हिंसा एक दिन में दूर नहीं होगी. हमें अगली पीढ़ियों को शिक्षित करना है. गांधीजी ने प्रदर्शित किया था कि क्रमश: हृदय, हाथ और सिर की शिक्षा ही शिक्षा का दर्शन और शिक्षाशास्त्र है. प्रचलित शिक्षा प्रणाली अप्रत्यक्ष रूप से प्रतिस्पर्धा और ‘पहले मैं’ की भावना पैदा करती है.
हर दो अक्तूबर को हम गांधी को याद करते हैं. इससे इंगित होता है कि कम से कम कर्मकांड चल रहा है. आशा करें कि इसकी मदद से किसी दिन अहिंसा का दर्शन मानवता का स्वभाव बन जायेगा. वर्ष 2022 तक यह तर्क दिया जाता था कि युद्ध कम हो गये हैं, लेकिन सशस्त्र संघर्ष बढ़ गये हैं. फिर रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू हुआ. फिलिस्तीन पर इस्राइली हमलों ने वैश्विक स्थिति को और भी बदतर बना दिया है. फिलिस्तीनी लोगों पर मौत और दुख का एक अंतहीन चक्र चल रहा है. युद्धों के दुख के अलावा हिंसा अन्य तरीकों से आती है, जिसे आम तौर पर ‘संघर्ष’ कहा जाता है. ये संघर्ष अनवरत चलते रहते हैं. क्षेत्रीय तनाव, कानून-व्यवस्था में गिरावट, कमजोर संस्थाएं, अवैध आर्थिक लाभ और जलवायु परिवर्तन के कारण संसाधनों का बढ़ता अभाव संघर्ष के प्रमुख कारक बन गये हैं. घातक हथियारों और साइबर हमलों ने चिंताएं बढ़ा दी हैं. अंतरराष्ट्रीय सहयोग मुश्किल में है, जिससे समाधान के लिए वैश्विक क्षमता कम हो रही है.
वैश्विक शांति सूचकांक 2024 के अनुसार, 92 देश संघर्ष में शामिल हैं. पिछले वर्ष ही संघर्षों के कारण लगभग 1,62,000 मौतें हुईं. अमेरिकी सैन्य क्षमता चीन से तीन गुना अधिक है. संघर्षों के कारण 2023 में वैश्विक जीडीपी का 13.5 प्रतिशत हिस्सा (19.1 ट्रिलियन डॉलर) प्रभावित हुआ था. प्रतिस्पर्धी दृष्टिकोण और नीतियां, विशेष रूप से अमेरिका-चीन तनाव को भी संघर्षों को बढ़ावा देने का एक कारक माना जाता है. एक चिंताजनक पहलू यह भी है कि दुनिया के कुछ हिस्सों में अधिक हत्याएं हो रही हैं. लिंग आधारित हमले भी बढ़ रहे हैं. गांधी आज भी विश्व में हो रही इन घटनाओं के मूक साक्षी बने हुए हैं. मानवता आसानी से अज्ञानी हो गयी है और यह भूल गयी है कि हिंसा और संघर्षों का हमारे सोचने, व्यवहार करने और जीने के तरीके से गहरा संबंध है. अज्ञानता और बौद्धिक अहंकार व्यक्तिगत जीवन में विपत्तियां लाते हैं. ईमानदारी और सत्यनिष्ठा दांव पर है. लोभ और भोग के कारण दुर्गुणों ने सद्गुणों का स्थान ले लिया है. सर्वोच्च पदों पर आसीन लोग शायद ही चरित्रवान व्यक्ति होते हैं. यह एक बुनियादी संकट है. हम यह पहचानें कि हमारा चरित्र सामूहिक रूप से हमारे सामूहिक व्यवहार के लिए जिम्मेदार है. न्यूनतम संघर्षों और हिंसा के साथ एक शांतिपूर्ण दुनिया का निर्माण करने के लिए व्यक्तियों को आत्म-नियमन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बरतने के लिए शिक्षित करना होगा.
हिंद स्वराज में गांधी ने 19वीं सदी के प्रसिद्ध जीवविज्ञानी और मानवविज्ञानी थॉमस हेनरी हक्सले को उद्धृत किया है- ‘मुझे लगता है कि उस व्यक्ति ने उदार शिक्षा प्राप्त की है, जिसे युवावस्था में इतना प्रशिक्षित किया गया है कि उसका शरीर उसकी इच्छा का तत्पर सेवक है और वह सभी कार्य आसानी और आनंद के साथ करता है.’ दुर्भाग्य से, दुनियाभर में शिक्षा प्रणाली अगली पीढ़ी को इस भावना के अनुरूप शिक्षित करने में विफल रही है. हिंसा एक दिन में दूर नहीं होगी. हमें अगली पीढ़ियों को शिक्षित करना है. गांधीजी ने प्रदर्शित किया था कि क्रमश: हृदय, हाथ और सिर की शिक्षा ही शिक्षा का दर्शन और शिक्षाशास्त्र है. प्रचलित शिक्षा प्रणाली अप्रत्यक्ष रूप से प्रतिस्पर्धा और ‘पहले मैं’ की भावना पैदा करती है. यह सहयोग, करुणा और प्रेम की भावना को कमजोर करती है. प्रतिस्पर्धा ‘अच्छे जीवन’ के लिए है. एक अच्छे जीवन को शारीरिक आराम और आनंद के रूप में देखा जाता है. यह व्यक्ति को जीवन में खुशियों की ओर ले जाने में सक्षम नहीं है. भौतिक संसाधनों की असीमित मांग और उनकी निर्बाध आपूर्ति को व्यक्ति का विकास माना जाता है. अब यह समझा जाता है कि किसी देश के भीतर और देशों के बीच संघर्ष मुख्य रूप से प्राकृतिक व मानव निर्मित संसाधनों पर कब्जे के लिए होते हैं, जो शारीरिक आराम और आनंद के लिए भौतिक वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करते हैं.
शायद राजनीतिक-आर्थिक सत्ता के खेल और बढ़ते धार्मिक कट्टरवाद के बीच संबंध कमजोर दिखे, पर गहराई से सोचने पर संबंध उजागर हो जायेगा. आधुनिकता की जिन नकारात्मक विशेषताओं की गांधीजी ने सौ साल से भी पहले अच्छी तरह से चर्चा की है, उन्होंने कुछ पारंपरिक समाजों को धार्मिक कट्टरवाद का सहारा लेने, आबादी को पुरातन मान्यताओं का गुलाम बनाने और धर्म आधारित सभ्यता बनाने के नाम पर युद्ध छेड़ने के लिए प्रेरित किया है. नस्ल, आर्थिक विषमता, धार्मिक और रंग संबंधी पूर्वाग्रह कठोरता के साथ वापस आ गये हैं और इससे निश्चित ही हिंसा बढ़ेगी. इससे मानवता कैसे बाहर आ सकती है? गांधीजी ने जीवन जीकर यह दिखाया. वे जीवनभर अपनी कमजोरियों पर विचार करते रहे और उन्हें दूर कर अपने चरित्र को मजबूत करने का प्रयास करते रहे. इस तरह गांधीजी अपना ‘स्वराज’ हासिल करने के रास्ते पर डटे रहे. हमें आत्म-चिंतन, आत्म-निरीक्षण और आत्म-सुधार द्वारा ऐसा करने का प्रयास करना चाहिए. सत्ता के राजनीतिक एवं आर्थिक विकेंद्रीकरण को राष्ट्रों को एक नीति के रूप में अपनाना होगा. प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन पर यह प्रक्रिया नियंत्रण स्थापित करेगी.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
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