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कांग्रेस में नेताओं के पलायन का संकट

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कांग्रेस का नेतृत्व भी बिखरा हुआ है और उसके पास उत्तरदायित्व के भाव का अभाव है. मल्लिकार्जुन खरगे अध्यक्ष हैं, पर पार्टी की कमान गांधी-नेहरू परिवार के हाथ में है और सोनिया गांधी, राहुल गांधी एवं प्रियंका गांधी किसी महत्वपूर्ण पद पर नहीं हैं. खरगे हर निर्णय के लिए गांधी-नेहरू परिवार की ओर देखते हैं.

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जिस प्रकार से कांग्रेस से नेताओं का पलायन हो रहा है, उससे कांग्रेस और समूचे विपक्ष पर एक गंभीर मनोवैज्ञानिक दबाव पड़ रहा है. वैसे पिछले कुछ वर्षों से यह सिलसिला चल रहा है, पर अभी आम चुनाव के ठीक पहले बड़े नेताओं और उनके समर्थकों द्वारा पार्टी छोड़ना कांग्रेस के लिए बड़ा झटका है. अगर हम सत्तर-अस्सी के दशक और उसके बाद के लोकसभा चुनाव देखें, तो इस बार पहली दफा ऐसा हो रहा है, जब विपक्षी खेमा पूरी तरह से बिखरा हुआ और हताश है. न तो उसमें एका है और न ही प्रधानमंत्री पद के लिए उनकी ओर से कोई घोषित उम्मीदवार है. वर्ष 1984 के चुनाव में भी, जब राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को प्रचंड बहुमत मिला था, विपक्ष में ऐसी हताशा नहीं थी और विपक्षी दलों ने पूरे दम-खम के साथ चुनाव लड़ा था. पुराने लोगों को याद होगा कि चंद्रशेखर ने 1983 में देशव्यापी पदयात्रा की थी. यह बात दीगर है कि चंद्रशेखर अपनी सीट से हार गये थे. अटल बिहारी वाजपेयी समेत भाजपा के वरिष्ठ नेता पराजित हो गये थे. बाद के चुनावों को भी देखें, तो विपक्ष का हाल आज की तरह नहीं था.

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जब पिछले साल इंडिया गठबंधन की कवायद शुरू हुई थी, तभी घटक दलों द्वारा संयोजक का चयन हो जाना चाहिए था और मुद्दों पर सहमति बना लेनी चाहिए थी. कांग्रेस पार्टी तब राज्यों में, विशेषकर उत्तर भारत में, अपनी जीत को लेकर आश्वस्त थी और उसे लग रहा था कि विधानसभा चुनाव में उसकी जीत से गठबंधन में उसकी ताकत बढ़ जायेगी. इसलिए देरी की गयी, लेकिन नतीजे उनकी उम्मीद के अनुसार नहीं आये और राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा जीत गयी. गठबंधन में जो समितियां बनीं, वह भी कारगर सिद्ध नहीं हो सकी हैं. इन समितियों में घटक दलों के वरिष्ठ नेता खुद नहीं शामिल हुए और अपने प्रतिनिधियों को इनमें सदस्य बनाया. विपक्षी खेमे में सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस है, पर वही कमजोर कड़ी साबित हो रही है. कांग्रेस के नेतृत्व में क्षमता का अभाव भी साफ नजर आता है. अभी मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ और कुछ नेताओं के कांग्रेस छोड़ने की चर्चा चल रही है. कमलनाथ की शिकायत यह है कि पार्टी नेतृत्व उन्हें सक्रिय नहीं कर रहा है या उनकी ओर ध्यान नहीं दे रहा है. उन्हें यह भी लगता है कि देश में अभी जो बहुसंख्यकवाद की राजनीति का बोलबाला है, उसमें कांग्रेस अपनी कोई छवि नहीं बना पायी है. यही कमलनाथ थे, जिन्हें कांग्रेस नेतृत्व ने विधानसभा चुनाव में पूरी छूट दे दी थी. जब 2018 में वह मुख्यमंत्री बनाये गये थे, तब राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष थे. उन्होंने ज्योतिरादित्य सिंधिया को न चुन कर कमलनाथ को तरजीह दी थी. सिंधिया पहले ही भाजपा में जा चुके हैं. ऐसे नेताओं के पार्टी छोड़ने पर चाहे जो आलोचना की जाए, पर ऐसी घटनाओं से कांग्रेस नेतृत्व के बारे में भी पता चलता है.

साल 2014 के चुनाव में राहुल गांधी ने अशोक चव्हाण की छवि के कारण उम्मीदवार बनाने से मना किया था. बाद में वह चुनाव लड़े, जीते और उद्धव ठाकरे की सरकार में मंत्री भी बने. उनकी शिकायत यह रही थी कि महाराष्ट्र कांग्रेस के अध्यक्ष नाना पटोले भाजपा की पृष्ठभूमि से आते हैं. अब चव्हाण खुद भाजपा में चले गये हैं. इसी तरह कमलनाथ सिंधिया पर पार्टी से गद्दारी करने और विचारधारा के अभाव का आरोप लगाया करते थे. साल 2014 से अब तक कांग्रेस के 15 पूर्व मुख्यमंत्री पार्टी छोड़ चुके हैं, जिनमें से 12-13 भाजपा में शामिल हुए हैं. यह कांग्रेस के लिए आत्ममंथन का एक गंभीर विषय है. दशकों से पार्टी में रहे वरिष्ठ नेताओं के जाने पर भले यह कहा जाए कि ऐसे निर्णयों के पीछे राजनीतिक स्वार्थ है या जांच एजेंसियों का डर है, और ऐसी बातें सच भी हों, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आखिर ऐसे लोग पार्टी छोड़ कर क्यों जा रहे हैं. एक दिन में ऐसे फैसले नहीं लिये जाते हैं, इसलिए यह सवाल भी उठता है कि उन्हें रोकने का प्रयास क्यों नहीं किया जाता.
असल में कांग्रेस का नेतृत्व भी बिखरा हुआ है और उसके पास उत्तरदायित्व के भाव का अभाव है. मल्लिकार्जुन खरगे अध्यक्ष हैं, पर पार्टी की कमान गांधी-नेहरू परिवार के हाथ में है और सोनिया गांधी, राहुल गांधी एवं प्रियंका गांधी किसी महत्वपूर्ण पद पर नहीं हैं. खरगे हर निर्णय के लिए गांधी-नेहरू परिवार की ओर देखते हैं. इस कारण से पार्टी के अंदर और गठबंधन में फैसलों में देरी हो रही है. पार्टी के प्रमुख के पास अधिकार होने जरूरी हैं, अन्यथा पार्टी को नुकसान उठाना पड़ता है. कांग्रेस के साथ यही हो रहा है. किसी भी दल की विचारधारा होती है, जिसे भारतीय संदर्भ में समय-समय पर अपडेट करना होता है. राहुल गांधी अपने सलाहकारों और रणनीतिकारों के कहने पर बड़े निर्णय कर लेते हैं, पर विभिन्न मुद्दों पर पार्टी के भीतर क्या राय है, इसके बारे में वे नहीं सोचते. अगर हम महात्मा गांधी और पंडित नेहरू जैसे नेताओं को देखें, तो उनकी एक सोच थी, जिसका व्यापक प्रभाव जनमानस पर पड़ा और वह सोच राष्ट्रीय सोच बन गयी. दूसरी ओर हम नरेंद्र मोदी का उदाहरण ले सकते हैं, जिन्होंने लोगों की भावनाओं को अमली जामा पहनाया और बड़ा समर्थन हासिल किया. अगर वे कोई गलत फैसला भी करते हैं, तो जनता उनके साथ खड़ी होती है. राहुल गांधी पंडित नेहरू या प्रधानमंत्री मोदी की कार्यशैली का अनुकरण नहीं कर रहे हैं. वे अपने नेतृत्व या निर्णय का राजनीतिक उत्तरदायित्व नहीं लेना चाहते.

राजनीतिक दलों में उतार-चढ़ाव का दौर आता रहता है. जब कोई पार्टी संघर्ष और संकट से गुजर रही होती है, तो फूट पड़ना स्वाभाविक है. ऐसा वाम दलों में हो चुका है, कांग्रेस में हो चुका है, अनेक क्षेत्रीय दलों में हो चुका है, लेकिन 2014 के बाद विचित्र स्थिति हुई है कि कांग्रेस से टूट कर कोई दल नहीं बना है और न ही बड़ी संख्या में एक साथ नेताओं का पलायन हुआ है, लेकिन एक-दो करके जिन नेताओं ने पार्टी छोड़ी है, उनकी संख्या पचास से अधिक हो चुकी है. यह क्रमिक क्षरण कांग्रेस के लिए बेहद चिंताजनक है. ऐसा लग रहा है कि बहुत से कांग्रेसी नेता भाजपा की नाव में सवारी करने के लिए तैयार बैठे हुए हैं. ऐसी स्थिति में कांग्रेस नेतृत्व को आंतरिक रूप से संवादहीनता के माहौल को समाप्त करना चाहिए तथा नेतृत्व को अधिक उत्तरदायी होना चाहिए.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
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