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तबला ही नहीं बांसुरी के भी जादूगर थे लच्छू महाराज

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अपने प्रशिक्षण के दौरान ही (सात-आठ वर्ष की उम्र से ही) उन्होंने स्टेज पर प्रस्तुति देनी भी शुरू कर दी थी. बड़े होने पर उन्होंने पिता की इस विरासत को थाती की तरह संभाला

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लच्छू महाराज- भारतीय नृत्य व संगीत के इतिहास में इस नाम की एक नहीं, दो शख्सियतें हुई हैं. इनमें पहली का ताल्लुक कथक के लखनऊ घराने से रहा है और उसे कथक नृत्य व कोरियोग्राफी में उसकी महारत के लिए जाना जाता है. ‘लच्छू महाराज’ (एक सितंबर,1901-19 जुलाई, 1978) के रूप में प्रसिद्धि पाने से पहले इस शख्सियत का नाम पं बैजनाथ प्रसाद मिश्र था. दूसरी का ताल्लुक संगीत के बनारस घराने से है और उसके माता-पिता ने उसे लक्ष्मी नारायण सिंह नाम दिया था. उसका सौभाग्य कि पिता वासुदेव महाराज द्वारा दी गयी तबलावादन की तालीम ने जल्द ही उसके सिर चढ़कर उसे ‘तबले के जादूगर’ और ‘लच्छू महाराज’ के नाम से विश्वभर में विख्यात कर दिया.
आज हम इसी दूसरी शख्सियत को उसकी जयंती पर याद कर रहे हैं, जिसने देश-विदेश के मंचों पर जितनी शोहरत अपने लासानी तबला वादन के लिए पायी, उससे ज्यादा इसके लिए कि अपना ठेठ बनारसी, बेलौस और मनमौजी अंदाज आखिरी सांस तक बनाये रखा. न कभी अपनी खुद्दारी से समझौता किया, न ही सत्ता से और न ही कभी कमर्शियल आर्टिस्ट बनने की सोची. सच कहें, तो लच्छू महाराज के निकट संगीत कोई सामंती शगल या धनोपार्जन का जरिया नहीं, बल्कि साधना का नाम था- जनविरोधी सत्ताओं के विपक्ष का भी. वे फिल्म अभिनेता गोविंदा और दलेर व शमशेर मेंहदी जैसी कई बड़ी हस्तियों के गुरु थे. गोविंदा के तो वे मामा भी हुआ करते थे. मशहूर नृत्यांगना सितारा देवी एक कार्यक्रम के सिलसिले में बनारस आयीं, तो संगत के लिए उनका तबला वादक उनके साथ नहीं था. विकल्प के तौर पर लच्छू महाराज को बुलाया गया, तो सितारा देवी ने हंसते हुए यह कहकर उनका मजाक उड़ाया कि ‘यह बच्चा क्या संगत कर पायेगा.’ परंतु लच्छू महाराज ने तबला बजाना शुरू किया तो तभी रुके, जब सितारा देवी के पैर से खून बहने लगा. लच्छू महाराज की खासियत यह थी कि वे खुद को दोहराये और रुके बिना घंटों तक नये गत, टुकड़े और परन बजा सकते थे. एकल प्रदर्शनों में उनकी प्रतिभा कुछ ज्यादा ही निखर आती थी.
वे तबला ही नहीं, बांसुरी वादन में भी सिद्धहस्त थे. दोनों का उन्हें बचपन से ही अभ्यास कराया गया था. पर प्रसिद्धि उन्हें या तो तबला वादन के लिए मिली या खांटी बनारसी अंदाज के लिए. उनका यह अंदाज इस हद तक मस्तमौला या कि मनमौजी था कि उनका मन नहीं होता तो वे हरगिज तबला नहीं बजाते. कई बार छोटी-छोटी बातों पर उनका मूड ऑफ हो जाता. मूड बनता तो मंच का आमंत्रण स्वीकार कर महफिल पर छा जाते. बनारस के प्रतिष्ठित संकटमोचन संगीत समारोह में हो रहे एक कार्यक्रम में वे तबला बजा रहे थे तो उनके बजाते-बजाते तबला ही फट गया और विषम स्थिति उत्पन्न हो गयी. आयोजकों ने नये तबले की व्यवस्था में देरी कर दी, तो उन्होंने नया तबला आने पर भी उसे बजाने से मना कर दिया. कह दिया कि अब उनकी लय टूट गयी है. यह इस तरह की इकलौती वारदात नहीं थी. उनकी आन पर बन आये, तो वे कतई समझौता नहीं करते थे. चंद्रशेखर सरकार द्वारा उन्हें ‘पद्मश्री’ सम्मान के लिए नामित किया गया, तो उन्होंने उसे लेने से साफ इंकार कर दिया. कह दिया कि उनके जैसे कलाकार को इस तरह के अवॉर्डों की जरूरत नहीं होती, क्योंकि कद्रदानों की दाद ही उन्हें सबसे बड़ा अवॉर्ड लगता है. परंतु उनके इस कुछ ज्यादा ही खुद्दार रवैये ने आगे चलकर एक विडंबना को भी जन्म दिया. जिस ‘अपने बनारस’ का परचम वे अपने हुनर से देश-विदेश में फहराते घूमते और जिसके फक्कड़पन को जी भरकर जीते थे, उसी में उन्हें अक्खड़ व तुनुकमिजाज ठहराने वाले आलोचकों की एक बड़ी जमात खड़ी हो गयी.
अपने प्रशिक्षण के दौरान ही (सात-आठ वर्ष की उम्र से ही) उन्होंने स्टेज पर प्रस्तुति देनी भी शुरू कर दी थी. बड़े होने पर उन्होंने पिता की इस विरासत को थाती की तरह संभाला. फिर भी बेगानी ही हाथ आने से अपने अंतिम दिनों में वे बहुत निराश रहने लगे थे. अपने निधन से कुछ ही समय पहले उन्होंने कहा था कि ‘देखना गुरु, मेरे दुनिया से जाने पर संगीत संसार से एक भी व्यक्ति नहीं आयेगा.’ सत्ताईस जुलाई, 2016 को जब उनका निधन हुआ, तो वास्तव में ऐसा ही हुआ. बनारस स्थित उनके पैतृक आवास से अंतिम यात्रा निकली और महाश्मशान मणिकर्णिका घाट ले जायी गयी, तो अंतिम दर्शन करने व श्रद्धांजलि देने के लिए संगीत जगत की कोई बड़ी हस्ती नहीं पहुंची. कोई नेता, जनप्रतिनिधि और अधिकारी भी नहीं. बनारस अचानक उनके प्रति ऐसी बेगानगी अपना लेगा, ऐसा तो उनके दुश्मनों ने भी नहीं सोचा होगा. अच्छी बात है कि देश और दुनिया ने उन्हें नहीं भुलाया है और उनकी जयंती व पुण्यतिथि पर विभिन्न कार्यक्रमों में उनकी यादें ताजा की जाती रहती हैं.

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