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समता और बंधुत्व के संदेशवाहक थे डॉ आंबेडकर

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बाबासाहब का मानना था कि जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता नहीं पा लेते, कानून द्वारा दी गयी कोई भी स्वतंत्रता आपके किसी काम नहीं आती. इसलिए सामाजिक स्वतंत्रता का कोई विकल्प
नहीं हो सकता.

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प्रखर समाज सुधारक, प्रभावशाली वक्ता, अनूठे विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री और राजनेता… जिन बाबासाहब डॉ भीमराव आंबेडकर को हम आम तौर पर संविधान के शिल्पी के तौर पर जानते हैं, इस अर्थ में ‘बहुज्ञ’ थे कि उनके व्यक्तित्व के कई दूसरे आयाम भी थे. वे प्रायः कहा करते थे कि उन्हें एकमात्र वही धर्म पसंद है, जो स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व सिखाता हो. आगे चलकर स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व संविधान की टेक बने, तो उसमें अन्य कारकों व कारणों के साथ बाबासाहब की इस पसंद की भी भूमिका थी. उनकी इस मान्यता का योगदान रहा कि समता एक कल्पना हो, तो भी उसे एक शासी निकाय के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए. दलित-वंचित तबकों को सच्चा सामाजिक न्याय उपलब्ध कराने का और कोई रास्ता है ही नहीं. जब तक उन्हें इसका रास्ता उपलब्ध कराकर बराबर का भागीदार नहीं बनाया जायेगा, देश के राजनीतिक लोकतंत्र को सार्थक नहीं बनाया जा सकता.

इसी मान्यता के मद्देनजर बाबासाहब ने दलितों का आह्वान किया था कि सामाजिक न्याय हासिल करने के लिए वे जैसे भी संभव हो, शिक्षा तो प्राप्त करें ही, संघर्ष भी करें और संगठित भी रहें. उन्होंने खुद भी बहुत कष्ट सहे, लेकिन अपनी शिक्षा को प्रभावित नहीं होने दिया. उनका व्यक्तिगत पुस्तकालय दुनिया के सबसे बड़े व्यक्तिगत पुस्तकालयों में गिना जाता था. उनके सामाजिक न्याय संबंधी विचारों को आज देश में व्यापक स्वीकृति प्राप्त है, लेकिन आजादी की लड़ाई के वक्त महात्मा गांधी तक उनसे सहमत नहीं थे. उनके मतभेद तब बहुत प्रबल हो उठे थे, जब विधायी सदनों में दलितों के लिए सीटों के आरक्षण के बजाय अलग निर्वाचक मंडल की 1917 में उठी मांग 1930 में हुई दूसरी गोलमेज कांफ्रेंस तक खासी जोर पकड़ गयी. साल 1932 में गोरी सरकार ने उसे मान लिया, तो जैसे आग में घी पड़ गया.

कारण यह कि इससे दलित अपने एक वोट से सामान्य वर्ग का प्रतिनिधि चुन सकते थे और दूसरे से अपने वर्ग का. उनके वर्ग के प्रतिनिधि केवल दलितों के वोट से चुने जाने थे, जिसमें सामान्य वर्ग की कोई भूमिका नहीं रह जानी थी. बाबासाहब अलग निर्वाचक मंडल की मांग स्वीकार होने को दलितों को खुद अपने प्रतिनिधि चुनने की शक्ति मिलने के रूप में देखते और लोकतंत्र की पूर्ण क्षमता को साकार करने की कुंजी मानते थे, जबकि महात्मा का कहना था कि ब्रिटिश सरकार ने इस मांग को हिंदुओं में फूट डालने के लिए मान लिया है. उनका यह भी मानना था कि किसी शोषणकारी व्यवस्था को तभी सुधारा जा सकता है, जब शोषक का विचार बदल दिया जाये और दलितों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल से इस उद्देश्य की पूर्ति नहीं होने वाली.

बाबासाहब का मानना था कि जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता नहीं पा लेते, कानून द्वारा दी गयी कोई भी स्वतंत्रता आपके किसी काम नहीं आती. इसलिए सामाजिक स्वतंत्रता का कोई विकल्प नहीं हो सकता. महात्मा ने पहले तो दलितों के लिए अलग निर्वाचक मंडल की समाप्ति की मांग को लेकर तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैक्डोनाल्ड को पत्र लिखा. फिर 20 सितंबर, 1932 को आमरण अनशन आरंभ कर दिया. अंततः चार दिन बाद यरवदा जेल में उनके और बाबासाहब के बीच समझौता हुआ, जिसे पूना समझौते के नाम से जाना जाता है. इस समझौते के तहत दलितों के लिए अलग निर्वाचक मंडल की नीति त्याग दी गयी और संयुक्त निर्वाचन के तहत केंद्रीय विधायिका में दलितों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या 18 प्रतिशत और प्रांतीय विधानमंडलों में 71 से बढ़ाकर 148 कर दी गयी. फिर भी इनके बीच मतभेद बने रहे. आगे चलकर बाबासाहब कहने लगे कि उन्होंने पूना समझौता महज महात्मा की जीवन रक्षा के उद्देश्य से किया. यह जानने के बावजूद कि उनका आमरण अनशन दलितों की अलग निर्वाचक मंडल की मांग पूरी न होने देने के लिए किया जा रहा नाटक भर था.

बाबासाहब की राजनीतिक नैतिकताओं की बात करें, तो वे भी कुछ कम अनूठी नहीं हैं. एक बार जब उन्हें लगा कि संविधान से अपेक्षित उद्देश्यों की पूर्ति नहीं हो रही है, तो उन्होंने यह तक कह दिया कि वे उसको जला देना चाहते हैं. उन्होंने 19 मार्च, 1955 को राज्यसभा में कहा, ‘हमने भगवान के रहने के लिए मंदिर बनाया. लेकिन इससे पहले कि भगवान उसमें आकर रहते, एक राक्षस आकर उसमें रहने लगा. अब उस मंदिर को तोड़ देने के अलावा चारा ही क्या है?’ उनका यह विचार भी अहम है कि यदि समाधान नहीं हुआ, तो आर्थिक विषमताएं एक व्यक्ति एक वोट के रास्ते आ रही राजनीतिक समता को भी खा जायेंगी.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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