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प्रशासनिक सुधारों का सही समय

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संस्थाओं के स्वरूप में बदलाव, उनके कार्य क्षेत्र का पुनर्निर्धारण और कामकाज के तौर-तरीकों का पुनर्लेखन आज की प्राथमिक आवश्यकता है.

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केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने वर्ष 2020-21 के बजट के रूप में एक युगांतकारी- सदी का विशिष्ट- बजट प्रस्तुत करने के अपने इरादे को सार्वजनिक तौर से जाहिर किया है. नीतियों की घोषणा और संसाधनों के आवंटन के संदर्भ में इस बात का मतलब अपने-अपने ढंग से निकाला जा सकता है, परंतु व्यापक विचार-विमर्श ने उन्हें अर्थव्यवस्था के सभी पहलुओं से संबंधित ढेर सारे सलाह उपलब्ध कराये हैं, लेकिन यह भी है कि इनमें से अधिकांश सलाह करों में छूट, वित्तीय विवेक, भौतिक एवं सामाजिक इंफ्रास्ट्रक्चर और उपभोग वृद्धि में संसाधनों के उदार आवंटन से संबंधित हैं.

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वर्तमान राजनीतिक कार्यपालिका ने संरचनात्मक सुधारों से संबंधित उपादान उत्पादकता (फैक्टर प्रोडक्टिविटी) को कमोबेश पूरा कर लिया है. आशा है कि अनुभव से सीखते जाने की प्रक्रिया में भूमि, श्रम एवं पूंजी में सुधार तथा बेहतरी के प्रयास भी बरकरार रहेंगे. यदि आवंटन से जुड़ी कुशलता में बेहतरी आती है, तो संरचनात्मक सुधारों से अर्थव्यवस्था लाभान्वित होगी. संसाधनों की आवंटन की प्रभावोत्पादकता मध्यस्थता की गुणवत्ता से निर्धारित होती है. भारत में मध्यस्थ संस्थानों के कामकाज का रिकॉर्ड बहुत गौरवपूर्ण नहीं है.

कई वर्षों के कामकाज के दौरान हर एक संस्थान में ऐसे लोग पैदा हो जाते हैं, जो उत्पादकता या प्रदर्शन में बिना किसी समुचित योगदान के धन हासिल करने की कोशिश करते हैं. इसी तरह निहित स्वार्थ भी अस्तित्व में आ जाते हैं. राज्य के संगठन, कार्यपालिका की सहनशीलता और जनता के धैर्य के हिसाब से ऐसे तत्वों की संख्या बढ़ती रहती है.

स्वार्थी और धन बनाने पर आमादा तत्व अवरोध पैदा कर, बाड़ लगाकर और धन के गलत बहाव के लिए तंत्र में छेद बनाकर काम के पूरा होने या सेवा को सही जगह पहुंचने या उत्पादन की प्रक्रिया की अवधि बढ़ाते हैं और संसाधनों के समुचित आवंटन की क्षमता को नुकसान पहुंचाते हैं.

भारत ने विरासत में स्वतंत्रता से पहले के कुछ शासकीय संस्थानों को हासिल किया था, जिनमें न्यायपालिका और प्रशासन सबसे महत्वपूर्ण थे. जनसंख्या में बढ़ोतरी, राज्य के गठन में परिवर्तनों, अर्थव्यवस्था की संरचना तथा भारत के लोगों की आकांक्षाओं में बदलाव आदि के बावजूद इन संस्थानों में बहुत मामूली बदलाव ही हुए हैं. ऐसे में पूरी प्रणाली घुमावदार, मनमानीपूर्ण, निराशाजनक और बेमतलब हो चुकी है.

विश्व बैंक की वर्ष 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, ठेकों को निर्धारित समय पर पूरा करने के मामले में दुनिया में भारत का स्थान 164वां है. पहली ही अदालत में किसी कंपनी के एक व्यावसायिक विवाद का निपटारा होने में औसतन 1445 दिन लग जाते हैं तथा इस कार्यवाही में विवादित मूल्य का 30 प्रतिशत खर्च हो जाता है.

संस्थाओं के स्वरूप में बदलाव, उनके कार्य क्षेत्र का पुनर्निर्धारण और कामकाज के तौर-तरीकों का पुनर्लेखन आज की प्राथमिक आवश्यकता है. बीते कुछ दशकों से प्रशासनिक सुधारों की मांग हो रही है. अनेक सरकारों ने इस मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए कामकाज में बेहतरी लाने की कोशिश की है, लेकिन सेवाओं को सही ढंग से प्रदान करने तथा लक्षित लोगों की संतुष्टि के मामले में बेहतरी में मामूली बढ़ोतरी ही हो सकी है.

वर्तमान सरकार ने भी प्रशासनिक आयोग की सिफारिशों तथा विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों द्वारा प्रस्तावित परिवर्तनों पर ध्यान दिया है. राजस्व जिले की मौजूदा रूप-रेखा ब्रिटिश सरकार द्वारा मुख्य रूप से इसलिए बनायी गयी थी कि राजस्व की वसूली हो सके. यह कारण अब इतना अहम नहीं है कि जिला प्रशासन के कार्मिकों की इतनी बड़ी सेना रखी जाए. संस्था की क्षमता, संस्कृति और समन्वय उसी के इर्द-गिर्द बनायी गयी थी. इसलिए आज भी जिलाधिकारी या उपायुक्त ‘हुजूर’ बने हुए हैं.

जिलों और शहरों में प्रशासनिक तंत्र का आज जो प्रमुख उद्देश्य है, वह है विभिन्न नागरिक और कल्याण सेवाओं को मुहैया कराना तथा आर्थिक विकास को सहयोग देना. प्रशासन की अक्षमता और अकुशलता से समाज का असंतोष कभी-कभी अशालीन तरीकों के रूप में बाहर आता है. प्रणाली और प्रक्रिया में छोटे-मोटे बदलाव से संतोष को नहीं बढ़ाया जा सकता है.

ऐसी स्थिति में यदि सांस्थानिक रूप-रेखा और संरचना में पूरी तरह फेर-बदल संभव नहीं है, तो कम-से-कम उनकी दिशा का पुनर्निर्धारण करना तथा उन्हें उद्देश्य और अपेक्षित परिणाम से फिर जोड़ना अत्यावश्यक हो गया है. किसी संस्थान की कार्य क्षमता सूचना, प्रोत्साहन, दंड तथा उत्तरदायित्व से गुंथे अधिकार से निर्धारित होती है. हालांकि आयकर प्रशासन में दूरगामी बदलाव हुए हैं तथा सेवाओं के प्रदान करने में बेहतरी आयी है, लेकिन करदाताओं का भरोसा अभी भी पूरी तरह बहाल नहीं हुआ है, जिससे परिणामों पर बहुत गंभीर असर पड़ रहा है.

ऐसी ही स्थिति न्यायिक सेवाओं के साथ भी है. इस क्षेत्र में अनेक बदलाव की कोशिशें हुई हैं. इनमें से एक प्रयास अलग व्यावसायिक न्यायालयों और ट्रिब्यूनलों की स्थापना भी है. इसके बावजूद लोगों की मुश्किलें अब भी बर्दाश्त के बाहर हैं. यहां तक कि इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड जैसे बेहद व्यावहारिक कानून के डिजाइन ने भी मामूली मदद की है. यह एक चिंताजनक स्थिति है. इसके कारण बिल्कुल स्पष्ट हैं.

व्यवस्था की बनावट और कामकाज की प्रक्रियाएं पुरानी प्रकृति का ही अवतार हैं. निहित स्वार्थों तथा किसी भी तरह धन बनाने की जुगत में लगे लोग अब भी आराम से अपना काम कर रहे हैं. यदि न्याय देना उद्देश्य है, तो फिर ‘न्याय में देरी न्याय देने से इनकार है.’ जब तक नये न्याय शास्त्र का निर्माण नहीं हो जाता है, तब तक पुराना न्याय शास्त्र और न्यायिक मनमानी अपनी प्रभुता नहीं चला सकते हैं. समानता के सिद्धांत से संचालित व्यवस्था में अपेक्षित परिणाम ही निर्धारक कारक होने चाहिए.

‘सदी का विशिष्ट बजट’ में ‘शासन के संस्थानों’ के पूरी तरह से फिर से रचने-गढ़ने का उद्देश्य समाहित होना चाहिए, जहां आम आदमी लाभों को ग्रहण करने में आगे रहे तथा साधन संपन्न लोगों को परिणामों के अपहरण की अनुमति नहीं होनी चाहिए.

ऐसा करना आज की सबसे अहम जरूरत है. यह सच है कि ऐसा एक साल में ही नहीं हो सकता है, लेकिन भविष्य के लिए एक कार्ययोजना बजट के दस्तावेज में स्पष्ट रूप से रेखांकित होनी चाहिए. अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय जॉन एफ केनेडी ने एक अर्थपूर्ण बात कही थी कि ‘जब सूरज चमक रहा हो, तब छत की मरम्मत का समय होता है.’ इस महत्वपूर्ण युगांतकारी परिवर्तन को हमारी संसद के दोनों सदनों द्वारा स्वीकृति देने और इसके लिए समाज की एकचित्तता का यही समय है.

Posted By : Sameer Oraon

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