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महामारी से मुकाबले का वक्त

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कोरोना मारे या भुखमरी, मौत तो मौत होती है. इसलिए शहरी बेरोजगारों और ग्रामीण आबादी को ध्यान में रखकर तुरंत व्यवस्था बनाने की जरूरत है.

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केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय से स्पष्ट कहा है- हम पर भरोसा रखिए और हमारे काम में दखलंदाजी मत कीजिए. अदालत को सरकार ने यह समझाने की कोशिश की कि कोविड से लड़ने की उसकी सारी योजनाएं गहरे विमर्श के बाद बनायी गयी हैं. यह सब तब शुरू हुआ, जब सर्वोच्च न्यायालय ने ऑक्सीजन के लिए तड़पते-मरते देश का हाथ थामा और केंद्र सरकार के हाथ से इसका वितरण अपने हाथ में ले लिया. बहरहाल, इस दारुण दशा में विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका का संवैधानिक संतुलन बिगड़े, तो यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा.

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न्यायपालिका देश चलाने लगे और सरकारें व पार्टियां चुनाव लड़ने भर को रहें, तो यह किसी के हित में नहीं है. संविधान कागज पर लिखी इबारत मात्र नहीं है, बल्कि देश की सभ्यता व संस्कृति का भी वाहक है. संविधान बदला जा सकता है, सुधारा जा सकता है, संशोधित किया जा सकता है, लेकिन छला नहीं जा सकता है. संकट के इस दौर में भी हमें संविधान के इस स्वरूप का ध्यान रखना ही चाहिए तथा उसकी रोशनी में इस अंधेरे दौर को पार करने का दायित्व लेना चाहिए. यह जीवन बचाने और विश्वास न टूटने देने का दौर है.

एक अच्छा रास्ता सर्वोच्च न्यायालय ने दिखाया है. जिस तरह उसने ऑक्सीजन के लिए एक कार्य दल गठित कर सरकार को उस जिम्मेदारी से अलग कर दिया है, उसी तरह एक कोरोना नियंत्रण केंद्रीय संचालन समिति का अविलंब गठन प्रधान न्यायाधीश व उनके दो सबसे वरिष्ठ न्यायाधीशों की अध्यक्षता में होना चाहिए. इस राष्ट्रीय कार्य दल में सामाजिक कार्यकर्ता, ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्र में काम करने का लंबा अनुभव रखने वाले डॉक्टर, अस्पतालों के चुने प्रतिनिधि, राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि, कोविड तथा संक्रमण-विशेषज्ञ शामिल किये जाने चाहिए.

यही तत्पर कार्य दल कोरोना के हर मामले में अंतिम फैसला करेगा और सरकार व सरकारी मशीनरी उसका अनुपालन करेगी. इसमें महिलाओं तथा ग्रामीण विशेषज्ञों की उपस्थिति भी सुनिश्चित करनी चाहिए. हमें इसका ध्यान होना ही चाहिए कि अब तक जैसा हाहाकार मच रहा है, वह सब महानगरों तथा नगरों तक सीमित है. लेकिन कोरोना महामारी वहीं तक सीमित नहीं है. वह हमारे ग्रामीण इलाकों में पांव पसार चुका है. यह वह भारत है, जहां न मीडिया है, न डॉक्टर, न अस्पताल, न दवा.

यहां जिंदगी और मौत के बीच खड़ा होनेवाला कोई तंत्र नहीं है. मौत के आंकड़े प्रतिदिन चार हजार से अधिक हैं. जब हम ग्रामीण भारत के आंकड़े ला सकेंगे, तब पूरे मामले की भयानकता सामने आयेगी. इसलिए इस कार्य दल को नदियों और रेतों में फेंक दी गयीं लाशों के पीछे भागना होगा, कब्रिस्तानों व श्मशानों से आंकड़े लाने होंगे. प्रभावी नियंत्रण-व्यवस्था का असली स्वरूप तो तभी खड़ा हो सकेगा.

ऐसा ही कार्य दल हर राज्य में गठित करना होगा, जिसे केंद्रीय निर्देश से काम करना होगा. सामाजिक संगठनों और स्वयंसेवी संस्थाओं को इस अभिक्रम से जोड़ना होगा. किसी भी चिकित्सा पद्धति का कोई भी डॉक्टर थोड़े से प्रशिक्षण से कोविड के मरीज का प्रारंभिक इलाज कर सकता है. पंचायतों के सारे पदाधिकारियों, ग्रामीण नर्सों, आंगनबाड़ी सेविकाओं, आशा स्वयंसेविकाओं की ताकत इसमें जोड़नी होगी. अंतिम वर्ष की पढ़ाई पूरी कर रहे डॉक्टर, नर्सें, प्राइवेट प्रैक्टिस कर रहे चिकित्सक, वे सभी अवकाश प्राप्त डॉक्टर, जो काम करने की स्थिति में हैं, सबको जोड़ कर एक आपातकालीन ढांचा बनाया जा सकता है.

स्कूल-कॉलेज के छात्र लंबे समय से घरों में कैद हैं. नौकरीपेशा लोग घर से काम कर रहे हैं. इन सबको कुछ घंटे समाज में काम करना होगा. वे जागरूकता का प्रसार करेंगे. इनमें से अधिकतर कंप्यूटर और स्मार्टफोन चलाना जानते हैं. ये लोग उस कड़ी को जोड़ सकते हैं, जो ग्रामीण भारत और मजदूर-किसानों के पास पहुंचते-पहुंचते टूट जाती है. यह पूरा ढांचा द्रुत गति से खड़ा होना चाहिए और सरकारों को इस पर समुचित खर्च करना चाहिए.

सारी राष्ट्रीय संपदा नागरिकों की ही कमाई हुई है. अमेरिका और यूरोप बौद्धिक संपदा पर अपना अड़ियल रवैया ढीला कर रहे हैं. पर इस पर ताली बजानेवाले हमलोगों को अपने से यह भी पूछना चाहिए कि हम क्या कर रहे हैं. हम अपने यहां वैक्सीन बना रही कंपनियों को अपना अधिकार छोड़ने के लिए क्यों नहीं कह रहे हैं? अदालत को इसमें हस्तक्षेप कर वैक्सीन उत्पादन को विकेंद्रित करना चाहिए.

कोरोना मारे या भुखमरी, मौत तो मौत होती है. इसलिए शहरी बेरोजगारों और ग्रामीण आबादी को ध्यान में रखकर तुरंत व्यवस्था बनाने की जरूरत है. एक आदेश से मनरेगा को मजबूत आर्थिक आधार देकर उसे व्यापक बनाना चाहिए और उसमें ग्रामीण जल स्रोतों को पुनर्जीवित करने, बांधों की मरम्मत करने, गांवों में बिजली पहुंचाने की व्यवस्था खड़ी करने, कोरोना केंद्रों तक लोगों को लाने-ले जाने जैसे कार्यों को भी शामिल किया जाना चाहिए.

शवों के अंतिम संस्कार को हमने इस संकट में कितना अमानवीय बना दिया है! प्राध्यापकों को यह जिम्मेदारी दी जानी चाहिए कि मृतकों को संसार से सम्मानपूर्वक विदाई मिले. इन सभी कामों में संक्रमण का खतरा है, इसलिए सावधानी से इन्हें पूरा करना होगा. यह भी समझना होगा कि निष्क्रियता से महामारी का मुकाबला संभव नहीं है. कोरोना हमारे भीतर कायरता नहीं, सक्रियता का बोध जगाये, तो असमय चले गये लोगों से हम माफी मांगने के लायक बनेंगे.

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