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चुनौती बन गये हैं बैंकों के फंसे कर्ज

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आरबीआइ द्वारा दरों में कटौती के बावजूद बैंक अच्छे कर्जदारों को कम ब्याज लागत देने में असमर्थ हैं, क्योंकि एनपीए का बोझ बढ़ रहा है.

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अजीत रानाडे, अर्थशास्त्री एवं सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टिट्यूशन

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editor@thebillionpress.org

इस वित्त वर्ष के शुरुआती तीन महीनों में अर्थव्यवस्था लगभग एक चौथाई सिकुड़ गयी. मुख्य वजह मार्च में शुरू किया गया सख्त लॉकडाउन रहा. एक महीने तक लगभग तीन चौथाई अर्थव्यवस्था ठप रही. इसके बाद मामूली छूट के साथ लॉकडाउन को जारी रखा गया. इस तिमाही में अर्थव्यवस्था को तिहरा झटका लगा- मांग, आपूर्ति और वित्तीय तंत्र ध्वस्त हो गया. अप्रैल में बेरोजगारी 30 प्रतिशत तक पहुंच गयी- करीब 12.2 करोड़ लोग रोजगार से हाथ धो बैठे. शहरों में औसतन 40 प्रतिशत कामगार प्रवासी हैं, उनके सामने आजीविका का संकट आ खड़ा हुआ. रोजगार और आमदनी छिनने से कई शहरी परिवारों के सामने खाने-पीने का संकट उत्पन्न हो गया. इससे राज्य सरकारों को आपात कदम उठाने पड़े. खाद्य सुरक्षा के लिए केंद्र सरकार ने राहत पैकेज की शुरुआत की और राशन को दोगुना करते हुए उसे नवंबर तक बढ़ा दिया.

मई में केंद्र सरकार ने तरलता समर्थन के लिए 20 लाख करोड़ के बड़े पैकेज की घोषणा की. इसमें सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम, तीन लाख करोड़ तक के ऋण के पात्र हैं. उक्त राशि में से लगभग आधी राशि स्वीकृति की गयी और ऋण वितरण किया जा रहा है. आश्चर्य नहीं कि ऋण के लिए मांग ठप है, क्योंकि पहले से ही छोटे उद्यम मांग की कमी से जूझ रहे हैं और वे कर्ज के अतिरिक्त बोझ को उठाने समर्थ नहीं हैं. लेकिन, जिन छोटे उद्यमों का नकदी प्रबंधन असंतुलित है यानी उनके पास लंबित बीजक (इनवायस) हैं, जो उनके ग्राहकों द्वारा भुगतान नहीं किये गये हैं, वे संकट से निपटने के लिए ऋण सहायता लेने के इच्छुक हैं. ऐसे छोटे बिजनेस अतरलता की समस्या से जूझ रहे हैं, न कि दिवालियापन से.

अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में लगभग यही हालात हैं. भारतीय रिजर्व बैंक ने लगभग आठ लाख करोड़ रुपये की तरलता जारी की है. इसमें ब्याज दरों में कटौती, बैंकों से सरकारी बॉन्ड की खरीद (ओपेन मार्केट ऑपरेशन) और विदेशी मुद्रा खरीद तथा नकदी जारी करना आदि शामिल है. आरबीआइ ने वाणिज्यिक बैंकों के साथ-साथ गैर-बैंक वित्तीय कंपनियों को कम-लागत लंबी-अवधि के फंड दिये हैं. इसे दीर्घकालिक रेपो ऑपरेशन कहा जाता है.

इसमें ज्यादातर तरलता बढ़ाते हैं. नकदी उपलब्धता, ऋण वृद्धि नहीं कर पायी, इसके बजाय शायद शेयर बाजार में चली गयी. विदेशी धन का अंतर्वाह और भारतीय बैंकिंग में अत्यधिक तरलता ही मुख्य कारण हैं कि मार्च में बड़ी गिरावट के बाद स्टॉक मार्केट अब 50 प्रतिशत से अधिक उबर गया है. तिहरे झटकों में से एक प्रकार के झटके से हम उबर चुके हैं यानी कि वित्तीय झटका.

जब जीडीपी सिकुड़ चुकी है और आपूर्ति व मांग की चुनौतियां बरकरार हैं, दूसरी तिमाही में जीडीपी में कुछ सुधार के संकेत दिख सकते हैं. लेकिन, विकास दर अभी भी नकारात्मक बनी रहेगी. सर्वेक्षण के मुताबिक, आधे से अधिक परिवारों की आय बीते वर्ष की तुलना में कम ही रहेगी. व्यवसाय भी कोविड-पूर्व राजस्व पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. ऐसी दशा में, उद्योगों के लिए बैंक ऋण अधिक तनावपूर्ण होगा. जुलाई में जारी आरबीआइ की छमाही वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट में, पहले ही चेतावनी दी जा चुकी है कि गैर-निष्पादित परिसंपत्ति अनुपात मार्च, 2020 से मार्च 2021 के बीच चार प्रतिशत बिंदु की दर से बढ़ सकता है.

यह बैंक ऋण के चार लाख करोड़ को बट्टे-खाते में डालने के कारण है. अगर हालात अत्यधिक गंभीर थे, तो एनपीए अनुुपात दो प्रतिशत अधिक, 14.7 प्रतिशत तक हो सकता है. इसका मतलब हुआ कि अतिरिक्त दो लाख करोड़ बट्टे-खाते में जायेंगे. बैंकों का जोखिम समायोजित पूंजी अनुपात इन बट्टे-खातों के लिए पर्याप्त है. आरबीआइ द्वारा दरों में कटौती के बावजूद बैंक अच्छे कर्जदारों को कम ब्याज लागत देने में असमर्थ हैं, क्योंकि एनपीए का बोझ बढ़ रहा है.

बैंकों की इस समस्या के साथ-साथ ऋण अधिस्थगन (लोन मोरेटोरियम) भी है. महामारी की चुनौतियों से निपटने के लिए आरबीआइ ने मार्च से शुरू हुए ऋणों पर तीन महीने की मोरेटोरियम की घोषणा की थी. इसे और तीन महीनों के लिए अगस्त के अंत तक बढ़ाया गया. अभी मोरेटोरियम का मामला सर्वोच्च न्यायालय में है और अगली सुनवाई की तारीख 28 सितंबर तक बढ़ा दिया गया है.

कर्जदार ब्याज में छूट के साथ भुगतान देरी के कारण लगनेवाले ब्याज पर ब्याज में भी राहत चाहते हैं. यह बैंक जमाकर्ताओं और शेयरधारकों पर अनुचित बोझ प्रतीत होता है. वास्तव में अगर उधारकर्ताओं को राहत मिलनी चाहिए, तो वह राजकोषीय राहत हो, जो कि केंद्र सरकार की निधि से हो. लेकिन, इस प्रकार मोरेटोरियम चुननेवाले उधारकर्ताओं को आंशिक छूट और जो नहीं चुने हैं उन्हें छूट न मिलना, भी समस्यात्मक है.

बड़ा सवाल है कि महामारी के हालात में बैंकों के स्वास्थ्य के लिए क्या किया जाना चाहिए. आरबीआइ द्वारा बनायी गयी केवी कामथ समिति ने अपनी रिपोर्ट सौंपी है, जिसमें 26 सेक्टरों को चिह्नित किया गया है, जिनके लिए ऋणों का पुनर्गठन करना होगा, ताकि उन्हें एनपीए के रूप में न गिना जाये. कमेटी ने सावधानीपूर्वक क्षेत्रों को चिह्नित किया है, जो सीधे तौर पर महामारी से प्रभावित हुए हैं और उन्हें राहत की जरूरत है. लेकिन, जो महामारी के पहले से ही खराब दशा में थे, उनसे अलग तरह से निपटने की जरूरत है. बैंकिंग सेक्टर के ऋण का करीब 72 प्रतिशत कोविड की वजह से प्रभावित हुआ है और उसे कुछ हद तक पुनर्गठन की आवश्यकता है. अनुशंसाएं स्पष्ट मानकों पर आधारित हैं और बैंकों को हल्के, मध्यम और गंभीर रूप से संकट की श्रेणी में विभाजित किया गया है.

अगस्त के आंकड़े दर्शाते हैं कि औद्योगिक ऋण मांग में बढ़त नहीं है. केयर रेटिंग रिपोर्ट के मुताबिक, पहली तिमाही के दौरान 19 प्रमुख औद्योगिक समूहों में से 13 की ग्रोथ निगेटिव रही. अन्य छह की ग्रोथ पॉजिटिव या शून्य रही. लाभदायक नहीं सही, तो व्यवहार्य बने रहने के लिए बैंकों के ऋण मांग में स्वस्थ वृद्धि की आवश्यकता है. फंसे कर्जों के बीच सार्वजनिक क्षेत्र के अधिकांश बैंकों को केंद्र सरकार के खजाने से बड़ी इक्विटी की दरकार है. इस वित्तीय चुनौती से बचने के लिए कोई राह आसान नहीं है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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