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लोकतंत्र पर सवाल हैं निष्क्रिय सांसद

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राजनीतिक दल अपने निष्ठावान नेताओं को नजरअंदाज कर ऐसे सेलिब्रिटी को उनकी लोकप्रियता भुनाने के लिए ही टिकट देते हैं.

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राज कुमार सिंह, वरिष्ठ पत्रकार

नेता अक्सर बोलने के लिए जाने जाते हैं. कुछ तो बड़बोलेपन के लिए भी चर्चित रहते हैं. ऐसे में आपको हैरत होगी कि 17वीं लोकसभा में नौ सांसद ऐसे रहे, जिनका मौन पांच साल के कार्यकाल में भी नहीं टूट पाया. इनमें फिल्मी परदे पर दहाड़नेवाले वे हीरो भी शामिल हैं, जिनके डायलॉग सालों बाद भी दोहराये जाते हैं. लोकसभा और उसके सदस्यों के कामकाज के आंकड़ों से यह खुलासा हुआ है कि नौ सांसदों ने सदन में मौन तोड़े बिना ही अपना कार्यकाल पूरा कर लिया. जाहिर है, उनके इस आचरण से उन्हें चुननेवाले लाखों मतदाता खुद को छला हुआ महसूस कर रहे होंगे, जिनकी उम्मीद थी कि उनके सांसद न सिर्फ क्षेत्र से जुड़े सवाल उठायेंगे, बल्कि देश और समाज की दृष्टि से महत्वपूर्ण संसदीय चर्चाओं में भी भाग लेंगे. ध्यान रहे कि सांसदों को कार्यकाल के दौरान भारी- भरकम वेतन-भत्तों के साथ तमाम सुविधाएं देने पर ईमानदार करदाताओं की मेहनत की कमाई में से ही मोटी रकम खर्च होती है. यदि वे पांच साल तक मौन और निष्क्रिय रहे, तब तो सब कुछ व्यर्थ ही गया. ये ‘मौनी’ सांसद किसी दल विशेष के नहीं हैं, पर यह आंकड़ा चौंकानेवाला है कि इनमें सबसे ज्यादा छह भाजपा के हैं, जिसके नेता भाषण कला में माहिर माने जाते हैं.

दूसरे पायदान पर तृणमूल कांग्रेस है, जिसके दो सांसदों ने अपने कार्यकाल में एक भी सवाल नहीं पूछा. नौवें सांसद बसपा के अतुल कुमार सिंह हैं, जो उत्तर प्रदेश के घोसी से चुने गये, पर एक मामले में सजा काटते हुए उनका ज्यादातर समय जेल में ही गुजरा. पांच साल में एक भी सवाल न पूछने वाले भाजपा सांसदों में सबसे दिलचस्प मामला सनी देओल का है. वे पंजाब के गुरदासपुर से सांसद हैं, जहां से कभी एक और फिल्मी हीरो विनोद खन्ना सांसद हुआ करते थे. विनोद खन्ना केंद्र में मंत्री भी रहे. सनी देओल के पिता फिल्म अभिनेता धर्मेंद्र भी 2004 से 2009 तक 16वीं लोकसभा में राजस्थान के बीकानेर से भाजपा सांसद रह चुके हैं. धर्मेंद्र की दूसरी पत्नी फिल्म अभिनेत्री हेमा मालिनी अभी भी उत्तर प्रदेश के मथुरा से भाजपा सांसद हैं. गुरदासपुर में भी सनी देओल के गुमशुदा होने के पोस्टर लगते रहे यानी वे न तो संसद में सक्रिय रहे और न ही अपने मतदाताओं के बीच. अपने दौर के सर्वाधिक लोकप्रिय अभिनेताओं में शुमार धर्मेंद्र जब बीकानेर से सांसद थे, तब निर्वाचन क्षेत्र से उनके गायब रहने की चर्चाएं भी आम रहीं.

सनी देओल की फिल्म ‘दामिनी’ का एक अदालती दृश्य और उसमें यह डायलॉग बड़ा चर्चित हुआ था कि ‘इंसाफ नहीं मिलता, मिलती है तो बस तारीख पर तारीख’. पर गुरदासपुर के मतदाताओं की बेबसी देखिए, उन्हें तो वह तारीख भी नसीब नहीं हुई, जब वह अपने सांसद को लोकसभा में बोलते हुए देख-सुन पाते. पूरा कार्यकाल मौन में गुजार देनेवाले भाजपा के पांच अन्य सांसद रहे- प्रधान बरुआ, बीएन बाचे गौड़ा, अनंत कुमार हेगड़े, रमेश चंदप्पा जिगाजिनागी और श्रीनिवास प्रसाद. बीजापुर के सांसद जिगाजिनागी के बारे में बताया जाता है कि वे खराब सेहत के चलते ज्यादातर समय सदन की कार्यवाही में भाग नहीं ले पाये. किसी अस्वस्थ व्यक्ति के प्रति संवेदनशीलता मानवीयता का तकाजा है, पर क्या ऐसी निष्क्रियता के बावजूद उनका सांसद बने रहना मतदाताओं के प्रति जिम्मेदारी-जवाबदेही का प्रमाण है? ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के जो दो सांसद पूरे कार्यकाल मौन रहे, उनमें एक पुराने फिल्म अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा अपनी डायलॉग डिलीवरी के लिए जाने जाते रहे. एक डायलॉग तो उनकी जैसे पहचान ही बन गया- ‘खामोश!’ विडंबना देखिए कि भाजपा से राजनीति शुरू कर कांग्रेस के रास्ते तृणमूल कांग्रेस में पहुंचे शत्रुघ्न सिन्हा लोकसभा में अपने कार्यकाल के दौरान खामोश ही रहे.

नौवें ‘मौनी’ सांसद रहे दिव्येंदु अधिकारी, जो पश्चिम बंगाल के तामलुक से चुने गये. वैसे यह जानना भी दिलचस्प होगा कि 17वीं लोकसभा में भाजपा के दो सांसद भी ऐसे रहे, जो एक दिन भी सदन की कार्यवाही से अनुपस्थित नहीं रहे. ये हैं- भगीरथ चौधरी और मोहन मांडवी. लोकसभा के कुल 543 सांसदों में से 141 सांसदों की सदन में उपस्थिति 90 प्रतिशत रही, पर 29 सांसद ऐसे भी रहे, जिनकी उपस्थिति 50 प्रतिशत से कम रही. इनमें भाजपा और तृणमूल के आठ-आठ सांसद हैं. इनमें कांग्रेस संसदीय दल की नेता सोनिया गांधी भी हैं, जिनकी सेहत अच्छी नहीं चल रही. ऐसे अन्य सांसदों में चर्चित नाम ज्यादा हैं- मसलन, हेमा मालिनी, सनी देओल, किरण खेर और गायक हंसराज हंस. सनी देओल तो मात्र 17 प्रतिशत उपस्थिति के साथ लोकसभा में मानो ‘गेस्ट एपीयरेंस’ देते नजर आये. वैसे सनी देओल और किरण खेर मनोरंजन के क्षेत्र में खूब सक्रिय नजर आये. जाहिर है, राजनीतिक दल अपने निष्ठावान नेताओं को नजरअंदाज कर ऐसे सेलिब्रिटी को उनकी लोकप्रियता भुनाने के लिए ही टिकट देते हैं. ये सेलिब्रिटी भी अपनी लोकप्रियता भुना कर सत्ता के गलियारों में प्रवेश को लालायित रहते हैं, पर इससे राजनीति और लोकतंत्र को क्या हासिल होता है, इस पर मतदाताओं को अवश्य चिंतन-मनन करना चाहिए. संसदीय लोकतंत्र को इस तरह मखौल बनाना और बनते देखना दुर्भाग्यपूर्ण है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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