26.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

दिल्ली में 5 फरवरी को मतदान, 8 फरवरी को आएगा रिजल्ट, चुनाव आयोग ने कहा- प्रचार में भाषा का ख्याल रखें

Delhi Assembly Election 2025 Date : दिल्ली में मतदान की तारीखों का ऐलान चुनाव आयोग ने कर दिया है. यहां एक ही चरण में मतदान होंगे.

आसाराम बापू आएंगे जेल से बाहर, नहीं मिल पाएंगे भक्तों से, जानें सुप्रीम कोर्ट ने किस ग्राउंड पर दी जमानत

Asaram Bapu Gets Bail : स्वयंभू संत आसाराम बापू जेल से बाहर आएंगे. सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें जमानत दी है.

Oscars 2025: बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप, लेकिन ऑस्कर में हिट हुई कंगुवा, इन 2 फिल्मों को भी नॉमिनेशन में मिली जगह

Oscar 2025: ऑस्कर में जाना हर फिल्म का सपना होता है. ऐसे में कंगुवा, आदुजीविथम और गर्ल्स विल बी गर्ल्स ने बड़ी उपलब्धि हासिल करते हुए ऑस्कर 2025 के नॉमिनेशन में अपनी जगह बना ली है.
Advertisement

परिवार को बचाने का प्रयास जरूरी

Advertisement

जो आज जवान है, जिम्मेदारी उठाने से मना कर रहा है, कल वह भी बूढ़ा होगा. उसकी जिम्मेदारी भी कोई नहीं उठायेगा. पश्चिम का रहन-सहन हम सीख रहे हैं, बोली-वाणी के पीछे दौड़ रहे हैं

Audio Book

ऑडियो सुनें

गांवों में पहले संयुक्त परिवार का अर्थ होता था- दादा-दादी, माता-पिता, चाचा, ताऊ, बुआ, उनके परिवार, बाल-बच्चे. चचेरे-तयेरे-फुफेरे, ममेरे भाई-बहन आदि को भी कुनबे और परिवार की श्रेणी में गिना जाता था. पड़ोसी गांव के लोग भी एक्सटेंडेड फैमिली में शामिल रहते थे. किस के घर में लड़की की शादी है, यह बात गांव भर को पता होती थी और जिसके घर जो हुआ, उसे भिजवा दिया जाता था ताकि लड़की वाले पर ज्यादा बोझ न पड़े.

- Advertisement -

गांव की लड़की माने सबकी लड़की. ऐसा नहीं है कि तब लड़ाई-झगड़े, दुश्मनियां नहीं होती थीं, लेकिन आमतौर पर जीवनशैली साधारण थी. संयुक्त परिवार के कारण ही कहानियों की शृंखला चलती थी. चौपाल पर किस्से, लोक कथाएं, लोकनाट्य सब इस जीवन के हिस्से थे. दादी-नानी की कहानियां यूं ही प्रचलन में नहीं आयी थीं. बच्चे इनसे कहानी सुनते-सुनते सपनों की दुनिया में चले जाते थे. यह एक मजबूत सिस्टम था. बच्चे अपने बुजुर्गों की देखभाल और आदर करना भी सीखते थे. उन्हें बुढ़ापे की लाठी भी कहा जाता था.

फिर ऐसा दौर आया कि नौकरी के लिए गांवों से शहरों की तरफ पलायन हुआ, परिवार बिखरने लगे. संयुक्त परिवार का मतलब माता-पिता, बच्चे और उनके बच्चे रह गये. एकल परिवार का जोर बढ़ा, जिसमें यह भावना प्रमुख थी कि एकल माने आजादी, कोई दखलंदाजी नहीं. यह बात अलग है कि परिवार के बच्चे घरेलू सहायकों, सहायिकाओं और डे केयर सेंटरों के भरोसे पलने लगे. पति-पत्नी में मनमुटाव और बढ़ते तलाक की खबरें सुर्खियां बनने लगीं.

हालांकि अब भी ऐसी खबरें कभी-कभी आती हैं कि एक परिवार तीन पीढ़ी से इकट्ठा रहता है, या कि सात भाई साथ रहते हैं. लेकिन ये उदाहरण अब आश्चर्य की तरह लगते हैं. छोटे परिवार की अवधारणा ने भी जैसे संयुक्त परिवार के ढांचे पर विराम लगा दिया. इसके अलावा अधिकारवाद का जोर बढ़ा. अधिकार मांगने वाले भूल गये कि कोई भी विचार इकतरफा नहीं होता. अधिकार यदि कर्तव्यों के बिना हैं, तो वे अधूरे हैं.

इक पहिये पर जोर बढ़े, तो गाड़ी उलट जाती है. अधिकार के साथ कर्तव्य की शिक्षा भी जरूरी है. जैसे-जैसे पढ़ाई-लिखाई बढ़ी, भूमंडलीकरण और बढ़ते मीडिया के कारण यूरोप, अमेरिका हमारे घरों में घुस आये. टीवी, मोबाइल, कंप्यूटर के जरिये हम पश्चिमी जीवनशैली से परिचित होने लगे. विज्ञापन उस जीवनशैली को आदर्श की तरह प्रस्तुत करने लगे. इससे यह विचार भी अपनी जगह बनाने लगा कि पश्चिमी देशों में जो कुछ हो रहा है, वही सर्वोत्तम जीवनशैली है.

इस बारे में कुछ पश्चिम की बात भी हो जाए. यह लेखिका अक्सर यूरोप जाती रहती है. एक बार फ्रांस जाना हुआ था. वहां पेरिस स्टेशन के सामने सर्विस अपार्टमेंट लिया गया था. शाकाहारी होने के कारण होटल में खाने के मुकाबले खुद खाना बनाना ज्यादा अच्छा लगा. बच्चे भी साथ थे. एक दिन लिफ्ट से उतर रहे थे. उसमें एक बहुत बुजुर्ग महिला भी थीं. वह इस लेखिका की बहू से हमारे बारे में फ्रेंच में पूछने लगीं.

जब पता चला कि हमारे साथ जो लड़की है, हम उसके सास-ससुर हैं, तो वह बहुत खुश हुईं. कहने लगीं- इनका खूब ध्यान रखना. तुम्हारे इंडिया में फैमिली अभी बची हुई है, यह बहुत अच्छा है. हमारे बच्चे तो कभी-कभार आते हैं, मैं अकेली ही रहती हूं. सारा काम खुद करती हूं. क्या करूं, जब तक जिंदा हूं, करना ही पड़ेगा. एक घटना स्विट्जरलैंड की है. सर्न में काम करने वाली एक वरिष्ठ भारतीय वैज्ञानिक की मां बीमार थीं.

वे छुट्टी लेकर अपनी मां की देखभाल में लगी थीं. अस्पताल की नर्सें और डॉक्टर उन्हें देखकर चकित होते. एक दिन एक महिला डाॅक्टर ने कहा- तुम कितनी अच्छी बेटी हो. यहां तो जितने भी बूढ़े मरीज हैं, उनके बच्चे कभी आते ही नहीं. बस कभी-कभार फोन कर कह देते हैं कि मृत्यु हो जाए, तो बता देना. बहुत से यह भी नहीं करते.

यूरोप या अन्य पश्चिमी देशों में लोग समझते हैं कि भारत में परिवार सुरक्षित है. यहां सब एक-दूसरे की देखभाल करते हैं. लेकिन अकेले रहने की भावना और कौन जिम्मेदारी उठाये की सोच ने हमें भी उसी तरफ धकेल दिया है. तब कई बार ये कहावतें याद आती हैं कि जो आज जवान है, जिम्मेदारी उठाने से मना कर रहा है, कल वह भी बूढ़ा होगा. उसकी जिम्मेदारी भी कोई नहीं उठायेगा. पश्चिम का रहन-सहन हम सीख रहे हैं, बोली-वाणी के पीछे दौड़ रहे हैं, मगर वहां न केवल बुजुर्ग, बल्कि युवा भी कितने अकेले हैं, इससे कोई सबक नहीं लेते.

सच यह है कि जब तक अपने ऊपर आकर नहीं पड़ती, हम कुछ नहीं सीखते. परिवार को जिस तरह से धक्के दिये जा रहे हैं, हर तरह के शोषण का कारण भी बताया जा रहा है, एकल जीवन की अच्छी तस्वीरें पेश की जा रही हैं, ऐसे में परिवार जैसी संस्था को बचाये रखना दुष्कर कार्य है. संयुक्त राष्ट्र द्वारा परिवार दिवस मनाये जाने की घोषणा इसी चिंता को रेखांकित करती है. हमें सोचना होगा, कुछ सबक लेना होगा.

ट्रेंडिंग टॉपिक्स

Advertisement
Advertisement
Advertisement

Word Of The Day

Sample word
Sample pronunciation
Sample definition
ऐप पर पढें