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दुष्कर्म की जांच के तरीके पर कोर्ट का फैसला उचित

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आश्चर्य यह भी है कि अब तक किसी सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया. यह मान कैसे लिया गया कि बलात्कार जैसे अपराध को प्रमाणित करने के लिए स्त्री को इस बात का सर्टिफिकेट भी लेना होगा कि बलात्कार से पहले उसके किसी से संबंध नहीं रहे.

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हाल में सुप्रीम कोर्ट ने बलात्कार की जांच के संबंध में किये जाने वाले टू फिंगर टेस्ट पर रोक लगा दी. यह जांच एक तरह से स्त्री की यौन शुचिता से जुड़ी है. वह संभोग की आदी है या नहीं, यह देखा जाता है. इसमें छिपी हुई एक बात यह भी है कि किसी शादीशुदा औरत के बारे में मान लिया जाता है कि उसका बलात्कार हो ही नहीं सकता. कुंआरेपन को जांचने के लिए ऐसा टेस्ट किया जाता है, जिसमें स्त्री की योनि के अंदर की झिल्ली टूटी है या नहीं, इसकी जांच की जाती है.

अफसोस है कि आज के दौर में जब स्त्रियां बड़ी संख्या में बाहर निकलती हैं, खेलती-कूदती हैं, ट्रक और हवाई जहाज चलाती हैं, उनसे उनके कुंआरेपन के बारे में जानने के लिए ऐसी पुरुषवादी सोच को आगे रखने वाली जांच की जाए. न्यायालय ने कहा भी कि ऐसी जांच का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है. दरअसल, यह पीड़िता को सताने और प्रताड़ित करने का एक और तरीका है. इसे हर्गिज नहीं किया जाना चाहिए.

एक शादीशुदा स्त्री का बलात्कार नहीं हो सकता, यह बात सत्य से परे है. सुप्रीम कोर्ट ने तेलंगाना हाइकोर्ट के उस फैसले को पलट दिया, जिसमें सत्र न्यायालय के फैसले के विरुद्ध जा कर दुष्कर्म के दोषियों को रिहा कर दिया गया था, जबकि सत्र अदालत ने उन्हें दोषी माना था. सुप्रीम कोर्ट ने इस केस के अभियुक्तों को दोषी करार देते हुए उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनायी.

किसी स्त्री की निजता का हनन और उसके शरीर के बारे में ऐसे निर्णय करने का अधिकार किसी को नहीं है. यह एक प्रकार से दूसरा बलात्कार है. अदालत ने इस टेस्ट को पितृसत्ता का प्रतीक बताते हुए बेहद सेक्सिस्ट भी कहा. यह भी कहा कि मान लीजिए, एक स्त्री अगर संभोग की आदी है भी, तो उसका बलात्कार नहीं हुआ होगा या नहीं हो सकता है, इसे कैसे माना जा सकता है. पहले के अनेक फैसलों में सुप्रीम कोर्ट इस जांच की आलोचना कर चुका है.

अदालत ने स्वास्थ्य मंत्रालय को यह निर्देश भी दिया कि वह स्वास्थ्यकर्मियों को इस बारे में जागरूक करे. बलात्कार की जांच के वैज्ञानिक तरीकों को बताया जाए और कोई भी डॉक्टर ऐसा टेस्ट न करे. चिकित्सा की पढ़ाई के पाठ्यक्रम से भी जांच के इस तरीके को हटाया जाए. सामाजिक कार्यकर्ता और डॉक्टर इंद्रजीत खांडेकर ने बंबई उच्च न्यायालय में 2010 में एक जनहित याचिका दायर की थी, जिसमें जांच के इस तरीके पर रोक लगाने की मांग की गयी थी. सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय पर खांडेकर का कहना है कि पहली बार अदालत ने ऐसे टेस्ट पर रोक लगायी है.

उम्मीद है कि अब इस पर रोक लग जायेगी क्योंकि यह जांच न केवल अवैज्ञानिक है, अमानवीय, अपमानजनक और स्त्री की गरिमा के विरुद्ध भी है. किसी को यह जांच का हक नहीं होना चाहिए कि बलात्कार पीड़िता कुंआरी है या नहीं. समाज की जो स्थिति है, उसमें डॉक्टर की एक रिपोर्ट मात्र से हो सकता है कि किसी स्त्री का जीवन बर्बाद हो जाए. जांच बलात्कार की हो रही है या स्त्री के कथित चरित्र की?

आश्चर्य यह भी है कि अब तक किसी सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया. यह मान कैसे लिया गया कि बलात्कार जैसे अपराध को प्रमाणित करने के लिए स्त्री को इस बात का सर्टिफिकेट भी लेना होगा कि बलात्कार से पहले उसके किसी से संबंध नहीं रहे. शादीशुदा होने की स्थिति में तो मान ही लिया गया कि ऐसी स्त्री का बलात्कार नहीं हो सकता क्योंकि वह संभोग की आदी होती है. जबकि आये दिन ऐसी खबरें आती हैं कि पति साथ था, फिर भी गुंडे उसकी स्त्री को उठा कर ले गये.

स्त्री की यौन शुचिता से इतना लगाव क्यों है? यह लगाव सिर्फ अपने ही यहां नहीं, ब्रिटेन के राजघराने तक में पाया जाता था. अफ्रीका के कई देशों में स्त्री की योनि के आसपास ऐसे छल्ले पहना दिये जाते हैं, जिससे वह शादी से पहले किसी के साथ संबंध न बना सके. हमारे देश में कई जगह पर ऐसी प्रथाएं प्रचलित हैं, जहां पहली रात के बाद स्त्री को खून सना कपड़ा ससुराल वालों को दिखाना पड़ता है ताकि उसका कुंआरापन प्रमाणित हो सके. इन दिनों ऐसे ऑपरेशन की बाढ़ आयी हुई है, जिनमें शादी से पहले लड़कियां चिकित्सक से जाकर अपनी योनि की झिल्ली जुड़वाती हैं यानी दिमाग में यही रहता है कि पति के सामने उनका कुंआरापन प्रमाणित हो सके.

कुआंरेपन की महानता का गान हमारे देश से जाता क्यों नहीं! किसी पुरुष को तो इसे प्रमाणित नहीं करना पड़ता. हां, बलात्कार पीड़िता के बारे में जैसे ही यह खबर मिलती है कि वह संभोग की आदी रही है, अपराधी और उसके शुभचिंतकों की बांछें खिल जाती हैं क्योंकि बचने का रास्ता निकल आता है. एक अपराध को प्रमाणित करने के मुकाबले स्त्री के कुंआरेपन को प्रमाणित करने की भला ऐसी क्या जरूरत है? इसलिए सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला बहुत ही अग्रगामी और प्रगतिशील सोच का प्रतीक है. इस तरह के स्त्री विरोधी कानूनी प्रावधानों एवं प्रशासनिक व्यवहारों की पहचान की जानी चाहिए तथा उनसे जल्दी से जल्दी छुटकारा पाना चाहिए. (ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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