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मानवता के पुंज गुरु नानक देव जी

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हर व्यक्ति जीवन में सुख-शांति की लालसा रखता है, परंतु उसे पाने के लिए उसके कार्य-कलाप विपरीत दिशा में चलते हैं. परिणामत: वह दुख की बेड़ियों में ही जकड़ा रहता है.

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हर व्यक्ति जीवन में सुख-शांति की लालसा रखता है, परंतु उसे पाने के लिए उसके कार्य-कलाप विपरीत दिशा में चलते हैं. परिणामत: वह दुख की बेड़ियों में ही जकड़ा रहता है. गुरुनानक जी का कथन है- ‘हम नहीं चंगे बुरा नहीं कोय, प्रनवत नानक तारे सोय’, अर्थात हमें सतत अंतर-मनन करते हुए अपनी कमजोरियों से मुक्ति पानी चाहिए और दूसरों के गुणों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. उन्होंने कहा है- ‘सच उरे सबको, उपर सच आचार’, अर्थात सत्य सर्वोपरि है, परंतु उससे भी ऊपर सत्याचार है.

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हमारा सारा व्यवहार सत्य के आधार पर होना चाहिए. सत्य से विचलित होकर हम मन की शांति को खो बैठते हैं. आपने हमें समझाया है- ‘मीठत नींवी नानक गुण चंगियाइयां तत’, अर्थात विनम्रता से मिश्रित सद्व्यवहार जीवन जीने का सार तत्व है. मानव मात्र से हमारा व्यवहार ऐसा ही होना चाहिए, जैसा कि हम स्वयं के साथ चाहते हैं. आपके वचन हैं- ‘घाल खाये किछु हंथो दे नानक राह पछाने सोय’, अर्थात हे मानव, कठिन परिश्रम द्वारा सत्य के मार्ग पर चलते हुए धन अर्जित करो और उस अर्जित धन से दीन-हीन की सहायता करना कभी न भूलो.

नारी के प्रति व्यवहार के बारे में आपने कहा- ‘सो क्यों मंदा आखिए जित हमें राजान’, अर्थात कहा भी गया है- ‘यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमंते तत्र देवता:’. गुरुनानक देव जी हमें समझाते हैं- ‘सब में जोत जोत है, सोय तिस के चानन सब में चानन होय’, यानी सभी मानव मात्र में उस परमात्मा की लौ प्रज्वलित है. इसलिए उसे पहचानते हुए किसी को छोटा-बड़ा समझना सर्वथा अनुचित है. तीर्थ जाने वाले को आप सचेत करते हैं- ‘तीरथ नाऊन जाओ तीरथ नाम है / तीरथ शब्द विचार, अंतर ज्ञान है’. सही मायने में तीर्थ तो परमेश्वर (अकालपुरुख) का नाम लेना है. अंतर-मनन करते हुए गुरु के बताये मार्ग पर चलना ही सच्चा स्नान है.

आपने मानव मात्र को सावधान किया- ‘जे रत लगे कपड़े जामा होय पलीत/ जे रत पीवे मानसा तिन क्यों निरमल चित’. जो मनुष्य दूसरों का खून चूस कर बड़ा बन जाता है, उसे भला कैसे मन की शांति मिल सकती है. हमारे मन की आंखें खोलते हुए आपने कहा- ‘सा जात सा पत है जेहे करम कमाए’. मनुष्य की जाति और उसकी प्रतिष्ठा तो उसके कर्मों के आधार पर निश्चित होती है, जन्म के आधार पर नहीं.

आपका कथन है- ‘पाप बुरा पापी कोऊ प्यारा’ यानी पाप से घृणा करनी चाहिए, पापी से नहीं. पापी से घृणा की गयी, तो उसके अच्छा बनने का मार्ग अवरुद्ध हो जायेगा. सच्चे मनुष्य की परिभाषा आपने यूं दी- ‘सच बरत संतोख तीरथ गिआन धियान स्नान / दया देवता खिमा जपमाली ते मानस प्रधान’, अर्थात सत्य के मार्ग पर चलना ही व्रत के समकक्ष है. संतोष धारण करना तीर्थ जाने के समान है. प्रभु का दिल से स्मरण ही सच्चा स्नान है. दूसरों के प्रति दया-भाव देवत्व के समान है और दूसरों को क्षमा-दान देना ही पवित्र सुमरनी है. ऐसे गुण धारण करने वाला ही श्रेष्ठ मनुष्य है.

जपजी साहब में आप जीवन-सार का तत्व प्रदान करते हुए कहते हैं- ‘हुकमें अंदर सबको, बाहर हुकम न कोय / नानक हुकमें जे बुझे त हऊमें कहे न कोय’, अर्थात यह सारा संसार प्रभु के हुक्म के अनुसार ही चल रहा है, जो उस प्रभु के इस आदेश को समझ लेता है, उसका अपना अहं भाव समाप्त हो जाता है. ‘मैं-मैं’ की भावना विलुप्त हो जाती है. वह स्वयं को प्रभु के चरणों में समर्पित कर अपनी सांसारिक चतुराई त्याग देता है.

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