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वास्तविक सहकारी संघवाद का समय आ गया है, जहां केंद्र अगुवाई करे और राष्ट्रीय मामलों में राज्य भी अपनी बात कह सकें.

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भारत की सत्ता विविधता में निहित है. सदियों से अनगिनत आक्रमणों तथा आपसी युद्धों ने मिलकर हमारी संघीय नींव बनाने के लिए सांस्कृतिक संयोजनों का मेल बनाया. आपदाएं असुरक्षा और संघर्ष की स्थिति पैदा करती हैं. भारत, जो 17वीं सदी में वैश्विक अर्थव्यवस्था में 24.4 प्रतिशत की हिस्सेदारी के साथ सबसे धनी राष्ट्र था, अब बांग्लादेश से पीछे हो गया है. इस अपमान के अलावा, राष्ट्रीय वातावरण का ह्रास असहिष्णुता और झगड़ालू अराजकता के रूप में हो रहा है.

सर्वसम्मति का स्थान परस्पर विरोध ने ले लिया है. उचित असहमति को टकराव के तौर पर देखा जाता है. राजनीति से लेकर मनोरंजन तक, एक नये लड़ाकू भारतीय का उद्भव हो गया है. वह किसी भी विपरीत आख्यान के लिए एक इंच जगह छोड़ने के लिए तैयार नहीं है. अनर्थकारी कोरोना प्रबंधन के मामले में केंद्र और राज्यों के बीच लगातार कहा-सुनी की व्याख्या इसके अलावा किसी और आधार पर नहीं हो सकती है.

आंकड़ों के अनुसार, दुनिया में कोरोना से होनेवाली हर 12वीं मौत भारत में हो रही है तथा हर सातवां नागरिक संक्रमित है. फिर भी, राजनेता सांख्यिक कुख्याति पर झगड़ रहे हैं तथा एक-दूसरे पर दोषारोपण कर रहे हैं.

भाषा और लहजे से इंगित होता है कि आज का भारत एक एकीकृत राष्ट्र के बजाय 18वीं सदी के सामंती क्षेत्रों का परिसंघ जैसा है. हमारे राजनेता यह नहीं समझ पा रहे हैं कि बंगाल की वेदना असम का उल्लास नहीं है. राजस्थान की समृद्धि हरियाणा की त्रासदी नहीं है. सभी राज्य भारत की संपूर्णता के अविभाज्य अभिन्न अंग हैं. यदि एक का ह्रास होता है, तो दूसरे भी देर-सेबर बीमार होंगे.

इसलिए, मारकर भागने की जगह बैठकर बातचीत होनी चाहिए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्रियों के बीच संकट पर होनेवाली वार्ताएं अब वायरस को हटाने के मंच न होकर आपसी उठापटक का मैदान बन गयी हैं. पिछले सप्ताह ममता बनर्जी ने ऐसी एक बैठक में शामिल होने के बाद प्रधानमंत्री को निशाना बनाया. उन्होंने मुख्यमंत्रियों और जिलाधिकारियों के एक समूह को जमीनी सच्चाई जानने के लिए बुलाया था.

इसमें मुख्यमंत्रियों को भी अपने अनुभव बताने थे. बैठक के बाद वे प्रधानमंत्री पर बरस पड़ीं, ‘यह एकतरफा संवाद नहीं था, एकतरफा अपमान था, एक राष्ट्र, सब अपमान. क्या प्रधानमंत्री में इतना असुरक्षा बोध है कि वे मुख्यमंत्रियों की नहीं सुनना चाहते हैं? वे भयभीत क्यों हैं? अगर वे मुख्यमंत्रियों की नहीं सुनना चाहते हैं, तो उन्हें बुलाते ही क्यों हैं?

उन्होंने कुछ जिलाधिकारियों को बोलने दिया और मुख्यमंत्रियों का अपमान किया.’ इससे पहले झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने ऐसी ही भावनाएं व्यक्त की थीं. उन्होंने कहा था, ‘आज आदरणीय प्रधानमंत्री ने बुलाया था. उन्होंने केवल अपने ‘मन की बात’ की. अरविंद केजरीवाल ने अपने भाषण का सीधा प्रसारण कर दिया, जिसे प्रोटोकॉल के विरुद्ध माना गया. मोदी ने उन्हें डांटा भी था. केवल आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन रेड्डी ने सद्भावना और मेलजोल का निवेदन किया. स्वाभाविक रूप से भाजपा के मुख्यमंत्री वायरस की भयावहता को नजरअंदाज करते हुए निष्ठा या भय के कारण चुप्पी साधे रहे.

वास्तविक सहकारी संघवाद का समय आ गया है, जहां केंद्र अगुवाई करे और राष्ट्रीय मामलों में राज्य भी अपनी बात कह सकें. जैसे केंद्र में सत्तारूढ़ दल को जनादेश मिला है, वैसे ही क्षेत्रीय दलों को भी मिला है. दरअसल, मोदी से बेहतर राज्यों की व्यथा को और कौन समझ सकता है, जिन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में 12 सालों तक कानूनी और राजनीतिक उत्पीड़न का सामना किया था? प्रधानमंत्री बनने के सालभर बाद उन्होंने स्वयं को संघवाद के प्रति प्रतिबद्ध किया था.

साल 2015 में एक सभा में उन्होंने कहा था, “13 साल मुख्यमंत्री और एक साल प्रधानमंत्री रहे मेरे जैसे व्यक्ति के लिए इस मंच का मेरे दिल में विशेष स्थान है. लेकिन इस नये संस्थान को मैं यह महत्व केवल अपनी भावना के आधार पर नहीं दे रहा हूं, बल्कि इसका आधार मेरा गंभीर विश्वास है, जो मेरे अनुभव से पैदा हुआ है, कि राष्ट्रीय विकास में राज्यों को महत्वपूर्ण भूमिका निभाना है. यह उन बड़े आकार और आबादी के देशों के लिए और भी जरूरी है, जहां बहुत अधिक भौगोलिक, सामाजिक और आर्थिक विविधता है.

यह और भी अधिक प्रासंगिक हो जाता है, जब संरचना में संवैधानिक और राजनीतिक तंत्र संघीय हों.” शायद योजना आयोग को भंग करना नीति निर्धारण में संघीय समावेशिता को सुनिश्चित करने का मोदी का तरीका था. उन्होंने 2015 में योजना आयोग की जगह नीति आयोग बना दिया. आधिकारिक घोषणा के अनुसार, नीति आयोग का उद्देश्य ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ के सिद्धांत पर राज्यों को मजबूत बनाने के लिए सहयोग देना था ताकि देश मजबूत हो सके.

व्यवहार में, ऐसा लगता है कि ग्रामीण भारत के खेतों, जंगलों और श्मशानों में सैकड़ों लाशों के साथ इस दृष्टि में निहित भावना का भी अंतिम संस्कार कर दिया गया है. साल 2015 से मोदी ने काउंसिल की आधा दर्जन बैठकें बुलायी हैं, जहां विभिन्न विकास कार्यक्रमों के लिए आम सहमति बनायी जाती है. ऐसी आखिरी बैठक आभासी रूप से फरवरी में हुई थी.

इसमें राज्यों के प्रमुखों, केंद्रीय मंत्रियों, विशेष आमंत्रितों के साथ नीति आयोग के उपाध्यक्ष, सीईओ, सदस्य और शीर्ष अधिकारी शामिल थे, जो देश का प्रशासन चलाते हैं. देश उस समय कोरोना की पहली लहर से उबर रहा था. वह बैठक आगे की कार्य योजना बनाने के लिए बेहतरीन अवसर हो सकती थी क्योंकि तब मुख्यमंत्री राजनीतिक टकराव नहीं चाहते थे. लेकिन नीति आयोग के बाबुओं और अन्यों को न तो आगे के खतरों की चिंता थी और न ही वे इनसे आगाह थे. इसके शीर्षस्थ शायद ही महामारी की रोकथाम में बड़े स्तर पर शामिल थे.

सीढ़ियों पर चढ़ने में माहिर आयोग के सदस्य और अनेक संस्थाओं के प्रमुख नाजुक केंद्र-राज्य संबंधों को क्षीण कर रहे हैं. इनमें से कुछ राज्यों से चर्चा किये बिना वैक्सीन नीति बना रहे हैं, कुछ हर सरकार में बड़े पद पा जाते हैं. ऐसे ही लोगों ने वैक्सीन सर्टिफिकेट पर प्रधानमंत्री की तस्वीर लगाने की सलाह दी होगी.

इनमें से किसी के पास महामारी से निपटने का कोई अनुभव नहीं है. मेडिकल प्रोटोकॉल बनाने, वैक्सीन मंगाने, पाबंदियां लगाने, जीवनरक्षक दवाएं और ऑक्सीजन बांटने आदि में शायद ही राज्यों की राय ली गयी. इन वजहों से महामारी रोकने में देश की प्रतिबद्धता कमजोर हो रही है. रूप बदलते वायरस राक्षस को ट्वीटर की लड़ाइयों और संदेहास्पद टूलकिटों से नहीं, बल्कि उदात्त संघवाद से ही मिटाया जा सकता है.

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