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पठन-पाठन को बढ़ावा देना जरूरी

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पहले हिंदी पट्टी के सभी छोटे-बड़े शहरों में साहित्यिक पत्रिकाएं और किताबें आसानी से उपलब्ध हो जाती थीं. अब हिंदी के जाने-माने लेखकों की किताबें भी आसानी से नहीं मिलतीं.

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यह सच है कि लोगों की पढ़ने-लिखने में दिलचस्पी कम होती जा रही है. पुरानी कहावत है कि किताबें ही आदमी की सच्ची दोस्त होती हैं, लेकिन अब दोस्ती के रिश्ते में कमी आयी है. अब लगभग सभी बड़े शहरों में साहित्य उत्सव आयोजित किये जाते हैं, ताकि लोगों की साहित्य और किताबों के प्रति दिलचस्पी बनायी रखी जा सके, लेकिन ये प्रयास भी बहुत कारगर साबित नहीं हो पा रहे हैं. हाल में रांची में टाटा साहित्योत्सव का आयोजन किया गया.

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इसमें प्रभात खबर भी भागीदार था. हम सभी चाहते हैं कि साहित्य उत्सव के माध्यम से हिंदी पट्टी के क्षेत्र में पठन-पाठन को बढ़ावा मिले. साहित्य में एक जीवन दर्शन होता है और यह सृजन का महत्वपूर्ण हिस्सा है. साहित्य की समाज में महत्वपूर्ण भूमिका है. आजादी की लड़ाई हो या जन आंदोलन, सब में साहित्य ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है. साहित्य की विभिन्न विधाओं ने समाज का मार्गदर्शन किया है, समाज के यथार्थ को प्रस्तुत किया है.

मौजूदा दौर में साहित्य को कई मोर्चों पर संघर्ष करना पड़ रहा है. पहला भाषा के मोर्चे पर, दूसरा संवेदना और विचार के मोर्चे पर. टेक्नोलॉजी के विस्तार के बाद साहित्य के अस्तित्व को लेकर आशंकाएं व्यक्त की गयी थीं, पर हम देखते हैं कि साहित्य न केवल जीवित है, बल्कि फल-फूल रहा है. उसने तकनीक के साथ एक रिश्ता कायम कर लिया है. अब समय आ गया है कि हम आत्मचिंतन करें कि इस रिश्ते को कैसे मजबूत करें.

मशहूर गीतकार, पटकथा लेखक जावेद अख्तर ने इस आयोजन में महत्वपूर्ण बात कही कि युवा वर्ग में प्रतिभा है, ऊर्जा है, जरूरत है बस सही मार्गदर्शन की. उन्होंने युवाओं को सलाह दी कि अच्छा लिखने के लिए सबसे पहले खूब पढ़ें. मेरा मानना है कि नयी तकनीक ने दोतरफा असर डाला है. इसने साहित्य का भला भी किया है और नुकसान भी पहुंचाया है.

लोग व्हाट्सएप, फेसबुक में ही उलझे रहते हैं, उनके पास पढ़ने का समय ही नहीं है. लोग अखबार तक नहीं पढ़ते, केवल शीर्षक देख कर आगे बढ़ जाते हैं, लेकिन दूसरी ओर इंटरनेट ने साहित्य को सर्वसुलभ कराने में मदद की है. किंडल, ई-पत्रिकाओं और ब्लॉग ने इसके प्रचार-प्रसार को बढ़ाया है. तकनीकी कंपनी गूगल ने तो किताबों को लेकर एक बड़ी योजना शुरू की है और इसके तहत विभिन्न देशों की लगभग चार सौ भाषाओं में भारी संख्या में किताबें डिजिटाइज की गयी हैं.

उसका मानना है कि भविष्य में अधिकतर लोग किताबें ऑनलाइन पढ़ना पसंद करेंगे. वे सिर्फ ई-बुक्स ही खरीदेंगे, उन्हें वर्चुअल रैक या यूं कहें कि अपने निजी लाइब्रेरी में रखेंगे और वक्त मिलने पर पढ़ेंगे. ई-कॉमर्स वेबसाइटों ने किताब उपलब्ध कराने में भारी सहायता की है, पर टेक्नोलॉजी ने लिखित शब्द और पाठक के बीच अंतराल को बढ़ाया भी है. इसका सबसे बड़ा नुकसान विचारधारा के मोर्चे पर उठाना पड़ रहा है.

युवा किसी भी विचारधारा के साहित्य को नहीं पढ़ रहे हैं. वे व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं और नारों में ही उलझ कर रह जा रहे हैं. उन्हें विचारों की गहराई का ज्ञान नहीं हो पाता है. इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है. हम सभी जानते है कि एक अच्छा पुस्तकालय कितना उपयोगी होता है. यहीं पर ऐसी दुर्लभ किताबें मिलती हैं, जो आम तौर पर उपलब्ध नहीं होती हैं. अपने आसपास देख लीजिए, अच्छे पुस्तकालय बंद हो रहे हैं. जो चल रहे हैं, उनकी स्थिति दयनीय है.

लोग निजी तौर पर भी किताबें रखते थे और उनमें एक गर्व का भाव होता था कि उनके पास किताबों का बड़ा संग्रह है. हम ऐसी संस्कृति नहीं विकसित कर पाये हैं. पहले हिंदी पट्टी के सभी छोटे-बड़े शहरों में साहित्यिक पत्रिकाएं और किताबें आसानी से उपलब्ध हो जाती थीं. अब हिंदी के जाने-माने लेखकों की किताबें भी आसानी से नहीं मिलतीं. नयी मॉल संस्कृति में हम किताबों के लिए कोई स्थान नहीं निकाल पाये हैं. आप अपने आसपास के मॉल में देखें, किताबों की एक भी दुकान नजर नहीं आयेगी. अच्छी लाइब्रेरी की बात तो छोड़ ही दीजिए. पुस्तकालयों का हाल खस्ता है.

ऐसा नहीं है कि कुछ एक बुद्धिजीवी ही पठन-पाठन को लेकर चिंतित हों. इस दिशा में समाज के विभिन्न तबके के लोगों ने अनूठी पहल की हैं. झारखंड में रहने वाले संजय कच्छप 40 लाइब्रेरी चला रहे हैं. इनमें कुछ डिजिटल लाइब्रेरी भी हैं. वे झारखंड के लाइब्रेरी मैन के रूप में जाने जाते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘मन की बात’ में भी उनके कार्य का उल्लेख किया था. पिछले दिनों सोशल मीडिया के माध्यम से खबर मिली कि तमिलनाडु के एक सैलून में टीवी, पोस्टर और गानों के शोरगुल की बजाय एक छोटी-सी लाइब्रेरी खोल रखी है.

अगर कोई ग्राहक इस सैलून में किताबें पढ़ता है, तो उसे बाल कटवाने पर छूट मिलती है. महाराष्ट्र के सतारा जिले की एक तहसील के 67 वर्षीय जीवन इंगले ने आसपास के क्षेत्रों में लोगों के बीच किताब पढ़ने को प्रेरित करने का अभियान चला रखा है. इसके लिए वे अपनी साइकिल पर एक पुस्तकालय बना कर लोगों को किताबें बांटते हैं. महात्मा गांधी के अनुयायी इंगले ने 12 साल पहले यह पहल शुरू की थी और अब उनका चलता-फिरता पुस्तकालय क्षेत्र में काफी लोकप्रिय है.

समाचार माध्यमों से पता चला कि मध्य प्रदेश के सिंगरौली जिले के एक उच्चतर माध्यमिक स्कूल की एक शिक्षिका उषा दुबे बच्चों की पढ़ाई के लिए अपनी स्कूटी में चलता फिरता पुस्तकालय बना कर बच्चों को शिक्षित करने का अभियान चला रही हैं.

पोकरण का नाम आते ही हमारे दिमाग में भारत के परमाणु बम परीक्षण का दृश्य सामने आ जाता है, लेकिन बहुत कम लोगों को पता होगा कि राजस्थान के जैसलमेर जिले के कस्बे पोकरण में एशिया का सबसे बड़ा पुस्तकालय भी है. वर्ष 1981 में क्षेत्र के प्रसिद्ध संत हरवंश सिंह निर्मल ने मंदिर के साथ-साथ एक विशाल पुस्तकालय की भी नींव रखी थी. यही पुस्तकालय आज एशिया के बड़े पुस्तकालयों में से एक है.

सोशल मीडिया की खबरों के मुताबिक यह पुस्तकालय अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है. कुछ समय पहले प्रधानमंत्री मोदी ने लोगों से अपील की थी कि लोग भेंट में एक-दूसरे को किताबें दें, लेकिन लोगों ने इस बेहतरीन सुझाव का कुछ समय तो अनुसरण किया, उसके बाद इसे भुला दिया. आइए, हम सब उपहारों में किताबों को भी शामिल करने की पहल करें.

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