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विदेशी मीडिया की नकारात्मक रिपोर्टिंग

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स्पष्ट रूप से सरकार विदेशी मीडिया की रिपोर्टिंग से असहज है. घरेलू मीडिया की स्थिति बिलकुल अलग है. सरकार का मानना है कि ये रिपोर्ट तथ्यों पर आधारित नहीं हैं और इनमें तोड़-मरोड़कर विचार पेश किये जा रहे हैं

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पश्चिमी नेताओं के साथ अपने दोनों कार्यकाल में अब तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बहुत अच्छे संबंध रहे हैं. लेकिन ऐसा पश्चिमी मीडिया के साथ नहीं है, जो उनके लिए कभी दबंग शासक, तो कभी तानाशाह जैसी संज्ञाओं का इस्तेमाल करता है. उनकी सरकार ने ऐसे शाब्दिक हमलों का जवाब पारंपरिक मीडिया के प्रति तिरस्कार के भाव से दिया है, जिसका आवरण राष्ट्रीय श्रेष्ठता का नया विश्वास तथा पश्चिमी मीडिया के प्रति अस्वीकार है.

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कुछ दिन पहले राहुल गांधी के भारतीय-अमेरिकी सलाहकार सैम पित्रोदा, जो उनके पिता के भी सलाहकार रह चुके हैं, ने मोदी को निशाना बनाने के लिए पश्चिमी मीडिया की हालिया सुर्खियों को हथियार बनाया. व्हाट्सएप संदेशों और मीम के प्रसार के इस दौर में समाचार ऐसी चीज है, जिसे सजा-संवार कर पेश किया जा रहा है. किस खबर को आगे रखा जायेगा और क्या सुर्खियां होंगी, यह तय करने का अधिकार मीडिया में कुछ चुनींदा लोगों को ही होता है. जैसे-जैसे चुनाव प्रक्रिया आगे बढ़ रही है, वैसे-वैसे कुछ सुर्खियां, इंटरव्यू और टीवी बहसों के क्लिप खबर बनती जा रही हैं.

इसलिए अचरज की बात नहीं कि पित्रोदा ने दुनियाभर की मीडिया की 50 से अधिक सुर्खियों को सोशल मीडिया पर पेश किया. भाजपा के अनुसार, इनमें मोदी के प्रति नफरत और भारतीय संस्थाओं के लिए अपमान झलकता है. बीते कुछ महीनों में सबसे अधिक सुर्खियां न्यूयॉर्क टाइम्स, गार्डियन, इकोनॉमिस्ट, फाइनेंशियल टाइम्स, एलए टाइम्स, रॉयटर, ला मोंद, टाइम और ब्लूमबर्ग से चुनी गयी हैं. सभी में संदेश समान था, मानो ये सब एक ही सोच से निर्देशित हों.

मतदाताओं को प्रभावित करने के इरादे से सोशल मीडिया में पित्रोदा द्वारा इन्हें पोस्ट किया गया था. एक्स पर उनके पोस्ट को कुछ ही दिन में पांच लाख से अधिक लोगों ने देखा. इसे कांग्रेस समर्थकों ने साझा तो किया ही, संघ परिवार के लोगों ने भी समाचार संस्थाओं की साख गिराने के उद्देश्य से पोस्ट को आगे बढ़ाया.
पित्रोदा द्वारा चुनी गयीं कुछ सुर्खियां इस प्रकार हैं- ‘भारत का मोदीकरण लगभग पूरा’ (टाइम), ‘असंतोष को अवैध बनाने से लोकतंत्र को नुकसान’ (गार्डियन), ‘प्रगतिशील दक्षिण द्वारा मोदी का अस्वीकार’ (ब्लूमबर्ग), ‘मदर ऑफ डेमोक्रेसी की हालत ठीक नहीं’ (फाइनेंशियल टाइम्स), ‘मोदी के झूठों का मंदिर’ (न्यूयॉर्क टाइम्स), ‘भारतीय लोकतंत्र नाममात्र का’ (ला मोंद), ‘मोदी का अनुदारवाद भारत की आर्थिक प्रगति को बाधित कर सकता है’ (इकोनॉमिस्ट), ‘भारत में लोकतंत्र में कमी को देखते हुए पश्चिम अपने संबंधों की समीक्षा कर सकता है’ (चैथम हाउस), ‘मोदी और भारत के तानाशाही की ओर अग्रसर होने पर बाइडेन चुप क्यों हैं’ (एलए टाइम्स).

जब लगभग सभी बड़े अंतरराष्ट्रीय प्रकाशन ऐसी बातें लिख रहे थे, तो उनके साथ भारत में कार्यरत विदेशी पत्रकार भी जुड़ गये. भाजपा इसे मोदी को बदनाम करने और उन्हें नुकसान पहुंचाने का अभियान बताती है. ऑस्ट्रेलियन ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन के दक्षिण एशिया ब्यूरो की प्रमुख अवनी डियास ने यह दावा करते हुए भारत छोड़ दिया कि उन्हें वीजा नहीं दिया गया, जिससे उन्हें चुनाव कवर करने का मौका नहीं मिला.

सरकार ने उनके दावों को खारिज कर दिया. फिर भी 30 विदेशी पत्रकारों ने एक बयान जारी कर कहा कि भारत में विदेशी पत्रकारों के लिए वीजा और भारत के प्रवासी नागरिकों के लिए पत्रकार परमिट से जुड़ी मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं. फ्रांसीसी पत्रकार वेनेसा डाउनैक ने भी सरकार पर विवादित रिपोर्टिंग के लिए उनका प्रवासी भारतीय कार्ड रद्द करने का आरोप लगाया था.
स्पष्ट रूप से सरकार विदेशी मीडिया की रिपोर्टिंग से असहज है. घरेलू मीडिया की स्थिति बिलकुल अलग है. सरकार का मानना है कि ये रिपोर्ट तथ्यों पर आधारित नहीं हैं और इनमें तोड़-मरोड़कर विचार पेश किये जा रहे हैं, न कि असली खबर. भारतीय चुनाव में पश्चिमी मीडिया की बहुत ज्यादा दिलचस्पी को हमेशा घरेलू मामलों में दखल के रूप में देखा गया है. जब उनके नकारात्मक रिपोर्टों के दबाव में इंदिरा गांधी नहीं आयीं, तो अमेरिकी मीडिया ने उन्हें भी निशाना बनाया था.

जब वाजपेयी सरकार के समय भारत ने परमाणु परीक्षण किया, तो पश्चिमी मीडिया ने भारत को शांति का खलनायक बता दिया था. उसने भारत पर गरीबी उन्मूलन के बजाय परमाणु हथियारों पर खर्च करने का आरोप लगाया. कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो विदेशी पत्रकार रिकॉर्ड जीडीपी वृद्धि के बावजूद भारत के गर्त में जाने की भविष्यवाणी कर रहे हैं. उनकी आलोचनात्मक रिपोर्टिंग का कुछ आधार हो सकता है, पर वही पश्चिमी संस्थान चीन और रूस समेत कई देशों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हो रहे हमलों की अनदेखी कर रहे हैं. एक वरिष्ठ भाजपा नेता का कहना है कि वे पत्रकार पहले निष्कर्ष निकालते हैं और बाद में उसकी पुष्टि के लिए तथ्य खोजते हैं.

अपने पूरे करियर में अमेरिकी मीडिया से नजदीक रहे विदेश मंत्री जयशंकर को भी ऐसी रिपोर्टों में खामियां दिखी हैं. उन्होंने कहा है कि विदेशी मीडिया को लगता है कि हमारे चुनाव में वे भी राजनीतिक खिलाड़ी हैं. उनकी बात में दम है. इधर मीडिया विचारधारात्मक आधार पर पक्ष लेने लगा है. अमेरिका में भी मीडिया ट्रंप के समर्थन और विरोध में विभाजित है. मोदी अपने को पक्षपाती मीडिया का सबसे बड़ा पीड़ित मानते हैं.

उनके समर्थक आरोप लगाते हैं कि एक ‘चायवाला’ के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री बनने को अभिजात्य और अनुदार विदेशी मीडिया पचा नहीं सका है.
पश्चिमी मीडिया पश्चिम में यहूदी समुदाय पर हो रहे तीखे हमलों की अनदेखी करता है, पर भारत से रिपोर्टिंग करते समय मोदी की आलोचना में व्यस्त रहता है. प्रधानमंत्री ध्यान आकर्षित करना पसंद करते हैं, पर अपनी शर्तों पर. इंदिरा गांधी की तरह वे चुनींदा मीडिया को ही प्रश्रय देते हैं.

मीडिया से उनका बैर उनके गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में अनुभव से जन्मा है. पश्चिमी मीडिया ने उन्हें अपमानित करते हुए यह सुनिश्चित किया कि उन्हें अमेरिकी वीजा न मिले. प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने पश्चिमी और घरेलू मीडिया को कुछ दूर रखा है. उन्होंने एक दशक में एक भी संवाददाता सम्मेलन नहीं किया है.

अभी वे लगातार तीसरा जनादेश मांग रहे हैं. हर ताकतवर नेता मीडिया का इस्तेमाल करना चाहता है. गलत खबरों के प्रसार से ऐसे नेताओं को फायदा होता है. यही काम भारत और अन्य देशों में विदेशी मीडिया कर रहा है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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