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सक्षम चुनाव आयोग की जरूरत

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अरोड़ा और अतीत के उनके जैसे लोगों ने अपने स्पष्ट लचर रवैये से यह साफ साबित कर दिया है कि हल्के लोगों के बोझ से ताकतवर संस्थाएं भी ढह जाती हैं.

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दृष्टि के साथ लक्ष्य राजनीतिक सत्ता की धुरी होता है. जब चुनाव आयोग का लक्ष्य चूक करना हो जाता है, तब लोकतांत्रिक संस्थाओं में जनता का भरोसा संदिग्ध हो जाता है. विचार और व्यवहार में संस्थागत आदर्शों का पालन किसी व्यक्ति को विशिष्ट बनाता है. संविधान ने लोकतांत्रिक नींव को मजबूत करने के लिए अनेक संस्थाओं की रचना की है.

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चुनाव आयोग का गठन साफ-सुथरे चुनाव कराने के लिए हुआ था ताकि जनप्रतिनिधि वास्तविक जनादेश हासिल कर सकें. आजादी के 74 साल बाद यह संस्था न केवल मजाक का विषय है, बल्कि इसके हर फैसले पर विपक्ष, मीडिया और मतदाता सवाल उठाते हैं. ऐसा लगता है कि इसका आधार उन्हीं लोगों ने हिला दिया है, जिन्हें इसकी निष्पक्ष विश्वसनीयता को कायम रखने की जिम्मेदारी मिली थी. इनमें से कुछ लोगों ने गलत आचरण से इसका लगभग मृत्यलेख लिख दिया है. चुनाव आयोग अब चूकों की संस्था है.

आज जब आचार संहिता पर ही विवादों के बादल छाये हैं, दसवें मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन का शानदार उदाहरण आदरपूर्ण स्मृति के रूप में याद आता है. वे राजीव गांधी की पसंद थे और उन्हें दिसंबर, 1990 में चंद्रशेखर सरकार ने नियुक्त किया था. शेषन ने नेताओं और राजनीतिक पार्टियों को अपने अधिकार का आदर करने के लिए मजबूर कर दिया था.

तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जे जयललिता ने उन्हें घमंडी कह दिया था. राजनेता उनसे डरते थे और उनका आदर करते थे क्योंकि उन्होंने संस्था की प्रतिष्ठा बढ़ा दी थी. वे एकमात्र मुख्य चुनाव आयुक्त थे, जिन्होंने फर्जी मतदान रोकने के लिए फोटो पहचान पत्र बनाने से पहले चुनाव कराने से इनकार कर दिया था. उन्होंने सभी दलों द्वारा आदर्श आचार संहिता का पालन सुनिश्चित कराया, उनके खातों की जांच का आदेश दिया, प्रचार की निगरानी की वीडियो फोटोग्राफी करायी और भाषणबाजी के लिए धार्मिक स्थलों के उपयोग पर पाबंदी लगायी.

साफ-सुथरे चुनाव के लिए शेषन की नियमावली की वजह से 1999 के लोकसभा चुनाव में डेढ़ हजार उम्मीदवारी रद्द हुई. छह साल के कार्यकाल में उन्होंने खर्च के 40 हजार ब्यौरों का निरीक्षण किया और 14 हजार उम्मीदवारों को झूठी जानकारी देने की वजह से अयोग्य करार दिया. राजीव गांधी की हत्या के बाद हिंसा के डर से उन्होंने बिहार और पंजाब का चुनाव रद्द कर दिया था. उन्होंने इसके लिए प्रधानमंत्री से मशविरा करने की परवाह भी नहीं की. आजादी के बाद नियुक्त 24 मुख्य आयुक्तों में शेषन अकेले थे, जिन्होंने छह साल का अपना कार्यकाल पूरा किया था.

आज आयोग अपनी ही बर्बादी का मूकदर्शक बना हुआ है. बीते दशक में इसके प्रमुख जाने-अनजाने केंद्र सरकार की कठपुतली रहे हैं, जिनका व्यवहार विभिन्न सरकारी विभागों के प्रमुखों की तरह रहा है. आपराधिक उम्मीदवारों के खिलाफ कार्रवाई करने तथा प्रत्याशियों को आचार संहिता का पालन कराने में आयोग का प्रदर्शन बेहद खराब रहा है. इसके प्रमुखों को लगता रहा है कि सत्ताधारी नेता उनके आज्ञाकारी व्यवहार से खुश होंगे.

यह सच भी है कि हर रंग के नेता झुके हुए आयोग को पसंद करेंगे क्योंकि वे आयोग के कड़े रुख का निशाना नहीं बनना चाहेंगे. दुर्भाग्यवश, इससे आयोग के नेतृत्व का चरित्र कमजोर हुआ है, जिससे चुनाव प्रक्रिया की साख गिरी है. इससे भी अधिक चिंताजनक यह है कि शेषन द्वारा निर्धारित ठोस अधिकारों का दुरुपयोग धृष्टतापूर्ण असंगत निर्देशों के रूप में हो रहा है.

उदाहरण के लिए, शेषन ने कई चरणों में चुनाव कराने की प्रक्रिया बूथ लूटना रोकने तथा उचित ढंग से केंद्रीय बलों की तैनाती करने के लिए किया था. अब इस प्रक्रिया का इस्तेमाल मतदान प्रक्रिया को देर तक जारी रखने और सभी दलों द्वारा निर्बाध रूप से धन-बल प्रदर्शित करने का मौका देने के लिए हो रहा है़ चुनाव प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए तकनीक और संसाधनों के उपयोग के बदले चुनाव आयोग ने एक ऐसी प्रणाली बना दी है, जहां मनमाने आचार संहिता से हर साल प्रशासनिक तंत्र लकवाग्रस्त होता जा रहा है.

मौजूदा विधानसभा चुनावों को 12 सप्ताह में पूरा किया जा सकता था. लंबे दौर ने न केवल आधिकारिक तंत्र के दुरुपयोग का अवसर दिया है, बल्कि पार्टियों को भारी खर्च का मौका भी दिया है. कोविड नियमों को ताक पर रखकर ताकतवर नेताओं को बड़ी भीड़ को संबोधित करते और रोड शो करते हुए चुनाव आयोग बेबस होकर देख रहा है. चुनाव वाले राज्यों में संक्रमितों की संख्या में लगभग 400 फीसदी की बढ़त हुई है़ चुनाव आयोग के पतन का सबसे बड़ा कारण इसके नेतृत्व का चयन है.

अभी मुख्य आयुक्त पद से सेवानिवृत्त हुए सुनील अरोड़ा राजस्थान काडर से हैं और एयर इंडिया के प्रमुख रह चुके हैं. उन्होंने दो मुख्यमंत्रियों के अधीन काम किया है. वे सूचना सचिव पद से सेवानिवृत्त हुए थे और बाद में उन्हें प्रसार भारती का सलाहकार बनाया गया था. कुछ माह बाद 2016 में उन्हें इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ कॉरपोरेट अफेयर्स का प्रमुख बना दिया गया.

अरोड़ा उन चुनींदा बाबुओं में हैं, जिन्हें सेवानिवृत्ति से वापस बुलाकर चुनाव आयोग में नियुक्त कर दिया गया. उन्हीं के अधीन 2019 के आम चुनाव समेत कई विधानसभाओं के चुनाव हुए. तीन साल से कम के उनके कार्यकाल में ही चुनाव आयोग की साख को सबसे अधिक बट्टा लगा.

टीएन शेषन और सुनील अरोड़ा की बीच के अंतराल ने एक समय विशिष्ट रहे लोकतांत्रिक संस्था का उत्थान, उत्थान और फिर पतन का दौर देखा है. इस दौरान सेवारत रहे मुख्य चुनाव आयुक्तों ने बिना शक कई मुश्किल चुनाव संपन्न कराये तथा राजनीतिक स्थिरता की रक्षा की. लेकिन स्वच्छ चुनाव कराने और न्याय सुनिश्चित करने के चुनाव आयोग की जवाबदेही उसके अपने पतन से ही दागदार हुई है.

अपने लचर प्रदर्शन से इसने उन व्यक्तियों की साख को भी चोट पहुंचायी है, जिन्हें वह फायदा पहुंचाना चाहता है. वैसी संस्थाओं का महत्व होता है, जो व्यक्तियों के जाने बाद भी बची रहती हैं और जिनकी छवि उनकी सेवक के रूप में नहीं होती. अरोड़ा और अतीत के उनके जैसे लोगों ने अपने स्पष्ट लचर रवैये से यह साफ साबित कर दिया है कि हल्के लोगों के बोझ से ताकतवर संस्थाएं भी ढह जाती हैं. चूंकि पद से हटने के बाद आधा दर्जन मुख्य आयुक्तों को बड़े ओहदे दिये गये थे, तो शायद ऐसे लालच ने आयोग की मौजूदा बदहाली में योगदान दिया होगा. बेहतर नये भारत के लिए चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं को संविधान की पवित्रता की रक्षा करानी होगी.

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