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विधानसभा चुनाव में स्थानीय पर जोर

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आधी सदी से अधिक समय से मध्य प्रदेश की राजनीति पर रजवाड़ों और उच्च वर्गों का वर्चस्व रहा है. साल 1956 में राज्य बनने के बाद से वहां पहले तीन दशक में 12 कांग्रेसी मुख्यमंत्री हुए, जिनमें अधिकतर ब्राह्मण या ठाकुर थे. भाजपा (जनता पार्टी के रूप में) ने 1977 में कांग्रेस के वर्चस्व को तोड़ा

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युद्ध मामूली आकार के लोगों को महाकाय बना सकते हैं. इस माह के पांच राज्यों के चुनाव में पार्टियों की रणनीति बदल गयी है. भाजपा का नारा ‘डबल इंजन सरकार’ है, तो गांधी परिवार का सूत्र वाक्य है- न्यूनतम अधिकतम है. रोड शो, बड़े आयोजन और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की सभाओं के आकार कम हुए हैं. भाजपा नेता और समर्थक मोदी का गुणगान कर रहे हैं और उनकी गारंटी को घोषणापत्र के रूप में सामने रख रहे हैं, लेकिन आला कमान ने उन्हें अपना प्रचार अभियान स्वयं चलाने और जीत सुनिश्चित करने का निर्देश दिया है. कांग्रेस ने भी यही किया है. दोनों राष्ट्रीय दलों ने यह समझा है कि केवल उनके शीर्ष नेतृत्व के सहारे जीत हासिल नहीं होगी, इसमें स्थानीय नेताओं और मुद्दों की बड़ी भूमिका होगी.

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राजस्थान में 1980 से किसी पार्टी को लगातार दूसरी बार सरकार बनाने का मौका नहीं मिला है. यह उन कुछ राज्यों में है, जहां बहुत अधिक राजनीतिक स्थिरता रही है क्योंकि पहले नेहरू के और बाद में सोनिया गांधी के अधीन कांग्रेस ने लगातार राज्य के नेतृत्व में बदलाव नहीं किया. अशोक गहलोत पांचवीं बार मुख्यमंत्री बनने की दावेदारी कर रहे हैं. उनकी पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी भाजपा की वसुंधरा राजे सिंधिया पितृसत्तात्मक परंपराओं के वर्चस्व वाले इस राज्य की एकमात्र महिला मुख्यमंत्री रही हैं. स्वर्गीय भैरों सिंह शेखावत, जिनकी पार्टी में राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्यता थी, के बाद भाजपा राज्य में कोई स्थानीय विकल्प नहीं बना सकी है. राजस्थान में राजे की ससुराल है और उन्होंने मुख्य रूप से व्यक्तिगत करिश्मे से अपनी जगह बनायी है.

दोनों दलों ने मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया है. गहलोत ने स्थानीय स्तर पर शीर्षस्थ रहने के लिए पार्टी का अध्यक्ष बनने से मना कर दिया था. वे अपने विरोधियों में फूट डालकर गंभीर आंतरिक विद्रोहों से बचे हुए हैं. उनके चिर-प्रतिद्वंद्वी सचिन पायलट ने युवाओं में अपना व्यक्तिगत आधार और लोकप्रियता को बढ़ाया है. दिलचस्प है कि इस बार कांग्रेस मुख्यमंत्री पद के दो विकल्प दे रही है- 72 वर्षीय अनुभवी ओबीसी नेता गहलोत और 46 वर्षीय युवा चेहरे पायलट, जिनका शानदार रिकॉर्ड है और वे एक संभावित राष्ट्रीय नेता हैं. इसके उलट, भाजपा में चेहरे की तलाश से उसके समर्थक भ्रमित हैं.

आधी सदी से अधिक समय से मध्य प्रदेश की राजनीति पर रजवाड़ों और उच्च वर्गों का वर्चस्व रहा है. साल 1956 में राज्य बनने के बाद से वहां पहले तीन दशक में 12 कांग्रेसी मुख्यमंत्री हुए, जिनमें अधिकतर ब्राह्मण या ठाकुर थे. भाजपा (जनता पार्टी के रूप में) ने 1977 में कांग्रेस के वर्चस्व को तोड़ा और ब्राह्मण कैलाश जोशी मुख्यमंत्री बने. साल 2003 में भाजपा ने सवर्ण वर्चस्व को तोड़ते हुए ओबीसी नेता उमा भारती को मुख्यमंत्री बनाया, जो राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री हुईं. तब से दोनों दल आक्रामक ढंग से ओबीसी कार्ड खेल रहे हैं. वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भाजपा के तीसरे ओबीसी मुख्यमंत्री हैं. कांग्रेस की ओर से 77 वर्षीय कमलनाथ उन्हें गंभीर चुनौती दे रहे हैं.

वे 2018 में बहुमत के आसपास पहुंचे थे, पर महत्वाकांक्षी ज्योतिरादित्य सिंधिया ने उनका तख्त पलट दिया. वे बदला लेने के लिए व्यग्र हैं. उनका निशाना भाजपा नहीं, सिंधिया हैं, जिन्हें वे राजनीतिक रूप से खत्म कर देना चाहते हैं. कांग्रेस की जीत ग्वालियर और गुना पर निर्भर है, जहां सिंधिया परिवार का कुछ प्रभाव है. भाजपा के पास मुख्यमंत्री का उम्मीदवार नहीं होना कांग्रेस के लिए बहुत फायदेमंद है. भाजपा ने वरिष्ठ मंत्रियों एवं सांसदों को उम्मीदवार बनाया है, जिससे यह संदेह होता है कि पार्टी की जीत की स्थिति में शायद चौहान फिर से मुख्यमंत्री न बनें. तब चौहान उसका श्रेय लेकर पार्टी में बड़ी राष्ट्रीय भूमिका की दावेदारी कर सकते हैं. कांग्रेस की जीत युवा पीढ़ी के लिए रास्ता तैयार कर सकती है. ऐसे संभावितों में पहला नाम दिग्विजय सिंह के पुत्र 37 वर्षीय जयवर्धन सिंह का है, जिन्हें पार्टी में अपने पिता से अधिक समर्थन हासिल है.

छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार है और उन्हें चुनौती देने वाला कोई भरोसेमंद चेहरा राज्य में नहीं है. कांग्रेस 2018 से सरकार में है. इस बार दोनों दलों ने औपचारिक रूप से मुख्यमंत्री उम्मीदवार की घोषणा नहीं की है. कांग्रेस के पास दो विकल्प हैं- ओबीसी नेता बघेल और उपमुख्यमंत्री एवं सरगुजा के पूर्व महाराजा टीएस सिंहदेव, जो आदिवासी क्षेत्र में बहुत लोकप्रिय हैं. भाजपा को देर से समझ में आया कि रमन सिंह का प्रभाव पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है. उन्हें पांच साल से हाशिये पर रखा गया था. पार्टी उनके कद का कोई वैकल्पिक नेता आगे नहीं ला सकी है. दूसरी ओर, संगठन और नेतृत्व के मामले में बघेल और उनकी पार्टी बेहतर स्थिति में हैं. लोकसभा चुनाव पर इसका मामूली असर होगा, पर दो लगातार हार से छत्तीसगढ़ से अधिकतम सीटें जीतने की संभावना कुंद होगी.

दस साल पहले राज्य के रूप में गठित हुआ तेलंगाना अजीब लड़ाई की ओर अग्रसर है. साल 2014 और 2018 में के चंद्रशेखर राव के नेतृत्व में तेलंगाना राज्य समिति (अब भारत राष्ट्र समिति) ने अपनी पूर्ववर्ती पार्टी कांग्रेस को भारी जीत हासिल की थी. अब लड़ाई उन नेताओं के बीच है, जिन्होंने अपना करियर तेलुगू देशम या अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से शुरू किया था. राव ने कांग्रेस से अपना करियर शुरू किया था, पर उन्हें तेलुगू देशम की एनटी रामाराव और चंद्रबाबू नायडू की सरकारों में मंत्री के रूप में ख्याति मिली.

कांग्रेस की राज्य इकाई के अध्यक्ष एआर रेड्डी छात्र जीवन में विद्यार्थी परिषद में थे और फिर तेलुगू देशम से होते हुए कांग्रेस में गये. हाल तक कांग्रेस दौड़ में नहीं थी, पर कुछ महीनों से इसने भारत राष्ट्र समिति और भाजपा के कई नेताओं को आकर्षित किया. इससे उसको बहुत लाभ संभावित है, शायद बहुमत भी मिल जाए. पार्टी ने पूर्व मुख्यमंत्री वाइएसआर रेड्डी की बेटी शर्मिला को अनौपचारिक रूप से साथ लेकर एक ऐतिहासिक गलती को ठीक किया है. स्थानीय संपर्क या सहयोगी के अभाव में दूसरे दलों को साथ लाने का भाजपा के प्रयास का परिणाम नहीं मिला है. अब सवाल उठता है कि क्या दक्षिण में कांग्रेस का उभार हो रहा है.

इन चार राज्यों के नतीजे राष्ट्रीय राजनीति बहुत प्रभावित करेंगे. कांग्रेस की सफलताओं का श्रेय गांधी परिवार को मिलेगा और स्थानीय क्षत्रपों का महत्व भी स्थापित होगा. कांग्रेस पर लोकतांत्रिक होने का दबाव बढ़ सकता है. तीन उत्तरी राज्यों में भाजपा की हार उसके स्थानीय आधार और नेतृत्व के कमजोर होने को इंगित करेगी. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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