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चिकित्सा पेशे के सामने मुश्किलें

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इन दिनों भारतीय न्याय संहिता और किडनी प्रत्यारोपण के अवैध तंत्र के बारे में चर्चाएं चल रही हैं. हम थोड़ा ठहर कर यह याद करने की कोशिश करें कि हमने पिछली बार कब यह चर्चा की थी कि हमारे युवा चिकित्सक और मेडिकल के छात्र कैसी हालत में रहते हैं और किस प्रकार अपनी पढ़ाई और अपना काम करते हैं? जब ये डॉक्टर हर रोज जिंदगियां बचाते हैं, तब क्या हम उस पर खुशी जताते हैं और उनकी सराहना करते हैं? हमें यह अच्छी तरह से याद है कि कोरोना महामारी के दौरान डॉक्टरों ने कितनी शानदार भूमिका निभायी थी.

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डॉ संजना ब्रह्मवार मोहन

स्वास्थ्य सेवा के ‘व्यवसायीकरण’ को लेकर चिंताएं बढ़ती जा रही हैं. उदाहरण के लिए, किडनी प्रत्यारोपण के बारे में आये दिन खबरें आती रहती हैं. ऐसी स्थिति को संज्ञान में लेते हुए इस वर्ष चिकित्सक दिवस (एक जुलाई) को लागू हुए भारतीय न्याय संहिता में यह प्रावधान किया गया है कि लापरवाही बरतने वाले डॉक्टरों को जेल भेजा जा सकता है. नीट परीक्षा में कई गड़बड़ियों और पीजी प्रवेश परीक्षा की तारीख आगे बढ़ाने से देश का ध्यान चिकित्सा शिक्षा की ओर गया है. परीक्षा प्रक्रियाओं को दुरुस्त करने के साथ-साथ यह देखना भी जरूरी है कि और क्या-क्या किया जाना चाहिए, जिससे हमारे डॉक्टर बहुत अच्छा काम कर सकें. राजस्थान के ग्रामीण आदिवासी क्षेत्र में बुनियादी स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने के अपने एक दशक के काम के दौरान हमने बड़ी संख्या में युवा डॉक्टरों के साथ काम किया है तथा प्राथमिक स्वास्थ्य और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों के बहुत चिकित्सकों से भी हमारा संपर्क रहा है. डॉक्टरों को ग्रामीण भारत की वास्तविकताओं के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए हमने कार्यशालाएं भी आयोजित की है. इन अनुभवों के आधार पर कुछ प्राथमिकताओं को इस लेख में रेखांकित किया जा रहा है.

यह एक धारणा है कि पहले के डॉक्टर आज के चिकित्सकों की अपेक्षा कहीं अधिक जानते थे. कई लोगों को याद होगा कि किसी दौर में डॉक्टर एक ब्रीफकेस लेकर मरीज के घर आते थे और उसे देखकर वहीं दवाई दे देते थे या लिख देते थे. वे डॉक्टर अब कहीं नहीं दिखते. पहले मेडिकल कॉलेजों में पढ़ाई में बहुत मेहनत करनी पड़ती थी और शिक्षक भी पूरी तरह समर्पित होते थे. अब यह कमजोर होता जा रहा है. कार्यशालाओं में कई डॉक्टरों ने बताया कि कॉलेज में उनकी मौजूदगी का मतलब नहीं है और वे घर पर ही अधिकांश पढ़ाई करते हैं. उन्होंने अफसोस के साथ कहा कि उनके शिक्षकों के पास उनके लिए समय नहीं है. एक वरिष्ठ डॉक्टर ने एक मेडिकल छात्र को डांटा था कि उसका काम रोगी का उपचार है, उसके प्रति हमदर्दी रखना नहीं.

निजी मेडिकल कॉलेजों से आनेवाली कहानियां भी हमने सुनी हैं. वहां के छात्र धनी परिवारों से आते हैं और कक्षाओं में उनकी रुचि बहुत कम होती है. पढ़ाई के बाद उनमें से अधिकतर अपना अस्पताल खोल लेते हैं. प्रबंधन भी शिक्षकों पर छात्रों को पास कर देने के लिए दबाव बनाता है. डॉक्टरों का एक तीसरा समूह भी तेजी से बढ़ रहा है, जो चीन, रूस और अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों से पढ़कर आते हैं. भारतीय कॉलेजों में पढ़ाई की खराब गुणवत्ता के बावजूद यहां पढ़े डॉक्टरों और विदेश से पढ़कर आये डॉक्टरों में बड़ा अंतर है. रोगियों से बात करने में सूचनाओं का स्पष्ट प्रवाह नहीं होता तथा कई डॉक्टर दवाओं के बारे में बुनियादी जानकारी भी नहीं रखते. यह स्थिति ठीक नहीं है. हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि डॉक्टरों के पास जानकारी और कौशल हो तथा उनमें हमदर्दी की भावना हो.

कुछ माह पहले हमारे एक डॉक्टर को उनके एक डॉक्टर मित्र का फोन आया कि एक मरीज को मलेरिया हुआ है, उसे क्या दवा दी जाए. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में अकेले कार्यरत डॉक्टर से ऐसे सवाल की अपेक्षा की जा सकती है क्योंकि उन्हें एक ही दिन में कई तरह केजी मरीजों को देखना पड़ता है. इसी वजह से हम जैसे कई डॉक्टरों को एक समूह बनाना पड़ा है. हम अपने सवाल समूह में पोस्ट कर देते हैं या मार्गदर्शन के लिए किसी विशेषज्ञ से बात करते हैं. हम ऑनलाइन माध्यम से हर सप्ताह मिलते हैं तथा नयी जानकारियों, रोगों के अध्ययन और अन्य सवालों को साझा करते हैं.

ग्रामीण क्षेत्र के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में कार्यरत डॉक्टरों समेत शहरों में अस्पतालों में काम कर रहे चिकित्सकों से चर्चा में हमने पाया है कि किसी संदेह की स्थिति में परामर्श करने के लिए उनके पास बहुत कम मित्र या वरिष्ठ डॉक्टर उपलब्ध हैं. हमें डॉक्टरों के लिए ऐसी व्यवस्था स्थापित करनी चाहिए, जिसके माध्यम से वे अपने सवालों के जवाब पा सकें तथा नयी जानकारियों को उन्हें मुहैया कराया जा सके. जरूरी नहीं है कि ऐसी जानकारियां उन्हें दवा कंपनियों से ही मिलें. पंजीकरण के नवीनीकरण के लिए परीक्षा प्रणाली लाने की बात हो रही है. यह ठीक है, पर हमें और भी बहुत कुछ करना होगा.

हम विचार करें कि समाचार चैनलों और सोशल मीडिया पर कैसी खबरें चलती रहती हैं. इन दिनों विश्व कप जीतने और एक उद्योगपति के घर शादी की चर्चाएं हैं. अवैध किडनी प्रत्यारोपण की खबरें ध्यान खींचती हैं, पर उन घटनाओं की सुध क्यों नहीं ली जाती, जिनमें जीवन रक्षा होती है? कुछ दिन पहले हमारे एक क्लिनिक से एक महिला रोगी को 120 किलोमीटर दूर उदयपुर के एक अस्पताल में रेफर किया गया. वहां जाने में उसकी हालत और बिगड़ गयी, पर तुरंत जरूरी उपचार से उसे बचा लिया गया.

ऐसी खबरें भी प्रसारित होनी चाहिए. इसका महत्वपूर्ण प्रभाव डॉक्टरों पर भी होगा, जिनका अपने पेशे के बारे में एक नजरिया है, और समाज पर भी, जो डॉक्टरों को अपनी नजर से देखता है. इन दिनों भारतीय न्याय संहिता और किडनी प्रत्यारोपण के अवैध तंत्र के बारे में चर्चाएं चल रही हैं. हम थोड़ा ठहर कर यह याद करने की कोशिश करें कि हमने पिछली बार कब यह चर्चा की थी कि हमारे युवा चिकित्सक और मेडिकल के छात्र कैसी हालत में रहते हैं और किस प्रकार अपनी पढ़ाई और अपना काम करते हैं? जब ये डॉक्टर हर रोज जिंदगियां बचाते हैं, तब क्या हम उस पर खुशी जताते हैं और उनकी सराहना करते हैं? हमें यह अच्छी तरह से याद है कि कोरोना महामारी के दौरान डॉक्टरों ने कितनी शानदार भूमिका निभायी थी.

हमें ऐसी कहानियों को निरंतर कहते रहना होगा. इनकी अनुपस्थिति और नकारात्मक कहानियों की सतत उपस्थिति से एक क्षोभ पैदा होता है, जो खतरनाक हो सकता है. कुछ साल पहले मध्य राजस्थान के एक अस्पताल में प्रसव के दौरान एक महिला की मृत्यु हो गयी थी. मीडिया और परिजनों की प्रतिक्रिया स्वाभाविक ही थी. लेकिन जो दुखद त्रासदी उसके बाद हुई, वह अपेक्षित नहीं थी. जो डॉक्टर उस महिला का उपचार कर रही थी, वह तनाव को बर्दाश्त नहीं कर पायी और उसने अपनी जान ले ली. आज जो स्थिति है, उसे चेतावनी के रूप में लिया जाना चाहिए. स्वास्थ्य सेवा को बेहतर बनाने के अपने प्रयास में हमें चुनौतियों को टुकड़ों में नहीं, उनकी समग्रता में देखना चाहिए.
(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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