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चित्रकला को जीवनसंध्या की प्रेयसी मानते थे गुरुदेव

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जीवन के अंतिम दस वर्ष की अवधि में चित्रकला को जिस गंभीरता से उन्होंने लिया, उसे उनके रचना कर्म का महज एक 'विस्तार' नहीं माना जा सकता है, बल्कि ऐसा अनुभव होता है कि चित्रकला को उन्होंने अपने अन्य रचना कर्म का 'विकल्प' माना था.

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अशोक भौमिक
चित्रकार

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भारतीय साहित्य में रबींद्रनाथ ठाकुर की ख्याति विश्व कवि होने के साथ-साथ एक समर्थ कथाकार, नाटककार और चिंतक के रूप में भी है. उनकी समस्त रचनाओं में अपने समय की गहरी समझ दिखती है. उनकी बहुसंख्य रचनाएं, जो भारतीय महाकाव्यों और मिथकों पर आधारित हैं, वहां भी हम उनकी आधुनिक और समकालीन सोच को साफ महसूस कर पाते हैं. उनका युग बंगाल में औपनिवेशिक और सामंती प्रवृत्तियों का एक अंधकार काल था. अंग्रेजों और कुछ क्षेत्रों में फ्रांसीसियों का उपनिवेश बनने के ऐतिहासिक कारणों से बंगाल में एक महानगर केंद्रित सभ्यता का विकास हो चुका था, जो कोलकाता में रहने वाले धनी वर्ग तक ही सीमित थी. दूसरी तरफ बंगाल का विशाल ग्रामीण हिस्सा था, जिसे अशिक्षित और कुसंस्कारों से ग्रस्त मान लेना शहरी ‘बाबुओं’ के लिए आत्म तुष्टि का कारण था. इस ग्रामीण बांग्ला को रबींद्रनाथ ठाकुर ने नजदीक से जानने की कोशिश की थी.

अनेक रचनाओं, जैसे- घोरे बाईरे, नोष्टो नीड़, चार अध्याय आदि में जहां वे औपनिवेशिक शहर कोलकाता के अभिजात वर्ग के आंतरिक द्वंद्व का चित्रण करते हैं, वहीं चित्रांगदा, पुजारिनी, श्यामा, कर्ण-कुंती संवाद, वाल्मीकि प्रतिभा आदि में वे पौराणिक कथाओं तक जाते हैं. अपनी रचनाओं में रबींद्रनाथ ठाकुर ग्रामीण, कस्बाई, महानगरीय जीवन और संस्कृतियों तथा वर्तमान एवं अतीत के बीच सहज आवाजाही करते हैं. पारलौकिक विषयों पर आधारित उनकी गद्य रचनाएं (क्षुधितोपाषान, मोनिहारा आदि) अपने वैविध्य से हमें चकित करती हैं. अचलायतन, रक्तकरबी जैसी अनेक कालजयी रचनाओं के माध्यम से वे आने वाले वक्त के जन को संबोधित करते हुए दिखते हैं. रबींद्रनाथ ठाकुर ने सामंती मूल्यों में फलते-फूलते धार्मिक पाखंड, नियतिवाद और ब्राह्मणवाद के खिलाफ अपनी सार्थक रचनाओं के जरिये जनता में आधुनिक और वैज्ञानिक विचारों को संचारित करने का निरंतर प्रयास किया. देशप्रेम का अर्थ उनके लिए यही था.

जहां अपने आरंभिक वर्षों में वे गुरु ग्रंथ साहब और कबीर से प्रभावित हुए, वहीं आगे चलकर मूर्ति पूजा विरोधी ब्रह्म समाज से जुड़ गये थे. इन सबका प्रभाव उनके रचना कर्म में दिखाई देता है. उनका साहित्य उनके मानवतावादी दर्शन पर उनके विश्वास का प्रतिनिधित्व करता है, पर वे पाठकों के ‘मनोरंजन’ को अपने सरोकारों से अलग नहीं करते. पर अपने चित्रों में वे भारतीय चित्रकला के परंपरागत स्वरूप को सीधे चुनौती देते हैं. चित्रकला संबंधी उनके विचार, जो उन्होंने अपने लेखों, पत्रों और व्याख्यानों में व्यक्त किये हैं, हमें चित्रकला के एक सर्वथा नये सत्य से परिचित कराते हैं. रबींद्रनाथ ठाकुर ने जीवन के अंतिम दस-बारह वर्षों में पूरी तन्मयता से चित्र रचना की थी. उन्होंने चित्रकला को ‘शेष बोयेशेर प्रिया’ या ‘जीवन संध्या की प्रेयसी’ माना था. उन्होंने चित्रकला को ‘खेल के बहाने वक्त गुजारने की संगिनी’ माना था.

रबींद्रनाथ ठाकुर लंबे समय तक कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, गीत, नृत्य आदि विधाओं में पूरी ऊर्जा के साथ सक्रिय रहे, किंतु जीवन के अंतिम दस वर्ष की अवधि में चित्रकला को जिस गंभीरता से उन्होंने लिया, उसे उनके रचना कर्म का महज एक ‘विस्तार’ नहीं माना जा सकता है, बल्कि ऐसा अनुभव होता है कि चित्रकला को उन्होंने अपने अन्य रचना कर्म का ‘विकल्प’ माना था. अपने जीवन के अंतिम वर्षों में उन्होंने अपने पत्रों में चित्रकला पर जितना लिखा, उतना पहले कभी नहीं लिखा. अपने पत्रों, लेखों और व्याख्यानों में जब भी उन्होंने चित्रकला पर लिखा या कहा, उनमें वे एक स्वतंत्र और निर्भीक कला चिंतक की भूमिका में कला की कई स्थापित मान्यताओं के खिलाफ एक नयी जमीन तैयार करने का प्रयास करते दिखे. यहां यह भी सच है कि वे इस बात को बखूबी समझते थे कि उनके अपने देशवासी उनकी बातों से आसानी से सहमत नहीं होंगे.

उनके चित्रों को लेकर तत्कालीन भारतीय कला जगत क्या सोच रहा था, यह तो शायद इतिहासकार बता पायेंगे, पर वे स्वयं अपने रचनात्मक जीवन में आये इस नये परिवर्तन के प्रति बेहद सजग थे और खूब समझते थे कि भविष्य उन्हें जब भी याद करेगा, उनके कलाकार की भूमिका को काटकर याद नहीं कर सकेगा. विख्यात फिल्म निर्देशक और कथाकार सत्यजीत राय ने उनक चित्रों पर कहा है, ‘उनके चित्रों और रेखाचित्रों की संख्या दो हजार से कहीं ज्यादा है. चूंकि उन्होंने (चित्र रचना का कार्य) देर से शुरू किया था, यह एक चकित करने वाली उर्वरता है. यहां इसका विशेष उल्लेख जरूरी है कि वे किसी देशी या विदेशी चित्रकार से प्रभावित नहीं थे. उनके चित्र किसी परंपरा से विकसित नहीं हुए. वे निसंदेह मौलिक हैं. कोई उनके चित्रों को पसंद करे या न करे, पर यह तो मानना ही पड़ेगा कि वे अनूठे हैं.’

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