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पेट्रोल-डीजल कीमतों की सच्चाई

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अन्य देशों की तुलना में तेल पर टैक्स बहुत अधिक है. प्रश्न यह है कि इसे घटाया कैसे जा सकता है? इसका एक समाधान यह बताया जा रहा है कि पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी के दायरे में लाया जाए.

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डॉ अश्विनी महाजन

राष्ट्रीय सह-संयोजक

स्वदेशी जागरण मंच

ashwanimahajan@rediffmail.com

पेट्रोल-डीजल की रिटेल कीमत में बेतहाशा वृद्धि की चर्चा हो रही है. एक समय कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतें काफी बढ़ गयी थीं, जो बाद में नीचे आ गयीं. कोरोना काल के समय तो कच्चे तेल की कीमतें बहुत अधिक घट गयी थीं, लेकिन कच्चे तेल की कीमतें फिर से बढ़ने लगी हैं. अभी 66 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गयी हैं. पिछले कुछ समय से कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमत के आधार पर रोज बदलती हैं. बढ़ती कच्चे तेल की कीमतों के चलते पेट्रोल-डीजल के खुदरा मूल्य में लगातार बढ़ोतरी हो रही है, जिससे जनता की जेब पर भारी बोझ पड़ने लगा है.

स्वभाविक तौर पर इसका गुस्सा केंद्र सरकार पर फूटता है. विपक्षी पार्टियों का यह कहना है कि जब कच्चे तेल की कीमत अप्रैल 2014 में 110 डॉलर प्रति बैरल थी, तो भी दिल्ली में पेट्रोल की कीमत 72.26 रुपये प्रति लीटर ही थी. आज कच्चे तेल की कीमत 66 डॉलर प्रति बैरल ही है, तो भी दिल्ली में पेट्रोल की कीमत 91 रुपये प्रति लीटर और डीजल की कीमत 81 रुपये प्रति लीटर से ज्यादा पहुंच गयी है. कहीं इसके लिए केंद्र सरकार तो जिम्मेदार नहीं? वास्तव में तथ्य अलग सच्चाई बयान करते हैं.

पेट्रोल-डीजल की बाजार कीमत में वास्तविक कीमत का हिस्सा लगभग 34 प्रतिशत ही है, शेष केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के टैक्स हैं. यदि हम देखें, तो दिल्ली में 91 रुपये प्रति लीटर पेट्रोल की कीमत में डीलर कमीशन चार प्रतिशत, राज्य सरकार का हिस्सा 23 प्रतिशत और केंद्र सरकार का कर में हिस्सा 40 प्रतिशत है. केंद्रीय उत्पाद शुल्क का हिस्सा 40 प्रतिशत है. वित्त आयोग की सिफारिशों के अनुसार केंद्र सरकार द्वारा एकत्र किये गये सभी करों का 42 प्रतिशत हिस्सा राज्यों को जाता है, लेकिन केंद्र सरकार द्वारा लगाये गये टैक्स में एक पेच जरूर है.

इस वर्ष के बजट से पूर्व तक केंद्र सरकार पेट्रोल पर प्रति लीटर 2.98 रुपये का केंद्रीय उत्पाद शुल्क, 12 रुपये विशेष अतिरिक्त उत्पाद शुल्क और 18 रुपये का इन्फ्रास्ट्रक्चर अधिभार लगा रही थी, यानी कुल 33 रुपये प्रति लीटर. अधिभार को राज्यों से साझा नहीं करना पड़ता, इसलिए केंद्र सरकार के पास 18 रुपये प्रति लीटर के अधिभार के अलावा, 15 रुपये प्रति लीटर के केंद्रीय उत्पाद शुल्क में से राज्यों का 42 प्रतिशत हिस्सा निकालकर मात्र 8.70 रुपये ही बचते हैं.

यानी, पेट्रोल की कीमत में केंद्र का हिस्सा 26.70 रुपये प्रति लीटर ही बचता है, जबकि राज्य सरकारों को कीमत पर वैट मिलता है. निष्कर्ष यह है कि दिल्ली में पेट्रोल की 91 रुपये प्रति लीटर की कीमत में केंद्र सरकार को 26.70 रुपये, राज्य सरकार को 27.30 रुपये मिलते हैं. पेट्रोल कीमत में उत्पादन और वितरण का खर्च मात्र 33 रुपये ही है. जिन राज्यों में पेट्रोल–डीजल की कीमतें दिल्ली से ज्यादा हैं, वहां राज्यों का ‘वैट’ ही ज्यादा हैं.

पेट्रोल-डीजल कीमतों में वृद्धि का ज्यादा हिस्सा केंद्र और राज्यों के खजाने में जाता है. इस सवाल का जवाब देना थोड़ा मुश्किल है. जहां तक उपभोक्ता का प्रश्न है उसे चूंकि इस टैक्स का बोझ सीधे सहना पड़ता है, वो तो अवश्य चाहेगा कि ये टैक्स कम हो जायें. सोशल मीडिया पर टैक्सों का विरोध सामान्य रूप से हो ही रहा है. अन्य देशों की बात करें तो वहां पेट्रोल-डीजल पर टैक्स भारत से कम होने के कारण वहां तेल के दाम कम हैं.

इस बात से भी उपभोक्ता नाराज हैं. कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि पेट्रोल-डीजल की कीमतों में वृद्धि दो कारणों से महंगाई बढ़ती है. एक तो सीधे तौर पर और दूसरे पेट्रोलियम उत्पादों की कीमत बढ़ने के कारण वितरण और उत्पादन की लागत बढ़ती है. दूसरी ओर, सरकारों का राजस्व (खासतौर पर महामारी के कारण) काफी कम हो गया है. चूंकि पेट्रोल और डीजल की भारी बिक्री होती है, इससे सरकारी राजस्व (केंद्र और राज्य सरकार दोनों) आसानी से बढ़ाया जा सकता है, जिससे जन कल्याण (शिक्षा, स्वास्थ्य) और विकास (इन्फ्रास्ट्रक्चर) पर खर्च बढ़ाया जा सकता है.

राजस्व कम होने से या तो यह खर्च प्रभावित होगा या सरकार को अपना घाटा बढ़ाना पड़ेगा, जिससे महंगाई बढ़ने की आशंका होगी. तर्क दिया जाता है कि पेट्रोल-डीजल का अधिक उपयोग विदेशों पर हमारी निर्भरता को बढ़ाता है और देश का व्यापार घाटा बढ़ता है. यदि इलेक्ट्रिक वाहनों की ओर आकर्षित होते हैं तो उससे हम बहुमूल्य विदेशी मुद्रा तो बचायेंगे ही, साथ ही साथ पर्यावरण की भी सुरक्षा होगी.

तर्क चाहे जो भी हों, इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता कि चाहे पूर्व की तुलना में देखा जाये या अन्य देशों की तुलना में, तेल पर टैक्स बहुत अधिक है. प्रश्न यह है कि इसे घटाया कैसे जा सकता है? इसका एक समाधान यह बताया जा रहा है कि पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी के दायरे में लाया जाये. इससे पेट्रोलियम उत्पादों पर कर (जीएसटी) 28 प्रतिशत से ज्यादा नहीं हो पायेगा. इसमें से ज्यादा हिस्सा 71 प्रतिशत राज्यों को ही मिलेगा.

इसके बाद भी इन्फ्रास्ट्रक्चर और इस वर्ष के बजट के अनुसार कृषि अधिभार केंद्र सरकार लगा ही सकती है. ऐसे में पेट्रोल-डीजल की कीमतों में भारी कमी की आशा की जा सकती है. लेकिन इसमें समस्या यह है कि जब जीएसटी लागू किया गया था तो उस समय राज्य सरकारें पेट्रोलियम उत्पादों और शराब को जीएसटी के दायरे में लाने के लिए तैयार नहीं थीं. यही स्थिति आज भी है. हालांकि केंद्र सरकार द्वारा पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी के दायरे में लाने के प्रस्ताव के संकेत आ रहे हैं, लेकिन राज्य सरकारों के विरोध के चलते ऐसा होना संभव प्रतीत नहीं होता है. लेकिन केंद्र सरकार के प्रस्ताव के कारण राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों पर कुछ अंकुश जरूर लगेगा.

Posted By : Sameer Oraon

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