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गीत को प्राण देने वाले राष्ट्रभक्त कवि थे नेपाली

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नेपाली ने एक गीत में कहा- ‘हर क्रांति कलम से शुरू हुई, संपूर्ण हुई / चट्टान जुल्म की कलम चली तो चूर्ण हुई / हम कलम चला कर त्रास बदलने वाले हैं / हम कवि हैं इतिहास बदलने वाले हैं'

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डॉ अनिल सुलभ, साहित्यकार

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मेरा धन है स्वाधीन कलम’ के अमर रचनाकार, कवि-पुंगव गोपाल सिंह नेपाली विलक्षण प्रतिभा के गीतकार, स्वाभिमानी और राष्ट्रभक्त कवि थे. प्रेम और स्फूरण के अमर गायक के गीतों में देशभक्ति और सारस्वत ऋंगार था. कलम से क्रांति का बिगुल फूंकनेवाले नेपाली की लेखनी से गीतों की निर्झरनी बहती थी. चीन के साथ युद्ध के दौरान भारतीय सैनिकों के उत्साहवर्द्धन और देशवासियों को जगाने के लिए नेपाली ने जो कुछ लिखा और जिस तरह घूम-घूम कर अलख जगाया, वह भारत के साहित्यिक इतिहास का लुभावना और अमिट हिस्सा है.

गीत नेपाली की लेखनी में ही नहीं, उनके प्राण और प्राणवाहिका धमनियों में समाये हुए थे. उनके रक्त-मज्जे और रोमकूपों से भी गीत फूटते थे. वे सांस भी भरें, तो छंद निकल पड़ता था. आह निकले, तो उसके साथ ऐसे मर्मस्पर्शी गीत बह निकलते थे, जिन्हें सुनकर लाखों हृदय तड़प उठते थे. जब 21 वर्ष की आयु में नेपाली ने 1932 में पहली बार वाराणसी की काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा आयोजित एक अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में अपना काव्यपाठ किया, तो सभी बड़े कवियों ने उनकी काव्य प्रतिभा और विशिष्ट शैली की मुक्त कंठ से प्रशंसा की थी. बिहार के बेतिया में 11 अगस्त, 1911 को जन्मे, यौवन के द्वार पर पग रख रहे इस किशोर कवि ने अपनी प्रतिभा से जो कमाल किया था, उससे काव्य जगत चमत्कृत हो गया था.

वे ‘जन्माष्टमी’ के दिन जन्मे थे, इसीलिए माता-पिता (सरस्वती देवी तथा रेल बहादुर सिंह) ने पुत्र का नाम ‘गोपाल’ (गोपाल बहादुर सिंह) रखा था. साल 1934 में नेपाली का प्रथम काव्य संग्रह ‘उमंग’ का प्रकाशन हुआ. यह एक युवा हृदय की अभिव्यक्ति भर नहीं, बल्कि इसमें ज्ञान-गंभीर विषयों, शोषित-पीड़ितों, नारी-वेदना और राष्ट्रीयता के भी स्वर थे. ‘रोता भाग्य हमारा रुककर टेढ़ी कड़ी लकीरों में / चित्र हमारे वैभव का है नग्न उदास फकीरों में / लटक रहा है सुख कितनों का आज खेत के गन्नों में / भूखों के भगवान खड़े हैं, दो-दो मुट्ठी अन्नों में.’

नेपाली की प्रथम काव्य पुस्तक ने ही उन्हें देश के शीर्षस्थ कवियों में प्रतिष्ठित कर दिया. इसके पश्चात 1934 में ‘पंछी’, 1935 में ‘रागिनी’, 1944 में ‘नीलिमा’, ‘पंचमी’ और ‘नवीन’ तथा 1962 में ‘हिमालय ने पुकारा’ का प्रकाशन हुआ.साल 1944 में प्रकाशित उनके छठे काव्य संग्रह ‘नवीन’ के पश्चात सातवें संग्रह की प्रतीक्षा हिंदी जगत को 18 वर्ष तक करनी पड़ी. यह नेपाली के जीवन में उठे उथल-पुथल और एक अलग प्रकार के संघर्ष की दुखद कथा है, जिसने उनकी जवानी को लूट लिया.

‘मेरी दुल्हन-सी रातों को नौ लाख सितारों ने लूटा’ के कवि को नभ के सितारों ने नही, फिल्म की ‘मायानागरी’ ने लूटा था. यह कथा माया नगरी ‘मुंबई’ की माया-कथा है. यह और बात है कि उनके गीतों ने हिंदी फिल्मों को हिंदी में संस्कारित किया था और उन लोगों का उत्तर बना था, जो यह समझते थे कि हिंदी में फिल्मों के लिए अच्छे गीत नही लिखे जा सकते. नेपाली ने फिल्मों के लिए चार सौ से अधिक गीत लिखे. भारत-चीन युद्ध के कुछ पहले वे मायानगरी से मुक्त हो पाये. उसी दौरान उन्होंने ‘हिमालय ने पुकारा’ का प्रणयन किया.

वीर सैनिकों के उत्साहवर्द्धन तथा उनके पराक्रम को बल देने के लिए उन्होंने गीतों की झड़ी लगा दी. उन्होंने चालीस करोड़ के तत्कालीन भारत का आह्वान करते हुए कहा- ‘हो जाये पराधीन नही गंग की धारा / गंगा के किनारों को शिवालय ने पुकारा / शंकर की पुरी चीन ने सेना को उतारा / चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा.’ वे मानते थे कि क्रांतियों का बीजवपन लेखनी से हुआ. उन्होंने एक गीत में कहा- ‘हर क्रांति कलम से शुरू हुई, संपूर्ण हुई / चट्टान जुल्म की कलम चली तो चूर्ण हुई / हम कलम चला कर त्रास बदलने वाले हैं / हम कवि हैं इतिहास बदलने वाले हैं.’

अफसोस कि इतिहास बदलनेवाले उस काव्य प्रतिभा का संपूर्ण इतिहास आज तक नही लिखा जा सका. इस महान कवि की मृत्य भी उनकी प्रतिष्ठा के अनुकूल नही रही. वे 16 अप्रैल, 1963 को कहलगांव आये थे. शारदा पाठशाला में लगभग पूरी रात श्रोताओं के आग्रह पर गा-गा कर अनेक गीत सुनाये. यह उनकी अंतिम काव्य संध्या थी. अविराम भ्रमण, रात-रात भर काव्य पाठ, अनियमित दिनचर्या ने उनके स्वास्थ्य को खराब कर दिया था. अगले दिन सुबह वे स्वयं को कुछ अस्वस्थ पा रहे थे, पर नहीं ठहरे और साहेबगंज-भागलपुर एक्सप्रेस पर सवार हो गये. एकचारी स्टेशन पर कवि की सांस उखड़ने लगी. एक अज्ञात साधु ने अपने कमंडल से गंगा जल डाला, और ‘हो जाये पराधीन नही गंग की धारा’ का गान करनेवाला कवि सदा के लिए मौन हो गया.

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