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अहमद पटेल के बगैर अब कांग्रेस

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अहमद पटेल के बगैर अब कांग्रेस

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रशीद किदवई

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राजनीतिक विश्लेषक

rasheedkidwai@gmail.com

किसी राजनीतिक दल के बड़े नेता का जाना निश्चित ही पार्टी के लिए बड़ा नुकसान होता है. अहमद पटेल के नहीं रहने से पार्टी के अंदर एक शून्य पैदा होना स्वाभाविक है. इस नुकसान की भरपाई कांग्रेस के लिए आसान नहीं है. वर्तमान में कांग्रेस कई तरह की समस्याओं से गुजर रही है. पार्टी के भीतर अंतर्कलह चल रही है और कई लोग असंतुष्ट हैं.

वे बार-बार पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की घेराबंदी कर रहे हैं. खासकर पश्चिम बंगाल में कांग्रेस को अभी सहयोगी दलों के साथ तालमेल बिठाना है. वहां पार्टी के अंदर कई तरह की विषमताएं हैं. सबसे बड़ी चुनौती भाजपा से मिल रही है. इन हालातों के मद्देनजर पटेल की अच्छी भूमिका हो सकती थी.

राहुल गांधी का वामदलों, ममता बनर्जी या अन्य पार्टियों तथा नेताओं के साथ उस तरह का तालमेल नहीं है, जिस तरह अहमद पटेल का होता था. पार्टी के अंदर असंतुष्ट नेताओं में आधे से अधिक के साथ पटेल के बहुत मधुर और आत्मीय संबंध रहे हैं. वे किसी भी हालात में पार्टी की लक्ष्मण रेखा को लांघने से उन्हें रोक सकते थे. लेकिन अब हो सकता है कि हरियाणा या कर्नाटक जैसे राज्यों में कुछ असंतुष्ट नेता वहां स्वतंत्र क्षेत्रीय दल बनाने या बगावत की कोशिशों को तेज करें.

अहमद पटेल दूसरे दलों या विपक्षी पार्टियों को साधने में बहुत ही निपुण थे. राजीव गांधी के समय वे प्रधानमंत्री के संसदीय सचिव रहे. उनका काम करने का एक अलग तरीका था. साल 1999 में सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर शरद पवार ने बगावत कर दी और उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया गया. शरद पवार, संगमा और तारिक अनवर ने मिलकर महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनायी.

छह महीने बाद ही महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव हुए, जिसमें कांग्रेस बड़ी पार्टी बनी, लेकिन बहुमत से दूर थी. अहमद पटेल अपने राजनीतिक कौशल से इन निष्कासित नेताओं के साथ मिलकर एक वैकल्पिक सरकार बनाने में सफल हुए. यह बहुत मुश्किल काम था. इसी तरह बीते वर्ष जब भाजपा-शिवसेना के संबंध खराब होने के बाद वैकल्पिक सरकार की बात हुई, तो अपनी ही पार्टी के कई नेताओं के विरोध के बावजूद पटेल वहां गठबंधन की सरकार बनवाने में सफल हुए.

वे पर्दे के पीछे रहकर सक्रिय भूमिका निभाते थे. वे राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक संगठनों के साथ बेहतर तालमेल बनाने के लिए जाने जाते थे. इससे वे संकट की घड़ी में कांग्रेस को बहुत मदद करते थे. अहमद पटेल संजय गांधी के समय भी राजनीति में सक्रिय थे. जब 1977 में कांग्रेस अधिकांश जगहों से चुनाव हार गयी, तो अहमद पटेल अपना लोकसभा का चुनाव भरूच से जीत गये थे. जब राजीव गांधी ने संजय गांधी के करीबियों को नजरअंदाज करके अपने लोगों को आगे बढ़ाया, तो उसमें अहमद पटेल का नाम सबसे आगे था.

अहमद पटेल, ऑस्कर फर्नांडीस और अरुण सिंह को उन्होंने अपना संसदीय सचिव बनाया. इन लोगों को अमर, अकबर, एंथनी की जोड़ी कहा जाता था. कमला नेहरू ट्रस्ट, इंदिरा गांधी मेमोरियल ट्रस्ट, जवाहर भवन आदि नेहरू-गांधी परिवार के ट्रस्टों में उनकी सक्रियता बढ़ी. वे अंतिम समय तक ट्रस्टी और कर्ताधर्ता रहे. राजीव गांधी के आकस्मिक निधन के बाद जब पीवी नरसिम्हा राव आये, तो उस समय सोनिया गांधी के करीबियों के साथ उन्हें समस्या थी. समाधान के लिए उन्होंने अहमद पटेल से बात की. उनके जरिये ही संवाद स्थापित किया गया.

जब सीताराम केसरी कांग्रेस अध्यक्ष बने, तो फिर यही स्थिति बनी. उनके खिलाफ चुनाव लड़ रहे शरद पवार ने कटाक्ष करते हुए कहा कि कांग्रेस तीन मियां और एक मीरा की पार्टी है. उनका तात्पर्य तारिक अनवर, अहमद पटेल और गुलाब नबी आजाद और मीरा कुमार से था. लेकिन, अहमद पटेल विचलित नहीं हुए. साल 1998 में जब सोनिया कांग्रेस में आयीं, तो उसमें अहमद पटेल की सक्रिय भूमिका थी. कांग्रेस में कई गुट सक्रिय थे.

माधव राव सिंधिया, अर्जुन सिंह, नारायणदत्त तिवारी पार्टी छोड़कर जा चुके थे, वे वापस आये. सोनिया गांधी को अहमद पटेल योग्य लगे, क्योंकि उनका माधव राव, अर्जुन सिंह आदि के साथ सौहार्द्र पूर्ण संबंध थे. वे सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव बने और बाद में कांग्रेस के कोषाध्यक्ष के रूप में दायित्व का निर्वहन किया. उन्होंने सबको एकजुट किया और सोनिया गांधी को निर्विवादित नेता बना दिया.

सोनिया गांधी को अहमद पटेल में एक अच्छा इंसान नजर आता था. उन्हें अपनी पब्लिसिटी का शौक नहीं था. मीडिया मालिकों, संपादकों और रिपोर्टरों के साथ उनके अच्छे संबंध थे. लेकिन, उन्होंने बहुत कम इंटरव्यू दिये और बहुत कम फोटो खिंचवायी. यूपीए के समय वे सोनिया, मनमोहन और प्रणब मुखर्जी के बाद सबसे कद्दावर नेता बन गये.

गुजरात में संप्रादायिक हालात बिगड़ने के बाद लोगों ने उन्हें कहीं और से चुनाव लड़ने की सलाह दी, लेकिन उन्हें यह बात मंजूर नहीं थी. मैं उनसे आग्रह करता रहा कि आपने राजनीतिक जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं, उस पर एक संस्मरण लिखिये. उससे देश और दुनिया को वास्तविक स्थिति का पता चलेगा. लेकिन वे हमेशा कहते थे कि ये तमाम राज हैं, मुझे बहुत कुछ पता भी है,लेकिन वे सब मेरे साथ कब्र में जायेंगे. आज उनकी बातें सच साबित हुईं.

posted by : sameer oraon

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