उतना नहीं है, जितना होना चाहिए. इसके लिए ब्याज दर कम करना होगा.

आर्थिक समीक्षा में वित्त वर्ष 2012-13 की तुलना करते हुए कहा गया है कि 2022-23 में पूंजी खर्च में 13 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. इसमें दिलचस्प तथ्य यह है कि केंद्र सरकार से अधिक पूंजी खर्च राज्य सरकारों का रहा है. इस खर्च में वह हिस्सा भी अहम है, जो सरकार ने महामारी से निपटने के लिए खर्च किया है. समीक्षा यह भी संकेत करती है कि पूंजी खर्च में कमी करने की आवश्यकता भी है.

इसका अर्थ यह है कि हमें कमर कसना पड़ेगा और खर्च कम करना होगा. इसका यह भी मतलब है कि सरकारी योजनाओं के लिए आवंटन में कमी आ सकती है. समीक्षा यह मानकर चल रही है कि निजी क्षेत्र से निवेश आयेगा, लेकिन वहां उधार लेने का खर्च अधिक है. समीक्षा का विश्लेषण मुख्य रूप से कोरोना की दूसरी लहर के दौर की तुलना में किया गया, जो मुझे लगता है कि ठीक नहीं है क्योंकि तब कई महीनों तक देश में अफरातफरी थी और कारोबार प्रभावित थे. मुझे उम्मीद है कि बजट में किसानों के लिए कुछ प्रावधान होगा और करों में छूट दी जायेगी.

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