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कोरोना को लेकर भेदभाव सही नहीं

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यह सबकुछ अचानक नहीं हुआ है. यह तो हमारे समाज की जड़ों में मौजूद है. हां यह कहना बेहतर होगा कि वे सारी चीजें जो पूर्णतः अनपेक्षित थीं, अचानक से हमारे सामने आ गयी हैं.

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डॉ. ऋतु सारस्वत, समाजशास्त्री

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dr.ritusaraswat.ajm@gmail.com

कोरोना मरीज, डाॅक्टर, नर्स आदि के साथ हमारे समाज में जिस तरह का बर्ताव किया जा रहा है, उसके पीछे मानव का स्वार्थी और असंवेदनशील होना है. संवेदनशीलता बहुत कम लोगों के पास होती है. सच तो यही है कि हमें निरंतर असंवेदनशीलता सिखायी जाती है. विगत दो दशक में यह असंवेदनशीलता हमारे समाजीकरण का एक बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुकी है.

समाजीकरण सीखने की एक प्रक्रिया है. बच्चा जब जन्म लेता है तो वह सबसे पहले अपने घर से समाजीकरण की प्रक्रिया सीखता है. उसके बाद ही दूसरी जगहों से सीखता है. परिवार में ही उसे स्वार्थी और स्व-केंद्रित होना सिखाया जाता है. उसे सिखाया जाता है कि सर्वप्रथम तुम खुद से प्यार करो. माता-पिता जब बच्चों को स्वार्थी होना सिखाते हैं, तो भूल जाते हैं कि इसका खामियाजा उन्हें भी भुगतना होगा. जब हम एक स्वार्थी पीढ़ी तैयार करेंगें तो वह समाज के साथ भी वही व्यवहार करेगी जो वह अपने परिवार के साथ कर रही है. इन सारी चीजों की परख विपदा, आपदा के समय ही होती है.

अंग्रेजी की एक कविता है, जिसका सार है- एक पक्षी अपने दो बच्चों के साथ समुद्र के बीचों-बीच उड़ान भर रहा होता है. इसी बीच वह अपने पहले बच्चे से पूछता है कि क्या वह बूढ़े हो जाने के बाद उसकी देखभाल करेगा. बच्चा कहता है कि आप मेरे पिता हैं, मैं आपकी देखभाल क्यों नहीं करूंगा. इस पर वह पक्षी अपने बच्चे को चोंच मारकर समुद्र में गिरा देता है. फिर वह दूसरे बच्चे से यही प्रश्न करता है, तो वह कहता है कि मैं क्यों करूंगा आपकी देखभाल. आप जानिये, आपका काम जाने. मैं तो अपने बच्चों की देखभाल करूंगा. उसकी बात सुन पिता पक्षी उसे समुद्र पार करा देता है. इसी कविता को आज भारतीय समाज ने अपने ऊपर लागू कर लिया है.

कोरोना को लेकर लोगों के बर्ताव से आज हम बिल्कुल घबरा गये हैं कि हमारे समाज को अचानक ये क्या हो गया है. यह सबकुछ अचानक नहीं हुआ है. यह तो हमारी समाज की जड़ों में मौजूद है. हां यह कहना बेहतर होगा कि वे सारी चीजें जो पूर्णतः अनपेक्षित थीं, अचानक से हमारे सामने आ गयी हैं. दरअसल ये चीजें हमारे समाज की जड़ों में बहुत गहराई से बैठ चुकी हैं. हमारे लिए स्वयं का जीवन इतना प्रिय है कि इसमें हम सबको जोड़ ही नहीं सकते. ऐसा करनेवाले अपवाद स्वरूप हैं. और इन्हीं अपवादों से ये धरती चल रही है. उन्हीं में से एक वे डाॅक्टर हैं जिन्होंने कोरोना काल में अपनी परवाह किये बिना मुंह से सांस देकर एक मरीज की जान बचायी.

सिर्फ कोरोना को लेकर ही लोग ऐसा व्यवहार कर रहे हैं, ऐसा नहीं है. संक्रामक बीमारियों को लेकर आम भारतीय ऐसा ही व्यवहार करते हैं. चूंकि कोराना इतना ज्यादा प्रचारित व प्रसारित हो चुका है, इसलिए उससे जुड़ी बातें ज्यादा सामने आ रही हैं. आज यदि मुझे पता चल जाये कि मेरे पड़ोसी को टीबी है तो मैं उसके घर जाकर कभी भी कुछ नहीं खाऊंगी, उसके पास बिल्कुल नहीं बैठूंगी.

कोराना मरीजों को लेकर लोगों के मन में जो डर है वह समय के साथ जायेगा. आनेवाले समय में जब लोग रूटीन में देखने लगेंगे कि इससे बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ रहा है, संक्रमण खत्म होने के बाद वह व्यक्ति एकदम ठीक है, उसके परिवार के सदस्यों पर भी इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा है, तभी लोग सामान्य हो पायेंगे.

हम सभी जानते हैं कि एड्स छूने आदि से नहीं फैलता है. लेकिन यह पता चलने पर कि फलां को एड्स है, हम उससे दूरी बना लेते हैं. रेड रिबन क्लब की महिला काउंसलर ने मुझे एक घटना सुनायी थी. दो लोग एक व्यक्ति के साथ एक मीटिंग में आये थे. उनमें से एक व्यक्ति ने धीरे से बताया कि वे दोनों पंद्रह वर्षों से बहुत अच्छे दोस्त हैं, पर उसने अपने इस दोस्त को कभी नहीं बताया कि उसे एड्स है. यह सुनते ही उस व्यक्ति का दोस्त वहीं बेहोश हो गया. तो जागरूकता से कुछ नहीं बदलेगा. समय के साथ ये चीजें खत्म हो जाती हैं. एक बार मन में डर बैठ गया तो वह सहजता से नहीं निकलता है.

इस डर को दूर करने के लिए हमें अपनी तरफ से लोगों में चेतना जागृत करने का भरपूर प्रयास करना होगा. बावजूद इसके सौ में से सिर्फ पांच या छह लोगों के भीतर ही हम चेतना जागृत कर पायेंगे. कोरोना के डर को दूर करने के लिए लोगों की लगातार काउंसलिंग होते रहना भी बहुत जरूरी है. यह कहीं ना कहीं थोड़े लोगों पर ही सही, लेकिन प्रभाव जरूर डालेगी. मानव इतना ज्यादा स्वार्थी हो चुका है कि किसी भी तरह के पाठ या सीख से उसके भीतर परिवर्तन नहीं आनेवाला. वह घबराता तभी है जब उस पर विपदा आती है.

असल में हम बहुत पाश्विक प्रवृत्ति की ओर बढ़ गये हैं, अमानवीय हो गये हैं. यह बहुत चिंता वाली बात है. हमारे सामने लोग तड़प रहे होते हैं और हम वीडियो बनाते रहते हैं. इन चीजों से निपटने के लिए हमें असंवेदनशीलता के ऊपर काम करने की जरूरत है. यह एक लंबी प्रक्रिया है. हमें यह मानकर चलना चाहिए कि हमारा जीवन केवल स्वयं तक सीमित नहीं है. असल में, हमारी सोचने की प्रक्रिया पूरी तरह परिवर्तित हो गयी है. इन दिनों कोरोना को लेकर जो छुआ-छूूत हो रहा है, वह इसी का परिणाम है.

(बातचीत पर आधारित)

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