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‘क’ से कोरोना नहीं, ‘क’ से करुणा

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अपनी रोज की चिर-परिचित दुनिया अपनी ही आंखों से बदली हुई, बदलती हुई दिखायी दे रही है. कल तक जो शक्ति के घमंड में मगरूर थे, आज शक्तिहीन याचक से अधिक व अलग कुछ भी बचे नहीं हैं. बच रहे हैं तो सिर्फ आंकड़े- मरने के और मरने से अब तक बचे रहने के. कोई हाथ जोड़ कर माफी मांग रहा है, जबकि उसकी सूरत व सीरत से माफी का कोई मेल बैठता नहीं है.

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कुमार प्रशांत

गांधीवादी विचारक
k.prashantji@gmail.com

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अपनी रोज की चिर-परिचित दुनिया अपनी ही आंखों से बदली हुई, बदलती हुई दिखायी दे रही है. कल तक जो शक्ति के घमंड में मगरूर थे, आज शक्तिहीन याचक से अधिक व अलग कुछ भी बचे नहीं हैं. बच रहे हैं तो सिर्फ आंकड़े- मरने के और मरने से अब तक बचे रहने के. कोई हाथ जोड़ कर माफी मांग रहा है, जबकि उसकी सूरत व सीरत से माफी का कोई मेल बैठता नहीं है.

असहाय व मौत सामने देखकर कितने ही हैं, जो महानगरों से भाग चले हैं बिना यह जाने कि वे एक मौत से निकलकर, दूसरों की मौत लिये दूसरी मौत के मुंह में ही जा रहे हैं. और, शक्ति की ऊंची कुर्सी पर बैठा कोई उनसे कह रहा है कि अाप मेरा शहर छोड़ कर मत जाइए. हम अापके लिए खाने-पानी और निवास की व्यवस्था करेंगे. जनाब, यदि आपने यह पहले ही कहा होता, किया होता, तो अाज इतने कातर बनने की नौबत ही क्यों अाती. पद की ताकत का नशा उतरता है, तो सब कुछ इतना ही खोखला और कातर हो जाता है.

अाप देखिये न, दुनिया के पहले और दूसरे नंबर की इकोनॉमी होने का दावा करनेवालों के चेहरे पर हवाई उड़ रही है. कोरोना का मुखौटा लगाकर मौत ने सबसे गहरा वार उन देशों पर किया है, जो अाधुिनक सभ्यता व विकास के सिरमौर बने फिरते थे. अब सब कुछ लॉकडाउन है. ऐसी दुनिया पहले कब देखी थी हमने? कभी दादी-नानी बहुत याद कर बताती थीं कि कैसे उनके गांव में हैजा, प्लेग फैला था और फिर कैसे गांव ही नहीं बचा था, कैसे एक दिन बैलगाड़ी पर लाद कर अपने गांव से वे सब कहीं निकल गये थे, जो जिंदा बचे थे.

लंबे समय बाद जब नाना-दादा कोई अपना गांव-घर देखने गये थे, तो उन्हें वहां अपना पूरा गांव वैसा ही खड़ा मिला था, जैसा छोड़कर वे गये थे. इससे मेरी समझ में यह बात अायी कि जहां आदमी नहीं होता है, वहां कुछ भी खराब या बर्बाद नहीं होता है. मैंने यह कहा भी. यादों को समेटती दादी-नानी ने मुझे काटा नहीं, बस इतना कहा कि आदमी नहीं है जहां, वहां घर-मकान हो सकते हैं, जिंदगी कहां होती है. वे कहती थीं कि गांव में कहीं कोई कुत्ता या चिड़िया भी दादा-नाना को नहीं दिखा था. तो, कोरोना पहला नहीं है, जो आदमी को जीतने या आदमी को हराने आया है.

बात कुछ यूं भी समझी जा सकती है कि सृष्टि के अस्तित्व में अाने के बहुत-बहुत बाद आदमी का अस्तित्व संभव हुअा था. यह प्राणी दूसरे प्राणियों से एकदम अलग था. यह रहने नहीं, जीतने अाया था. इसे साथ रहना नहीं, काबू करना था. लेकिन सारे दूसरे प्राणी, वायरस या विषाणु आदि कैसे समर्पण कर देते! सारी सृष्टि अासानी से आदमी के काबू में नहीं अायी. जब जिसे, जहां मौका मिला, उसने आदमी पर हमला किया.

अाप याद करें, तो पिछले ही कुछ वर्षों में कितने ही विषाणुअों के हमले हो चुके हैं. कितनी ही महामारियों ने इसे गंदे दाग की तरह धरती से साफ करना चाहा. प्रकृति ने इसे हर तरह की प्रतिकूलता में डाला. इसने हर तरह की लड़ाई लड़कर अपना अस्तित्व बचाया. हर जीत के साथ इसे लगने लगा कि अब सारा कुछ उसकी मुट्ठी में है. तभी कोरोना ने हमला कर दिया. यह उसी लड़ाई का नया मोर्चा है. अमेरिका में रह रहे किसी भारतीय डॉक्टर ने कहा कि हम हरा तो इसे भी देंगे, भले इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़े. यह जीतने और हराने की भाषा ही हमारी आदि भाषा है. यह सबसे बड़ा विषाणु है. इसे बदलना होगा.

जीतना और हराना नहीं, छीनना और फिर दया करना नहीं. हम सीखें करुणा. सबके प्रति, प्रकृति के छोटे-बड़े हर घटक के प्रति करुणा. दया नहीं, उपकृत करना नहीं, अभय देना नहीं. करुणा से जीना. दया सक्रिय होती है, तो करुणा में बदल जाती है. जब गांधी कहते हैं कि प्रकृति से हमें उतना ही लेने का अधिकार है, जितना कम-से-कम पर्याप्त है, तब वे हमें करुणा की भूमिका में जीने की बात कहते हैं. और, फिर यह भी कहते हैं कि वह जो अावश्यक अल्पतम लिया, वह भी प्रकृति को वापस करना है, यह याद रखना है. यह सर्वग्रासी सभ्यता लोभ और हिंसा की प्रेरणा से चलती है. सबसे बड़ा, सबसे ज्यादा, सबसे ताकतवर जैसे प्रतिमान करुणा को काटते हैं. सबके बराबर, सबके लिए और सबके साथ जीना सीखना करुणा की पहली सीढ़ी और अंतिम मंजिल है. मनुष्य को सीखना होगा कि जरूरत भर उत्पादन होगा, जरूरतें बढ़ाने के लिए नहीं होगा.

अाज के विकास से मालामाल कोई काइयां पूछेगा: दुनिया की इतनी बड़ी आबादी की भूख अापकी करुणा से तो नहीं मिटेगी? जवाब इतना ही है कि इतनी बड़ी आबादी को लोभ व हिंसा से विरत कर दो, तो इंसानी जरूरत कितनी थोड़ी-सी बचती है! गांधी कहते हैं- प्रकृति हममें से एक का भी लालच पूरा नहीं कर सकती है, लेकिन जरूरत पूरा करने से वह कभी चूकेगी नहीं.

तो बदलना क्या है? अपना प्रतिमान. कोरोना से ग्रसित यह समाज कह रहा है कि इससे बचकर निकलना है, तो वह करुणा के सहारे ही संभव है.

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