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जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के निहितार्थ

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जलवायु प्रभावों से होने वाले नुकसान की भरपाई के मुद्दे पर सदस्य देश एकमत देखे. क्षतिपूर्ति के लिए एक नये कोष हेतु नयी वित्तीय व्यवस्था बनाने के लिए तीन अफ्रीकी, दस विकसित व तेरह विकासशील देशों की एक कमेटी बनाने पर सहमति हुई

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मिस्र में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन कार्बन उत्सर्जन बढ़ने की रफ्तार को बेहद दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए इस घोषणा के साथ समाप्त हो गया कि अब जीवाश्म ईंधन से वैश्विक कार्बन उत्सर्जन पूर्व की तुलना में एक फीसदी बढ़ने का अनुमान है. यह खतरे की घंटी है. इसे रोकना ही एकमात्र विकल्प है. वर्ष 2015 के पेरिस जलवायु परिवर्तन सम्मेलन ने पृथ्वी के लिए सबसे गंभीर विनाशकारी परिणामों से बचने के लिए उत्सर्जन की एक सीमा निर्धारित की थी.

बीते दशक में कार्बन उत्सर्जन कम करने के प्रयास उस सीमा तक नहीं हुए, जिसकी अपेक्षा की गयी थी. चिंता इस बात की है कि यदि कार्बन उत्सर्जन वृद्धि की यही रफ्तार रही, तो आने वाले नौ वर्षों में तापमान औद्योगिक पूर्व तापमान से 1.5 डिग्री सेल्सियस से ऊपर पहुंच जायेगा, जो मानवता के लिए बड़ी चुनौती होगी. इसका मूल कारण कोयले की खपत में बेतहाशा बढ़ोतरी है. यह बढ़त तेल की खपत से भी हुई है.

भारत भी पीछे नहीं है, जहां 2021 की तुलना में कोयले और तेल की खपत में अनुमानतः छह फीसदी की वृद्धि हुई है, जबकि सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जन देश चीन में बीते एक साल में उत्सर्जन दर एक फीसदी घटी है. वहां कोयले की खपत भी नहीं बढ़ी है. वैज्ञानिक अनुमान लगा रहे थे कि कोयले के जलने से होने वाले उत्सर्जन में यदि एक फीसदी की भी बढ़त होती है, तो यह एक नया कीर्तिमान होगा.

दुनिया अभी भी 80 फीसदी ऊर्जा के लिए जीवाश्म ईंधन पर ही निर्भर है. ऐसी दशा में उत्सर्जन तो बढ़ेगा ही. इसके कम होने की उम्मीद बेमानी है. अक्षय ऊर्जा और स्वच्छ ऊर्जा अभी भी शुरूआती चरण में ही हैं. इस अहम तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि जिन देशों की आबादी कम है, वहां तो अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा दिया जा सकता है, लेकिन अधिक आबादी के देशों में अक्षय ऊर्जा का सपना अभी दूर की कौड़ी है. भारत भी सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा के मामले में बहुत पीछे है.

इस दिशा में यूरोप की प्रशंसा की जानी चाहिए, जिसने अक्षय ऊर्जा के महत्व को समय रहते समझ लिया. गौरतलब बात यह भी है कि 2000 के दशक के शुरू में यूरोप में कार्बन उत्सर्जन में वृद्धि की दर तीन फीसदी सालाना थी, लेकिन इस साल की एक फीसदी की अनुमानित बढ़ोतरी अपेक्षाकृत कम ही है. यह बढ़ोतरी उस दौरान हुई है, जब यूक्रेन युद्ध से उपजे ऊर्जा संकट से समूची दुनिया जूझ रही है और महामारी के भयावह दौर से उबरने का दुनिया भरसक प्रयास कर रही है.

विडंबना यह है कि संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस का यह भरसक प्रयास रहा कि इस जलवायु सम्मेलन में मौजूदा समस्याओं के स्तर के अनुरूप, यथा यूक्रेन युद्ध से उपजे ऊर्जा संकट और जलवायु समाधानों पर, एकमुश्त सहमति बने ताकि इस संकट के समाधान की दिशा में कारगर प्रयास हो सकें. पिछले सम्मेलन में 193 देशों ने राष्ट्रीय कार्यवाही योजनाओं को अधिक महत्वपूर्ण बनाने, शून्य उत्सर्जन, वन संरक्षण और जलवायु वित्त पोषण सहित अनेक संकल्प लिये थे, लेकिन यह दुखद है कि अभी तक केवल 23 देशों ने ही संयुक्त राष्ट्र को अपनी योजनाएं भेजी हैं.

ऐसी स्थिति में धरातल पर पूर्ण, समावेशी, सामयिक व विस्तृत कार्यवाही की उम्मीद बेमानी है. अनुकूलन वित्त पोषण के लिए विकसित देशों द्वारा निम्न आय वाले देशों के लिए हर वर्ष 100 अरब डॉलर की राशि मुहैया कराने का सवाल भी अनसुलझा रहा है. सबसे अहम सवाल तो यह है कि मुख्य उत्सर्जक देश खड़े हों और कहें कि हमें कुछ करना होगा, हमें इन निर्बल देशों के लिये अपना योगदान देना होगा, तभी कुछ बात बनेगी.

संपन्न देशों का पर्यावरण सुधार के लिए विकासशील देशों को धन मुहैया कराने के सवाल पर पूर्व में किये वादे पर मौन समस्या की विकरालता की ओर ही संकेत कर रहा है. ब्राजील, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका का यह आरोप कि इस तरह के हालात में नतीजा कुछ नहीं निकलेगा और कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य सपना ही रहेगा, कटु सत्य प्रतीत होता है.

लेकिन 150 से अधिक देश मीथेन उत्सर्जन कम करने पर सहमत हुए हैं, यह एक अच्छा लक्षण है. असलियत में इस सम्मेलन का जोर बिजली उत्पादन बंद करने के उपाय पर ही ज्यादा रहा है. निष्कर्ष यह कि सम्मेलन 2021 के ग्लासगो प्रस्ताव पर मुहर लगाने के अलावा कुछ अलग कर पाने में नाकाम रहा है. यह जरूर हुआ कि जलवायु प्रभावों से होने वाले नुकसान की भरपाई के मुद्दे पर सदस्य देश एकमत देखे. क्षतिपूर्ति के लिए एक नये कोष हेतु नयी वित्तीय व्यवस्था बनाने के लिए तीन अफ्रीकी, दस विकसित व तेरह विकासशील देशों की एक कमेटी बनाने पर सहमति हुई,

जो जलवायु कोष का संचालन व नियम निर्माण करेगी. पर आर्थिक सहायता और बढ़ रहे तापमान की जिम्मेदारी का सवाल अनसुलझा ही रहा. हमारे पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव की मानें, तो जलवायु परिवर्तन को लेकर कार्यवाही किसी भी क्षेत्र, ईंधन या गैस स्रोत तक सीमित नहीं की जा सकती. जरूरत यह है कि सभी देश पेरिस समझौते की मूल भावना के तहत कार्य करें.

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