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शीर्ष संस्थानों में मुसलमान

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देश के चोटी की संस्थाओं में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व न के बराबर है. केंद्र सरकार को समस्याओं के निवारण के लिए मैदानी सतह पर काम करना चाहिए.

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रशीद किदवई, विजिटिंग फेलो, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन

rasheedkidwai@gmail.com

देश के चोटी की संस्थाओं में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व न के बराबर है. केंद्र सरकार को समस्याओं के निवारण के लिए मैदानी सतह पर काम करना चाहिए.

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में मुसलमानों की आबादी 172 मिलियन यानी 17.20 करोड़ (2011 की जनगणना के अनुसार) से ज्यादा है. यह आबादी अब संभवत: 20 करोड़ के आसपास पहुंच गयी होगी. इस तरह भारत में मुस्लिम आबादी का अनुपात 15 प्रतिशत से ज्यादा होता है. मुसलमानों की इतनी आबादी के साथ भारत दुनिया का दूसरा सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाला देश है. पहले पायदान पर इंडोनेशिया आता है, जहां दुनिया के सबसे ज्यादा मुस्लिम बसते हैं. हममें से बहुत से लोगों ने सच्चर कमेटी रिपोर्ट व उसकी अनुशंसाओं के बारे में पढ़ा या सुना होगा.

इस रिपोर्ट में बहुत मेहनत से मुसलमानों के बारे में प्रामाणिक आंकड़े जमा किये गये हैं और उनके आधार पर विभिन्न निष्कर्ष निकाले गये हैं. अब रजत दत्ता ने मुसलमानों को लेकर सोशल मीडिया मंच ट्विटर पर कुछ तथ्य प्रस्तुत किये हैं. रजत दत्ता आर्ट्स, लॉ व मैनेजमेंट के विशेषज्ञ माने जाते हैं और बुद्धिजीवी वर्ग में उनकी बातों को गंभीरता से लिया जाता है. यह आंकड़े भारतीय मुसलमानों की एक ऐसी तस्वीर पेश करते हैं, जो आंखें खोलनेवाले और केंद्र में सत्तारूढ़ सरकार का ध्यान खींचनेवाले हो सकते हैं. खास तौर से केंद्र सरकार में शामिल उन मंत्रियों के लिए ये तथ्य एक चौंकानेेवाले भी हो सकते हैं, जो यदा-कदा केंद्र सरकार द्वारा मुसलमानों के लिए कई काम किये जाने की चर्चा करते रहते हैं. रजत दत्ता का मानना है कि केंद्र सरकार को सच्चर समिति की अनुशंसाओं को एक बार नये सिरे से देखने का प्रयास करना चाहिए और मुसलमानों से जुड़ी समस्याओं के निवारण के लिए मैदानी सतह पर काम करना चाहिए.

दत्ता ने देश के चोटी के संस्थानों या महत्वपूर्ण क्षेत्रों में मुसलमानों की उपस्थिति तथा उनके प्रतिनिधित्व से संबंधित आंकड़े प्रस्तुत किये हैं. उन तथ्यों से इन क्षेत्रों में मुसलमानों की अति दयनीय स्थिति का पता चल रहा है, जो निश्चित ही सरकार के वादे और दावे की हकीकत दर्शा रहे हैं. दत्ता द्वारा प्रस्तुत तथ्यों के मुताबिक, देश के शीर्षस्थ वित्तीय संस्थाओं के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व ही नहीं है. स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के 12 निदेशकों में शून्य, एचडीएफसी के 10 में शून्य, जीवन बीमा निगम (एलआइसी) के 12 में शून्य, शेयर बाजार की नियामक संस्था सेबी के नौ में शून्य, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के 14 में शून्य, नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) के नौ में शून्य, बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) के आठ में शून्य, पंजाब नेशनल बैंक के नौ में शून्य, आइसीआइसीआइ बैंक के 12 में शून्य की संख्या में मुसलमान हैं. तकनीकी शिक्षण संस्थान आइआइटी मुंबई के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स की संख्या 10 है, उसमें एक भी मुसलमान नहीं है, आइआइटी दिल्ली के भी 10 गवर्नरों में भी कोई मुस्लिम नहीं है.

मद्रास आइआइटी के तो 15 गवर्नर हैं, लेकिन वहां भी मुस्लिम प्रतिनिधित्व शून्य ही है. राष्ट्रीय स्तर के विधि शिक्षण संस्थान एनएलएसआइयू की एक्जीक्यूटिव काउंसिल के 22 सदस्यों में एक मुस्लिम है, जो कि सुप्रीम कोर्ट जज की देन हैं. एनएएलएसएआर की एक्जीक्यूटिव काउंसिल के 11 सदस्यों में दो मुसलमान हैं (एक वाइस चांसलर और एक सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश). एनयूजेएस में 18 में कोई मुसलमान नहीं है. दीगर प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थानों में प्रतिष्ठित कॉलेज श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में 15, सेंट स्टीफेंस में 16 और मिरांडा हाउस के 13 में मुसलमानों की संख्या शून्य है. कॉमर्स व अकाउंटेंसी से संबंधित संस्थान आइसीएआइ की काउंसिल में कुल 40 सदस्य हैं. इनमें हर धर्म से 10 सदस्य लिये गये हैं.

मगर आश्चर्यजनक रूप से यहां भी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व शून्य ही मिलता है. यही स्थिति आइसीएआइ के बोर्ड ऑफ स्टडीज में देखने को मिलती है. इस बोर्ड में 32 सदस्य हैं और मुसलमानों की उपस्थिति वही शून्य. देश की प्रतिष्ठित व इन दिनों खासी विवादित जवाहर नेहरू यूनिवर्सिटी यानी जेएनयू की एक्जीक्यूटिव काउंसिल के कुल 23 सदस्य हैं. इनमें दो मुस्लिम शामिल हैं. आइआइएसी बेंगलुरु के 19 सदस्यों में कोई मुसलमान नहीं है. आइएसआइ कोलकाता के 34 सदस्यों में एक मुस्लिम है, आइएएस कोटे से नामांकित.

उच्च शैक्षणिक संस्थानों से हट कर जरा कॉर्पोरेट जगत की बात करें कि इस बाबत उनका रुख कैसा है. इनमें से कुछ अमेरिकी बहुराष्ट्रीय संस्थानों की सहयोगी भारतीय संस्थाएं हैं- एचयूएल में 10 में शून्य, पीएंडजी 12 में शून्य, आइटीसी में 14 में शून्य, नेस्ले आठ में शून्य, पेप्सी इंडिया 10 में शून्य, कोलगेट पामोलिव आठ के मुकाबले शून्य तथा मेरिको 10 में शून्य मुसलमान हैं. उद्योगपति घरानों द्वारा चलाये जा रहे बिजनेस ग्रुप्स की स्थिति भी ऐसी ही है. आंकड़े देखें- टाटा घराना के आठ में से शून्य मुसलमान, आदित्य बिरला ग्रुप के नौ में से शून्य, महिंद्रा के 14 में शून्य, रिलायंस के 14 में एक मुसलमान, आरपीजी के सात में शून्य, सीके बिरला के आठ में शून्य, अडानी पावर के छह में शून्य और अडानी पोर्ट के नौ में शून्य मुसलमान हैं. लगे हाथ भारत में मुसलमानों द्वारा चलाये जा रहे उद्योगों पर भी एक नजर डाल लें. विप्रो में नौ में से तीन, सिप्ला 10 में से चार और वोक्हार्ट में 11 में से चार मुसलमान हैं.

इस सूची को अगर हम लिंग व जाति के आधार पर देखें, तो इन बोर्डों की स्थिति उस स्तर पर भी बहुत दयनीय है. महिलाओं और विभिन्न वंचित जातियों का प्रतिनिधित्व भी बहुत ही कम है. हालांकि, धर्म के मुकाबले जाति का अंदाजा लगा पाना बहुत दुष्कर है, अलबत्ता लिंग की स्थिति स्पष्ट देखी जा सकती है. केंद्र सरकार की मुस्लिम महिलाओं से सहानुभूति के दावों के बावजूद इन बोर्ड के सदस्यों में मुस्लिम महिलाओं का दूर-दूर तक अता-पता नहीं मिलता. इस सूची को राजनीति, शिक्षण संस्थानों, न्यायपालिका व सिविल सर्विसेज संस्थाओं तक बढ़ाया जाये, तो निश्चित ही वहां भी मुसलमानों की यही बदहाल स्थिति सामने आयेगी. इस असमानता, असंतुलन और अनुपस्थिति के बारे में सरकार को गंभीरता के साथ सोचने की जरूरत है. हमारे देश के इन चोटी के संस्थानों में देश के लगभग 15 प्रतिशत मुस्लिम अल्पसंख्यकों की उपस्थिति का नगण्य होना क्या कोई विशेष संदेश देता है?

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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