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न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने की जरूरत

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हमारे देश में 2003 और 2012 के बीच प्रति व्यक्ति आय करीब सात प्रतिशत बढ़ी है, पर बाद में यह वृद्धि धीमी हो गयी.उस दौर में ग्रामीण कमाई में भी बढ़त हो रही थी.

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अजीत रानाडे, सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन

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editor@thebillionpress.org

कुछ दिन पहले अमेरिका में बाइडेन प्रशासन एक बड़ा कोरोना राहत पैकेज लाने में कामयाब रहा है. यह पैकेज 1.9 ट्रिलियन डॉलर का है और इसमें अमेरिकी नागरिकों को 14 सौ डॉलर की वित्तीय सहायता को जारी रखना, राज्यों व स्थानीय निकायों को 350 बिलियन डॉलर देना तथा कोरोना वायरस की जांच और टीकाकरण के लिए 160 बिलियन डॉलर मुहैया कराना शामिल है. लेकिन इस पैकेज के तहत देशभर में न्यूनतम मजदूरी प्रति घंटे 15 डॉलर करने के प्रावधान को समुचित समर्थन नहीं मिल सका.

अभी अमेरिका में न्यूनतम मजदूरी 7.25 डॉलर प्रति घंटा है, जो 2009 में निर्धारित किया गया था. लेकिन संघीय ढांचे के भीतर राज्य अपने यहां इस सीमा को बढ़ा सकते हैं और कुछ राज्यों ने ऐसा किया भी है. उदाहरण के लिए, न्यूयॉर्क, वाशिंग्टन आदि में न्यूनतम वेतन बहुत अधिक है. जो राज्य 2009 की सीमा को मानते हैं, वहां मुद्रास्फीति का हिसाब करने के बाद न्यूनतम वेतन 1970 के दशक के स्तर से भी नीचे है.

निश्चित रूप से इसमें सुधार की जरूरत है, पर रिपब्लिकन पार्टी और कई डेमोक्रेट सदस्यों का मानना है कि ऐसा करने से नियोक्ताओं पर इस समय बेजा बोझ बढ़ेगा, जब अर्थव्यवस्था गहरे संकट से बाहर आ रही है. ऐसे में अगर 11 डॉलर पर पार्टियां मान जाएं, तो हमें अचरज नहीं होना चाहिए. लेकिन यह भी भविष्य की बात है और शायद इसे मुद्रास्फीति दर के साथ जोड़ दिया जाए.

चूंकि अमेरिका जैसे पूंजीवादी देश में ऐसा हो रहा है, इसलिए यह एक बहुत महत्वपूर्ण घटना है. ब्रिटेन में भी, जहां कारोबार और नियोक्ता समर्थक कंजरवेटिव सरकार दस सालों से सत्ता में है, 25 साल से अधिक आयु के सभी लोगों के लिए न्यूनतम मजदूरी बढ़ाकर प्रति घंटे 8.7 पाउंड कर दिया गया है. इसमें और वृद्धि संभावित है. यह राशि सभी ब्रिटिश कामगारों की मजदूरी के मध्यमान का लगभग दो-तिहाई है.

अमेरिका में भी यदि 15 डॉलर की दर लागू हो जाए, तो वह भी राष्ट्रीय मध्यमान का करीब दो-तिहाई होगा. उल्लेखनीय है कि लगभग चार दशक से औसत अमेरिकी परिवार की कुल आमदनी स्थिर बनी हुई है. ऐसा राष्ट्रीय आय तथा स्टॉक बाजार के बढ़ने के बावजूद हुआ है. इसका अर्थ यह है कि आय और संपत्ति का बड़ा हिस्सा समाज के ऊपरी हिस्से के पास जा रहा है और बड़ी आबादी की आय ठिठकी हुई है.

यह भारत के लिए एक सबक है. आय और जीवन स्तर में बेहतरी के लिए वेतन में बढ़ोतरी जरूरी है. क्या इसमें न्यूनतम मजदूरी में वृद्धि मददगार हो सकती है? क्या इससे नियोक्ताओं में संकुचन होगा और रोजगार घटेगा या फिर इससे कामगारों को मदद मिलेगी? हमारे देश में 2003 और 2012 के बीच प्रति व्यक्ति आय करीब सात प्रतिशत बढ़ी है, पर बाद में यह वृद्धि धीमी हो गयी. उस दौर में ग्रामीण कमाई में भी बढ़त हो रही थी. भारत के श्रम बाजार में 90 फीसदी श्रमशक्ति असंगठित या अपंजीकृत क्षेत्र में है.

इसका मतलब यह है कि वे बिना लिखित कॉन्ट्रैक्ट या बिना किसी स्वास्थ्य व सेवानिवृत्ति के लाभ के काम करते हैं. जहां पंजीकृत (स्थायी) रोजगार अच्छी संख्या में है, उन क्षेत्रों में भी स्थायी और अस्थायी कामगारों का अनुपात संतुलित नहीं है, जो उनके लाभों व वेतन में दिखता भी है. कभी-कभी इससे एक वास्तविक जाति व्यवस्था बन जाती है, जहां एक ही काम के लिए अस्थायी कामगार को स्थायी कामगार से काफी कम मजदूरी मिलती है. ऐसी स्थिति तनाव और अस्थिरता पैदा कर सकती है.

कभी हिंसा भी हो सकती है, जैसा कुछ साल पहले मानेसर में एक वाहन संयंत्र में हुई थी. अनौपचारिक और मौसमी कामगारों की बड़ी तादाद होने से मजदूरी व कमाई से जुड़े आंकड़ों की भी भयावह कमी है. अनुमानों और आंकड़ों से इंगित होता है कि हाल के वर्षों में मजदूरी का स्तर ठिठका हुआ है. महामारी में तो बड़े पैमाने पर नौकरियां भी गयी हैं.

जब अधिशेष श्रम कृषि से बाहर निकलता है, तो वह छुपी बेरोजगारी से आता है, इसलिए उत्पादकता लगभग शून्य है. ऐसे में थोड़ी मजदूरी भी शून्य से अधिक होती है. ऐसे अधिशेष श्रम को खपाने की प्रक्रिया लंबे समय तक चल सकती है, जब तक कि कृषि में कोई अधिशेष श्रम न बचे. चीन में कम और स्थिर मजदूरी पर उच्च वृद्धि और उच्च निर्यात को बरकरार रखने की रणनीति रही थी. कम मजदूरी के कामगार विकसित देशों की अधिक मजदूरी वाली नौकरियों को ले जा रहे थे.

चीन में कम मजदूरी का मतलब था कि वृद्धि का अधिक लाभ पूंजीपतियों के पास जा रहा था, जो वहां अधिकतर राज्य के स्वामित्व वाले उद्यम थे. उस लाभ को लगातार उच्च वृद्धि दर के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा. कुछ हद तक यह भारत में भी कारगर हो सकता है, यदि चीन की तरह औद्योगिक रोजगार में लगातार वृद्धि होती रहे. लेकिन चीन के उलट भारत का सेवा क्षेत्र सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) यानी राष्ट्रीय आय का लगभग 60 फीसदी है, लेकिन इसमें श्रमशक्ति का केवल 25 फीसदी हिस्सा कार्यरत है. इसके अलावा जीडीपी के हिस्से के रूप में भारत का उपभोक्ता खर्च चीन से बहुत अधिक है.

ऐसा नहीं है कि न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने से नौकरियां भारत के बाहर चली जायेंगी. ऐसा इसलिए है कि कम आय के रोजगार अधिकतर सेवा क्षेत्र में हैं, जिसका वाणिज्य अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नहीं हो सकता है. इसके अलावा यदि न्यूनतम मजदूरी में वृद्धि बहुत अधिक नहीं है, तो इससे इन सेवाओं की मांग भी प्रभावित नहीं होगी. आप कृषि मजदूर, सुरक्षा गार्ड या कूरियर वर्कर की मजदूरी को देख सकते हैं. इनकी मजदूरी में बढ़ोतरी उनकी सेवाओं की मांग पर असर नहीं डालेगी और न ही इससे रोजगार घटेगा.

अमेरिका में अध्ययनकर्ताओं ने रेखांकित किया है कि अधिकतर क्षेत्रों में न्यूनतम वेतन में वृद्धि का मतलब बस यह है कि उपभोक्ताओं को अधिक भुगतान करना होता है. जब एक मैक्डोनाल्ड कामगार की मजदूरी 50 फीसदी बढ़ती है, तो बर्गर की कीमत में 25 फीसदी की वृद्धि हो जाती है. यह एक सामाजिक रस्साकशी है. यह उपभोक्ता से लेकर कामगार को मजदूरी देने का एक तरीका है, जिसका असर कोष पर नहीं होता.

यह किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने जैसा है, ताकि शहरी उपभोक्ता खाद्य पदार्थ के लिए कुछ अधिक दाम दे और किसान की आय कुछ बढ़ जाए. इससे खाद्य नीति के बारे में शहरी पूर्वाग्रह दूर होता है. इसी तरह, न्यूनतम मजदूरी में वृद्धि मजदूरी नीति के नियोक्ता के पक्ष में पूर्वाग्रह को दूर करेगा. प्रतिदिन 176 रुपये की मौजूदा राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी में निश्चित रूप से बढ़ोतरी होनी चाहिए. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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