अंतरराष्ट्रीय बाजार में जनवरी के मुकाबले इस महीने कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी हुई है. जनवरी मध्य में कच्चे तेल की कीमत 56 डॉलर प्रति बैरल थी, अब वह 63 डॉलर प्रति बैरल पार कर चुकी है. मौजूदा हालातों को देखते हुए कहा जा सकता है कि कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट के कोई आसार नहीं दिख रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतों में चढ़ाव-उतार की कई वजहें होती हैं. पिछले साल हमने देखा लॉकडाउन के कारण आये ठहराव से तेल कीमतें किस तरह से नकारात्मक हो गयी थीं. हालांकि, आर्थिक गतिविधियों में अब तेजी आ रही है और यह बदलाव पूरी दुनिया में देखा जा रहा है. इससे स्पष्ट है कि मांग बढ़ने के साथ कीमतों में कमी की गुंजाइश नहीं होगी. हम उम्मीद कर सकते हैं कि कीमतों में बढ़ोतरी बहुत ज्यादा न हो. बीते दिनों सऊदी अरब और रूस के बीच ओपेक में गतिरोध चल रहा था. लेकिन, लॉकडाउन के बाद दोनों ने मसले को सुलझा लिया है.
अभी हमारे यहां डीजल और पेट्रोल की कीमतों में इजाफा हो रहा है. कुछ शहरों में पेट्रोल 100 रुपये प्रति लीटर को भी पार कर गया है. मेट्रो शहरों में 100 रुपये अभी नहीं हुआ है, लेकिन राजस्थान और मध्य प्रदेश के कुछ शहरों में कीमतें रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गयी हैं. कीमतों के बढ़ने का बड़ा कारण इस पर लगनेवाला टैक्स है. अगर दिल्ली का उदाहरण लें, तो एक लीटर पेट्रोल की कीमत 89.29 रुपये है, जिसमें तेल का वास्तविक मूल्य 31.82 रुपये है, इसमें केंद्रीय उत्पाद शुल्क 32.90 रुपये, वैट और डीलर का मुनाफा मिलाकर 20.61 रुपये शामिल है. डीलर का मुनाफा मात्र तीन से चार रुपये ही होता है. लगभग हर जगह की कहानी यही है. केंद्र सरकार और राज्य सरकार के टैक्स लगाने के बाद पेट्रोल और डीजल की कीमतों में काफी इजाफा हो जाता है. अभी मुंबई में तेल की कीमतें काफी ज्यादा हो चुकी हैं. केंद्र सरकार का शुद्ध कर राजस्व देखें, तो पिछले वर्ष पेट्रोलियम से सरकार ने 21 प्रतिशत प्राप्त किया था. अभी बजट में जिस तरह से घोषणाएं की गयी हैं, उसके लिए पैसे कैसे और कहां से खर्च किये जायेंगे, इसे लेकर भी विशेषज्ञों के मन में कई तरह के सवाल हैं. जारी वित्त वर्ष के अप्रैल-सितंबर की अवधि को देखें, तो कर राजस्व का हिस्सा बढ़कर 33 प्रतिशत हो गया है, यानी सरकार के लिए आमदनी का यह अहम जरिया है. पेट्रोलियम से सरकार बड़ा कर राजस्व प्राप्त करती है. हमारे यहां करों का ढांचा बहुत पुराना है. इस मामले में एक प्रगतिशील व्यवस्था होनी चाहिए, यानी जिसकी जितनी आमदनी उस पर उसी अनुपात में टैक्स होना चाहिए. जिसकी आमदनी कम है, उसे टैक्स में राहत मिलनी चाहिए. अप्रत्यक्ष कर की समस्या है कि यह अमीर-गरीब दोनों पर एक समान होता है.
टैक्स की वजह से पेट्रोलियम की बढ़ती कीमतें कोई नया मामला नहीं है. यह व्यवस्था यूपीए सरकार से समय से ही चली आ रही है. लेकिन, अभी टैक्स का भार अपेक्षाकृत अधिक है. साल 2014 से अभी तक के एनडीए के कार्यकाल को देखा जाये, तेल की वास्तविक कीमत पर केंद्र और राज्यों का कर अधिक रहा है. करों में जहां तक कटौती का सवाल है, तो केंद्र और राज्यों के बीच खींचतान की स्थिति है. हालांकि, दो साल पहले कुछ राज्य सरकारों ने टैक्स में कटौती की थी. अभी केंद्र सरकार की तरफ से बयान भी आ गया है कि अगर टैक्स में कटौती हो भी गयी है, तो इस बात की गारंटी कहां है कि राज्य करों को नहीं बढ़ायेंगे. कुल मिलाकर यह दुर्भाग्यपूर्ण मामला है. बढ़ती कीमतों का असर कम आय वर्ग के लोगों पर अधिक हो रहा है. डीजल और कुकिंग गैस के दाम बढ़ने से आम आदमी का बजट बिगड़ना स्वाभाविक है. इससे होनेवाली महंगाई कम आमदनी में परिवार खर्च चलानेवालों की मुसीबतें बढ़ायेगी. तेल का इस्तेमाल केवल वाहनों के लिए ही नहीं होता है, बल्कि कृषि कार्यों, माल ढुलाई आदि के लिए भी होता है. रेल और सड़क परिवहन की लागत बढ़ेगी. एक जगह से दूसरी जगह तक सामान भेजने का खर्च बढ़ेगा, जिससे सामानों की कीमतें बढ़ेंगी. सरकार के पास भी अभी आमदनी के विकल्प सीमित हैं, लिहाजा तेल कीमतों में अधिक राहत दे पाने की स्थिति में सरकार नहीं है. अनाज, सब्जियों, फलों और अन्य आवश्यक वस्तुओं के दाम बढ़ने पर लोगों का रोजाना का खर्च बढ़ जायेगा. किसान पहले से खेती-किसानी की बढ़ती लागत से परेशान हैं, डीजल की कीमत बढ़ने से उनका खर्च और बढ़ेगा. किसानों को अपनी फसल की वाजिब कीमत नहीं मिलती है, इससे उनकी आमदनी प्रभावित होगी.
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महंगे डीजल-पेट्रोल से बिगड़ेगा आमजन का बजट
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अंतरराष्ट्रीय बाजार में जनवरी के मुकाबले इस महीने कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी हुई है
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