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अफगानिस्तान से वापसी के मायने

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अफगानी लोगों को अफगानिस्तान के मामले में पहल करने का जितना मौका दिया जा सकेगा, अतिवादी ताकतें उतना ही पीछे हटेंगी.

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अंतरराष्ट्रीय राजनीति की बिसात पर अमेरिका आज जैसा घिरा है वैसा शायद पहले कभी नहीं था. राष्ट्रपति बाइडेन जो भी चाल चलने की सोचते हैं, वहीं सीधी मात सामने दिखायी देती है. शक्ति की शतरंज पर बेबस अमेरिका! राष्ट्रपति बाइडेन का चुनावी नारा था- लौट रहा है अमेरिका! वे कहना चाहते थे कि राष्ट्रपति ट्रंप ने अमेरिका को जिस गतालखाने में डाल रखा है, वे वहां से अमेरिका को विश्व रंगमंच पर फिर से ला स्थापित करेंगे. चुनावी नारा तो यह अच्छा था लेकिन इसे करना इतना मुश्किल होगा, बाइडेन को संभवत: इसका इल्म नहीं था.

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अफगानिस्तान आज उन्हें इस कठोर वास्तविकता से रू-ब-रू करवा रहा है. हाल ही में उन्होंने घोषणा की है कि 11 सितंबर, 2021 तक अमेरिकी फौजें अफगानिस्तान से पूरी तरह निकल आयेंगी. आका बनने और बने रहने की अमेरिकी विदेश-नीति का यह वह दमतोड़ बोझ है, जिसकी कहानी 1989 में लिखी गयी थी. वर्ष 1978 में अमेरिकी कठपुतली दाऊद खान की सरकार का तख्ता वामपंथी फौजी नूर मुहम्मद तराकी ने पलटा था और सत्ता हथिया ली.

इसी वामपंथी सरकार की रक्षा के नाम पर रूस अफगानिस्तान में दाखिल हुआ था. रूसी प्रवेश अमेरिका को क्यों बर्दाश्त होता. उसने स्थानीय कबीलों को भड़का कर तराकी व सोवियत संघ दोनों के लिए मुसीबत खड़ी करनी शुरू की. बाजी हाथ से निकलती देख सोवियत संघ ने 24 दिसंबर, 1979 की रात में 30 हजार फौजियों के साथ अफगानिस्तान पर हमला बोल दिया और हफिजुल्ला अमीन की सरकार को बर्खास्त कर, बबराक कर्माल को गद्दी पर बिठा दिया.

वर्ष 1989 तक रूसी कठपुतलियां नचा सके, लेकिन अमेरिकी धन, छल और हथियारों की शह पाकर खड़े हुए कट्टर, खूनी कबीलों के संगठन इस्लामी धर्मांध मुजाहिदीन लड़ाकों ने उसे असहाय करना शुरू कर दिया. अमेरिका का पिछलग्गू पाकिस्तान मुजाहिदीनों की पीठ पर था. पराजय का घूंट पी कर सोवियत संघ तब अफगानिस्तान से विदा हो गया. अब अमेरिकी वहां कठपुतलियां नचाने लगे. असंगठित कबीलों और भाड़े के हत्यारों को अलकायदा तथा तालिबान की छतरी के नीचे जमा होता देख अमेरिका ने अपनी फौजें बढ़ानी शुरू कीं.

अमेरिका ने कहा कि हमें अफगानिस्तान को एक स्थिर व लोकतांत्रिक देश बना देना है जो अलकायदा व तालिबान के दवाब में काम न करे. लेकिन, अमेरिका ने इसे अनदेखा कर दिया कि ऐसा स्वतंत्र अफगानिस्तान अमेरिकी दवाब से भी मुक्ति चाहेगा न! लेकिन अमेरिकी समाज इसकी अनदेखी कैसे कर सकता था कि उसके वर्दीधारी बच्चे रोज-रोज अफगानिस्तान में मारे जा रहे हैं! युद्ध का लगातार बढ़ता आर्थिक बोझ अमेरिकी राष्ट्रपतियों को मजबूर करता जा रहा था कि वे वहां से निकल आयें.

बाइडेन अफगानिस्तान में अमेरिकी फौजों की उपस्थिति के कटु आलोचक रहे हैं और वहां चल रहे युद्ध को ‘अंतहीन युद्ध’ कहते रहे हैं. इससे पहले ओबामा चाहते थे कि अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी का श्रेय उन्हें मिले, लेकिन ऐसा कोई मौका वे बना नहीं सके. सबसे नायाब मौका उन्हें मिला था, जब 2011 में पाकिस्तान के एबटाबाद शहर में घुसकर अमेरिकी सैनिकों ने ओसामा बिन लादेन को मार डाला था.

तब व्हॉइट हाउस के वाररूम में बैठ कर, इस पूरे अभियान का जीवंत नजारा ओबामा ने देखा था. यह वह क्षण था जब वे दुनिया से कह सकते थे कि अफगानिस्तान में अमेरिकी उपस्थिति का एक अध्याय पूरा हुआ और अब हम अपनी फौज वहां से हटा रहे हैं. यह विजयी अमेरिका का ऐसा निर्णय होता जिसे अमेरिकी शर्तों पर अलकायदा भी, तालिबान भी, अफगानिस्तान सरकार भी और लोमड़ी जैसी चालाकी दिखाता पाकिस्तान भी स्वीकार करता. जीत का स्वाद और जीत का तेवर अलग ही होता है. लेकिन यह नाजुक फैसला लेने से ओबामा हिचक गये. इतिहास कब दूसरा मौका देता है कि ओबामा को देता! हाथ मलते हुए वे विदा हुए.

अब बाइडेन अफगानिस्तान के ‘अंतहीन युद्ध’ का अंत करना अपनी नौतिक जिम्मेदारी मानते हों तो स्वाभाविक ही है. अब वे फैसला करनेवाली कुर्सी पर बैठे हैं, तो उन्हें वह फैसला करना ही चाहिए जिसकी वे अब तक पैरवी करते रहे हैं. लेकिन राजनीति का सच यह है कि आप जो कह सकते हैं वह कर भी सकते हैं, यह न जरूरी है, न शक्य! अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों की वापसी का आज एक ही मतलब होगाः भयंकर खूनी गृहयुद्ध, इस्लामी अंधता में मतवाले तालिबान का आधिपत्य और पाकिस्तानी स्वार्थ का बोलबाला.

यह अमेरिकी कूटनीति की शर्मनाक विफलता, अमेरिकी फौजी नेतृत्व के नकारापन की घोषणा और एशियाई मामलों से सदा के लिए हाथ धो लेने की विवशता को कबूल करना होगा. यह बहुत बड़ी कीमत होगी. इसलिए, 11 सितंबर से पहले अमेरिका को अपनी पूरी ताकत लगाकर अफगानिस्तान के सभी पक्षों को एक टेबल पर लाना होगा. सामरिक विफलता को कूटनीतिक सफलता में बदलने का एकमात्र यही रास्ता है.

कितना टेढ़ा लगता हो लेकिन कोई तीन हजार अमेरिकी व नाटो संधि के कोई सात हजार सैनिकों की उपस्थिति में ही अफगानिस्तान में एक मिली-जुली सरकार का गठन हो, यह जरूरी है. यह सरकार भले लूली-लंगड़ी भी हो, बार-बार टूटती-बिखरती भी हो लेकिन उसका बनना एक ऐसी राजनीतिक प्रक्रिया को जन्म देगा जिससे अफगानी समाज आज बहुत कम परिचित है. अफगानिस्तान को अफगानी लोकतंत्र का यह स्वाद चखने देना चाहिए.

तालिबान अभी जिस स्थिति में है उसमें ऐसा करना आसान नहीं है लेकिन अफगानिस्तान के दूसरे सारे कबीलों को साथ लेने की अमेरिकी कुशलता तालिबान पर भारी पड़ेगी. यहीं अमेरिका को हमारी जरूरत भी पड़ेगी. हमें आगे बढ़कर अमेरिकी कूटनीति में हिस्सेदारी करनी चाहिए, ताकि पाकिस्तान को खुला मैदान न मिल सके.

हिस्सेदारी और पिछलग्गूपन में क्या फर्क है, यह बताने की जरूरत है क्या? अफगानी लोगों को अफगानिस्तान के मामले में पहल करने का जितना मौका दिया जा सकेगा, अतिवादी ताकतें उतना ही पीछे हटेंगी. लोग भयभीत हों तथा चुप रहें, अतिवादी इसी की फसल काटते हैं. बाइडेन यह समझें कि लोकतंत्र का संरक्षण और विकास थानेदारी से नहीं, भागीदारी से ही हो सकता है. अमेरिका को अफगानिस्तान से निकलना ही चाहिए, लेकिन भागना नहीं चाहिए.

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