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घातक हो रहा है विदेशों में पढ़ाई का क्रेज

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विदेशों में जाने वाले अधिकांश विद्यार्थी वास्तव में कोई उच्च स्तरीय डिग्री प्राप्त करने नहीं, बल्कि वहां रोजगार प्राप्त करने के इरादे से जाते हैं, लेकिन भारतीय युवा यह समझने के लिए तैयार नहीं हैं कि इन देशों में भी रोजगार की भारी कमी है.

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पिछले कुछ वर्षों से भारत से विदेशों में जाकर शिक्षा प्राप्त कर वहीं बसने की आकांक्षा का चलन बढ़ता जा रहा है. केंद्र सरकार के अनुसार, वर्ष 2016 और 2021 के बीच 26.44 लाख भारतीय विद्यार्थी विदेशों में पढ़ने के लिए गये. भारतीय उद्योग और वाणिज्य मंडल (एसोचैम) का अनुमान है कि वर्ष 2020 में 4.5 लाख भारतीय विद्यार्थी विदेशों में पढ़ने गये और उन्होंने 13.5 अरब डॉलर खर्च किये. वर्ष 2022 में यह खर्च 24 अरब डॉलर, यानी लगभग दो लाख करोड़ रुपये रहा. रेडसियर स्ट्रैटेजी कंसल्टेंट नामक कंसल्टेंसी एजेंसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2024 तक यह खर्च 80 अरब डॉलर, यानी सात लाख करोड़ रुपये तक पहुंच सकता है, जब अनुमानित 20 लाख भारतीय विद्यार्थी विदेश पढ़ने जायेंगे. केंद्रीय विदेश राज्य मंत्री वी मुरलीधरन ने 25 मार्च, 2022 को लोकसभा को सूचित किया कि वर्तमान में 13 लाख भारतीय छात्र विदेशों में पढ़ रहे हैं. यह संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. सरकार के अनुसार, वर्ष 2021 में 4.44 लाख विद्यार्थी विदेशों में पढ़ने गये. एक अन्य सरकारी वक्तव्य के अनुसार, पिछले वर्ष नवंबर तक विदेशों में पढ़ने जाने वाले छात्रों की संख्या 45 प्रतिशत बढ़कर 6.46 लाख हो गयी थी.

राज्यवार ब्यौरे के हिसाब से 2021 तक विदेशों में पढ़ने जाने वाले विद्यार्थियों में 12 प्रतिशत पंजाब से, 12 प्रतिशत आंध्र प्रदेश से और आठ प्रतिशत गुजरात से थे. प्रदेशों में युवाओं की कुल संख्या के हिसाब से पंजाब से प्रति हजार में सात युवा, आंध्र प्रदेश से चार, और गुजरात से कम-से-कम दो युवा हर साल विदेशों में पढ़ने जा रहे हैं. पढ़ाई के लिए विदेश जाने वाले छात्रों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि चिंता का विषय है. सबसे ज्यादा चिंता इस बात की है कि इससे देश के समक्ष युवा शक्ति के पलायन की समस्या बढ़ रही है. इससे उद्योग-धंधों के लिए श्रम शक्ति की कमी की समस्या भी आ सकती है. इसके अलावा, देश की बहुमूल्य विदेशी मुद्रा विदेशों में जा रही है. एक समय था, जब विदेशों में रह रहे भारतीयों के माध्यम से पंजाब के गांवों में बड़ी मात्रा में विदेशों से धन आता था. लेकिन, विदेशों में पढ़ाई के इस चलन के कारण यह प्रक्रिया उल्टी हो गयी है. ऐसे में जब वर्ष 2024 तक विदेशों में पढ़ने जाने वाले विद्यार्थियों की संख्या 20 लाख, और उनके द्वारा खर्च की जाने वाली राशि 80 अरब डॉलर पहुंच जायेगी, तो यह अत्यंत संकटकारी स्थिति होगी.

गौरतलब है कि विद्यार्थियों का विदेशों में पलायन देश में शिक्षा सुविधाओं की कमी की वजह से नहीं हो रहा. वास्तव में, देश में पिछले दो-तीन दशकों में शिक्षा के क्षेत्र में भारी प्रगति हुई है. यदि उच्च शिक्षा में विद्यार्थियों का प्रवेश देखें तो 1990-91 में जहां मात्र 49.2 लाख विद्याार्थियों ने उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश लिया, वहीं यह संख्या वर्ष 2020-21 में 4.14 करोड़ तक पहुंच गयी. मोटे तौर पर उच्च शिक्षा में प्रवेश लेने वाले विद्यार्थियों की संख्या पिछले 30 वर्षों में 10 गुना से भी ज्यादा हो चुकी है. यदि उच्च शिक्षण संस्थानों की बात की जाए, तो 2021 में देश में 1,113 विश्वविद्यालय और समकक्ष संस्थान, 43,796 महाविद्यालय और 11,296 अन्य स्वतंत्र संस्थान थे. इसी वर्ष देश में उच्च शिक्षा संस्थानों में 15.51 लाख शिक्षक कार्यरत थे. देश में कई विश्वविद्यालय केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं, और कई अन्य राज्य स्तरीय विश्वविद्यालय हैं. इसके अलावा बड़ी संख्या में निजी विश्वविद्यालय हैं, और कई ‘विश्वविद्यालय सम’, यानी ‘डीम्ड विश्वविद्यालय’ हैं. देश में कई विश्वस्तरीय प्रबंधन एवं इंजीनियरिंग संस्थान हैं जहां से शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थी वैश्विक कंपनियों में उच्च पदों पर आसीन हैं.

पढ़ाई के खर्च के मामले में अधिकांश भारतीय शिक्षण संस्थानों में फीस विदेशी संस्थानों से कहीं कम है. साथ ही, जिन विदेशी संस्थानों में भारतीय युवा प्रवेश ले रहे हैं, उनमें से अधिकांश स्तरीय नहीं हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि भारी-भरकम राशि खर्च कर भारत के युवा विदेशी शिक्षा संस्थानों में प्रवेश क्यों लेते हैं? इसका सीधा उत्तर यह है कि विदेशों में जाने वाले अधिकांश विद्यार्थी वास्तव में कोई उच्च स्तरीय डिग्री प्राप्त करने नहीं, बल्कि वहां रोजगार प्राप्त करने के इरादे से जाते हैं. लेकिन भारतीय युवा यह समझने के लिए तैयार नहीं हैं कि इन देशों में भी रोजगार की भारी कमी है.

कई देशों में भारतीय एवं अन्य देशों से आने वाले युवाओं के खिलाफ हिंसा की वारदातें भी देखने को मिल रही हैं. देश से जाने वाले अधिकांश युवा विद्यार्थी वहां रोजगार प्राप्त करने में असफल हो रहे हैं और उन्हें लौटना पड़ रहा है. इससे वे भारी कुंठा का भी शिकार हो रहे हैं. दरअसल, ये युवा विद्यार्थी पूर्व में विदेशों में जाने वाले भारतीयों की सफलता की गाथाओं से प्रभावित होकर विदेशों की ओर रुख कर रहे हैं. लेकिन वे यह समझ नहीं पा रहे हैं कि आज कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और यूरोपीय देशों के शिक्षा संस्थान मात्र अपने अस्तित्व को बचाने हेतु भारतीय विद्यार्थियों को आसानी से प्रवेश दे रहे हैं. भारतीय और अन्य देशों के विद्यार्थियों से भारी फीस ऐंठने हेतु शिक्षा की कई दुकानें भी खुल रही हैं, जिनका वास्तविक शिक्षा से कोई सरोकार नहीं है. ऐसे में विदेशों में शिक्षा प्राप्त करने के इच्छुक युवाओं को वास्तविकता से अवगत कराने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को विशेष प्रयास करने की जरूरत है, ताकि वे विदेशों में जाकर अपने माता-पिता की गाढ़ी कमाई को यूं ही ना गंवा दें.

गौरतलब है कि पिछले लगभग दो दशकों में भारत के कई नागरिक एजेंटों के माध्यम से विदेशों में, खास तौर पर खाड़ी के देशों में रोजगार की तलाश में गये, और वहां जाकर उन्हें कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ा. उनके सामने एक प्रमुख समस्या यह थी कि ये एजेंट इन युवाओं के पासपोर्ट तक कब्जे में ले लेते थे और उनका शोषण भी किया जाता था. उन्हें अत्यंत अमानवीय परिस्थितियों में भी रहना पड़ता था. ऐसे में भारत सरकार द्वारा विविध प्रकार के प्रयास किये गये. सरकार ने एजेंटों के पंजीकरण को अनिवार्य कर दिया और विदेशों में जाने वाले भारतीयों के हित संरक्षण के लिए भी विभिन्न प्रकार के प्रयास किये. विदेशों में रोजगार के इसी तर्ज पर विदेशों में शिक्षा के नाम पर ठगे जा रहे देश के अनभिज्ञ युवाओं को बचाने के लिए भी सरकार को प्रयास करने चाहिए. इसके साथ ही, समाज के प्रबुद्ध वर्ग को भी छात्रों और समाज को जागरूक बनाने के लिए आगे आना चाहिए.
 (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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