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उम्मीद है कि लंदन में इस वर्ष के आखिर में जलवायु परिवर्तन वार्ता से पहले साझा वैश्विक प्रयासों की ठोस पृष्ठभूमि तैयार हो सकेगी. उभरती अर्थव्यवस्थाओं के नेतृत्वकर्ता के तौर पर भारत की इसमें अहम भूमिका होगी.

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मौसम की चरम स्थिति, जलवायु परिवर्तन मुद्दे पर सामूहिक विफलता, मानव निर्मित पर्यावरणीय क्षति, संक्रामक रोग और जैव विविधता हानि जैसे मुद्दे इस ग्रह के संकट को गंभीर बना रहे हैं. बीते दिनों इस आशय की विश्व आर्थिक मंच द्वारा जारी ग्लोबल रिस्क रिपोर्ट-2021 में कहा गया है कि पर्यावरणीय संकटों के कारण विश्व अर्थव्यवस्था के सामने चुनौतियां लगातार बढ़ रही हैं. विकास का हमारा मॉडल और परिवर्तन को नजरअंदाज करने की आदत पर्यावरण विनाश का कारण बन रही हैं.

देश के हर चार में से तीन जिलों में चक्रवात, बाढ़, सूखा, लू, सर्द हवाओं का प्रकोप का बढ़ रहा है. मौसमी बदलाव और प्राकृतिक आपदाएं किसी देश विशेष तक ही सीमित नहीं हैं. ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में आग, सब-सहारा अफ्रीका में सूखा, अमेरिका समेत कुछ देशों में तापमान में अत्यधिक गिरावट जैसे घटनाक्रम जलवायु परिवर्तन के गंभीर संकेत हैं.

जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव कई शहरों के अस्तित्व पर खतरे की भांति मंडरा रहा है. कोई अकेला देश इस हालात में परिवर्तन नहीं ला सकता है, इसके लिए परस्पर वैश्विक भागीदारी की आवश्यकता है. सत्ता परिवर्तन के बाद अमेरिका फिर से जलवायु परिवर्तन के समझौते में आधिकारिक तौर पर शामिल हो गया है. उम्मीद है कि लंदन में इस वर्ष के आखिर में जलवायु परिवर्तन वार्ता से पहले साझा वैश्विक प्रयासों की एक ठोस पृष्ठभूमि तैयार हो सकेगी. उभरती अर्थव्यवस्थाओं के नेतृत्वकर्ता के तौर पर भारत की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका होगी.

कार्बन टैक्स के माध्यम से कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने की कवायद अरसे से जारी है. लेकिन, यह स्थायी समाधान नहीं है. अमेरिका समेत अनेक औद्योगीकृत देशों की चिंता है कि विकासशील देश इससे फायदा उठायेंगे और उत्सर्जन में कटौती नहीं करेंगे, जबकि भारत की चिंता उत्सर्जन में असमानता को लेकर है. साल 2017 के आंकड़ों के अनुसार, भारत का प्रति व्यक्ति कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन मात्र 1.8 टन रहा, वहीं अमेरिका का 16 टन और सऊदी अरब का 19 टन दर्ज किया गया.

जलवायु परिवर्तन से कुछ क्षेत्रों में ला-नीना के कारण सर्दियां बढ़ रही हैं, तो वहीं 2021 को धरती का सबसे गर्म वर्ष रहने का अनुमान लगाया गया है. मौसमी बदलाव की बारंबारता से न केवल विश्व अर्थव्यवस्था प्रभावित हो रही है, बल्कि सामाजिक स्तर पर भी दुश्वारियां बढ़ रही हैं. शहरीकृत हो रही दुनिया में दो तिहाई उत्सर्जन मध्यम वर्ग की जरूरतों को पूरा करने की वजह से होता है, इसमें ढांचागत निर्माण कार्य, आवागमन, आवास निर्माण आदि शामिल हैं.

औद्योगीकरण और शहरीकरण के मौजूदा प्रारूपों पर गंभीरता से विचार करना होगा. साथ ही आपातकालीन तैयारियों को पुख्ता करने, संसाधनों को सुरक्षित बनाने, आपदाओं से निपटने के लिए लचीला बुनियादी ढांचा तैयार करने की जरूरत है, ताकि हम भविष्य को सुरक्षित और विकास की गति बाधा रहित बना सकें.

Posted By : Sameer Oraon

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