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आपातकाल के सबक

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लोकतंत्र के मूल को परिवर्तित करने के लिए इसकी जरूरत नहीं होती. आपात की औपचारिक शुरुआत थी, तो अंत भी होना था. हम जिस नये तंत्र में रह रहे हैं, उसकी शुरुआत तो है, लेकिन कोई अंत को लेकर अाश्वस्त नहीं है.

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योगेंद्र यादव, अध्यक्ष, स्वराज इंडिया

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yyopinion@gmail.com

आपात लागू होने की 45वीं वर्षगांठ पर मृत खलनायक को कोसने या अतीत में जाने का कोई मतलब नहीं है. उस तानाशाही से मिले अनुभवों के आधार पर सोचने की जरूरत है कि कैसे हमारे समय में लोकतंत्र मर रहा है. राष्ट्र और लोकतंत्र के बारे में सोचने के लिए आपातकाल एक उत्साही और भ्रामक प्रिज्म की तरह है. यह इंदिरा गांधी के सत्तावाद के खिलाफ संघर्ष की गहरी यादों से जुड़ा है. मुझे पिताजी का चेहरा याद आता है, जब 26 जून, 1975 की सुबह को उन्होंने इंदिरा गांधी का रेडियो प्रसारण सुना था.

मैं उस समय 12 साल का था. जेपी के खिलाफ इंदिरा गांधी की प्रतिक्रिया के बजाय उस समय मेरी अधिक रुचि पहले विश्वकप में सुनील गावस्कर के 36 रन के स्कोर पर थी. देश के बारे में सही जानकारी के लिए हम हर शाम बीबीसी हिंदी सर्विस को सुनते थे. वर्ष 1977 में जब चुनावों की घोषणा हुई, तो मेरा परिवार जनता पार्टी के अभियान में शामिल हो गया. मैंने मात्र 14 साल की उम्र में अपनी पहली चुनावी रैली को संबोधित किया. मतगणना के दिन को मैं कभी भूल नहीं सकता, जब उत्साहित भीड़ इंदिरा गांधी के हार का जश्न मना रही थी. वह चुनावों में मेरी रुचि और राजनीति में भागीदारी की शुरुआत थी.

आपातकाल के खिलाफ कुछ अाक्रामक प्रतिरोध के साथ ऐसी तमाम कहानियां हैं कि कैसे लोगों ने सामूहिक चेतना से तानाशाही को खारिज कर दिया था. यह मिथक हो सकता है, क्योंकि वास्तविक प्रतिरोध बहुत कमजोर था. नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान में लोकतंत्र समर्थक आंदोलनों की तुलना में तो कुछ भी नहीं था. फिर भी यह प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है. आपातकाल आज हमारे लिये एक भ्रामक प्रिज्म की तरह है. यह हमें गलत प्रश्न पूछने के लिए उकसाता है- क्या हम आपातकाल की पुनरावृत्ति देख सकते हैं?

क्या हम पहले से ही ‘अघोषित आपातकाल’ में हैं? क्या मौजूदा शासन आपातकाल की तरह मूल अधिकारों को खत्म करने, मीडिया पर प्रतिबंध, विपक्षियों को जेल में डालने जैसा काम करेगा? आपातकाल के अनुभव के आधार पर हम विश्वास कर सकते है कि लोकतंत्र का निलंबन भी उसी तरह ही होता है. ‘अघोषित आपातकाल’ एक नरम छवि और उसी अनुभव की पुनरावृत्ति पेश करता है. मोदी शासन में हम 1975-77 जैसा अनुभव नहीं कर रहे हैं. यह अच्छा प्रतीत होता है, वास्तव में यह और भी बुरा हो सकता है.

आपात के लिए औपचारिक कानूनी घोषणा थी. लोकतंत्र के मूल को परिवर्तित करने के लिए इसकी जरूरत नहीं होती. आपात की औपचारिक शुरुआत थी, तो अंत भी होना था. हम जिस नये तंत्र में रह रहे हैं, उसकी शुरुआत तो है, लेकिन कोई अंत को लेकर अाश्वस्त नहीं है. हमारे देश में लोकतंत्र बंदी बनाया जा चुका है. हम यह गौर करना भूल जाते हैं कि भारत के संविधान के साथ शुरू किया गया प्रजातंत्र पहले ही खत्म चुका है. इसे मैं ‘लोकतंत्र पर तानाशाही के काबिज होने’ या ‘लोकतंत्र के संकट’ के बजाय ‘लोकतंत्र बंदीकरण’ कहता हूं.

जब्त किया जा रहा तंत्र भी लोकतंत्र है. इस कब्जे के लिए अपनाये जा रहे साधन भी लोकतांत्रिक हैं, कम से कम ऐसा प्रतीत होता है. साल 2018 में हॉर्वर्ड के राजनीति विज्ञान के दो प्रोफेसरों- स्टीवन लेवित्सकी और डेनियल जिब्लेट द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘कैसे मरता है लोकतंत्र’ में हमारे दौर में लोकतांत्रिक मूल्यों की क्षति के बारे में बताया गया है. यह किताब बताती है कि ज्यादातर लोकतंत्र साधारण, धीमे और मुश्किल से दिखायी देनेवाली मौत मरते हैं.

लोकतांत्रिक तरीके से चुने गये अधिकतर नेताओं द्वारा अक्सर कानूनी तौर-तरीकों से इसे खत्म किया जाता है. सैन्य तख्तापलट या आपातकाल जैसे संवैधानिक उपायों के बजाय अधिनायकवादी शासक लोकतंत्र की हत्या रोजाना के राजनीतिक खेलों से करते हैं. इसके तीन प्रारूप हैं- निर्णयकर्ताओं पर लगाम, विरोधियों को दरकिनार करना और नियमों का पुनर्लेखन. इस पुस्तक में फुजीमोरी के शासन में पेरू, पुतिन के रूस, चावेज के वेनेजुएला, ओर्बान के हंगरी और ट्रंप के शासन में अमेरिका का उदाहरण देते हुए बताया गया है कि कैसे हमारे समय में लोकतंत्र मर रहा है.

इस पुस्तक में भारत का जिक्र नहीं है, लेकिन उसके समानांतर भारत की स्थिति को आसानी से परखा जा सकता है. निर्णयकर्ताओं को अधिकार में लेना- सीबीआइ और सीवीसी जैसी जांच एजेंसियों, सीआइसी और सीएजी जैसी निरीक्षक संस्थाओं और शीर्ष न्यायतंत्र मोदी के भारत में बदल गया है. मौजूदा शासन द्वारा ऐसे ही उपाय विपक्षी नेताओं, मीडिया, सांस्कृतिक हस्तियों और व्यवसायियों को किनारे लगाने के लिए किये गये.

मोदी शासन ने अब तक केवल एक काम नहीं किया है- खेल के लिए संवैधानिक नियमों में बड़ा बदलाव. अभी तक चुनावों का नियम नहीं बदला गया है. मतदाताओं के बीच लोकप्रियता और मीडिया व न्यायपालिका के साथ सफलता के कारण ऐसा करना जरूरी नहीं हुआ. जैसा कि लेखक ने कहा है कि लोकतंत्र के खात्मे के दौरान लोकतंत्र का ही सहारा लिया जाता है. अलोकतांत्रिक उपायों को न्यायसंगत सिद्ध करने के लिए सत्तावादी आर्थिक संकट, प्राकृतिक आपदा और विशेषकर युद्ध, सैन्य विद्रोह या आतंकी हमलों का भी इस्तेमाल करते हैं.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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