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COP29 : जलवायु संकट का समाधान जरूरी

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COP29 : अजरबैजान में संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन, यानी कॉप 29 चल रहा है. जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए यह सबसे महत्वपूर्ण बैठक है. वर्ष 2016 के अंत में जब पेरिस सहमति प्रभावी हुई थी, तब ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेंटिग्रेड पर बनाये रखने के लिए 2030 तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 43 फीसदी की कटौती आवश्यक थी.

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-असीम श्रीवास्तव-

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COP29 : कृपया महाशय, क्या मुझे थोड़ा और मिलेगा? यह चार्ल्स डिकेंस के उपन्यास ‘ओलिवर ट्विस्ट’ का एक अंश है, जिसमें औद्योगिक ब्रिटेन में गरीब अनाथ बच्चों के साथ अमीरों द्वारा बरती गयी क्रूरता का चित्रण है. जब जीवाश्म ईंधन की बात आती है, तो आज के विकसित देश पर्यावरणीय प्राधिकरणों से वही वाक्य कहते नजर आते हैं. फर्क सिर्फ इतना है कि आज के सभ्य नेताओं और देशों की तुलना में डिकेंस का नायक ओलिवर ट्विस्ट गरीब था. जलवायु में कितना बदलाव आया है, इसका एक उदाहरण देखिए. आप एक ऐसी दीवार के साथ खड़े होइए, जिसमें धातु की एक छोटी प्लेट लगी हो. आपको उस प्लेट पर हाथ रखने के लिए कहा जायेगा, तो आप तुरंत ही हाथ हटा लेंगे, क्योंकि आप पायेंगे कि वह प्लेट आपके शरीर से ज्यादा गर्म है. हमारे शरीर का तापमान जल्दी बढ़ता है.

अजरबैजान में जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए बैठक

अजरबैजान में संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन, यानी कॉप 29 चल रहा है. जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए यह सबसे महत्वपूर्ण बैठक है. वर्ष 2016 के अंत में जब पेरिस सहमति प्रभावी हुई थी, तब ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेंटिग्रेड पर बनाये रखने के लिए 2030 तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 43 फीसदी की कटौती आवश्यक थी. वर्ष 2016 में वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन 48 गीगा टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर था. ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री पर बनाये रखने के लिए वर्ष 2023 में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन 38 गीगा टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर होना चाहिए था. लेकिन पिछले साल वास्तविक उत्सर्जन 50 गीगा टन से ज्यादा रहा. आगे बढ़ने से पहले दो बातें स्पष्ट करना जरूरी है. एक तो ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री तक बनाये रखना आसान नहीं है, क्योंकि अभी ग्लोबल वार्मिंग 1.1 डिग्री है. दूसरा यह कि कॉप 29 का अर्थ है कि पिछले करीब तीन दशक में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अब से पहले 28 वैश्विक सम्मेलन हो चुके हैं. जाहिर है, इन तीन दशकों में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन भी लगातार बढ़ता गया है. क्या हमें निराश होना चाहिए? हैरान होना चाहिए? स्तब्ध होना चाहिए? क्या इसे रोका नहीं जा सकता था?

तीन दशकों में भारतीय अर्थव्यवस्था मजबूत बनी

पिछले तीन दशकों से भारतीय अर्थव्यवस्था मजबूत बनी है, और इसकी जीडीपी मजबूत होती गयी है. हालांकि दूसरी तरह से देखें, तो एक बिल्कुल अलग तस्वीर नजर आती है. बाजार केंद्रित अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी त्रुटि यह है कि इसका फायदा सभी लोगों को नहीं मिलता. इसका लाभ उनको मिलता है, जिनके पास पैसा या खरीदने की शक्ति है. बाजार केंद्रित अर्थव्यवस्था उन वस्तुओं के उत्पादन को प्राथमिकता देती है, जिन्हें पैसे वाले खरीदना चाहते हैं, उन वस्तुओं को नहीं, जिनकी जरूरत देश के असंख्य लोगों को होती है. हां, ऊपरी तौर पर देखें, तो भारत में चमचमाते मॉल्स हैं, लोगों के पास महंगी कारें, स्मार्टफोन और विदेशों में छुट्टियां बिताने के अवसर हैं. लेकिन ये सारी सुविधाएं देश के शीर्ष पांच फीसदी लोगों के पास ही हैं. देश की आधी से अधिक आबादी स्वच्छ पेयजल, संतुलित पोषण, बेहतर आवास और साफ-सफाई, सुरक्षित व सम्मानित नौकरी, स्वास्थ्य सुविधा और शिक्षा हासिल करने के लिए संघर्ष कर रही है. अगर हम यह मानते हैं कि हमारे देशवासियों, खासकर गरीबों की बेहतरी वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन में वृद्धि पर निर्भर है, और हमारी सरकार तथा व्यापारी-उद्योगपति इस काम में लगे हैं, तो यह हमारा भोलापन ही कहा जायेगा.

जीडीपी में वृद्धि से गरीबी नहीं मिट सकती

सिर्फ जीडीपी में वृद्धि से गरीबी नहीं मिट सकती, हां, इससे ग्रीनहाउस उत्सर्जन जरूर बढ़ता है. बल्कि विलासिता की वस्तुओं के उत्पादन और हवाई यात्रा में वृद्धि से उत्सर्जन भी बढ़ता है और असमानता में भी वृद्धि होती है. लिहाजा जब तक हम जीडीपी वृद्धि की हमारी सोच से बाहर नहीं निकलेंगे, मनुष्य की बेहतरी का कोई दूसरा रास्ता नहीं तलाशेंगे, तब तक जलवायु संकट का समाधान करना संभव नहीं है. लगभग तीन दशकों की जलवायु बैठकों का कोई लाभ इसलिए नहीं हुआ, क्योंकि हमने जीडीपी में वृद्धि को मानव विकास का आधार मान लिया, जिससे वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने में हम विफल रहे. चूंकि ऐतिहासिक असमानता के बीच जीडीपी में वृद्धि कार्बन उत्सर्जन में वृद्धि के बगैर संभव नहीं है, ऐसे में, यह आश्चर्यजनक नहीं कि तीन दशक के वैश्विक प्रयासों के बावजूद उत्सर्जन में कमी नहीं लायी जा सकी.

जीडीपी का आंकड़ा असमानता को छिपाने का जरिया

दरअसल वस्तुओं का उत्पादन जितना आवश्यक है, हवा और पानी की निरंतर सफाई भी उतनी ही जरूरी है, जैसे कि महिलाएं परिवार का पालन-पोषण के दौरान करती हैं. लेकिन बाजार केंद्रित अर्थव्यवस्था में प्रकृति का सिर्फ शोषण करना जरूरी मान लिया गया है, उसके नुकसान की भरपाई करना जरूरी नहीं समझा जाता. जीडीपी से जुड़ा सबसे भ्रामक तथ्य है औसत. जब हम प्रति व्यक्ति जीडीपी (देश में प्रति व्यक्ति आय) की बात करते हैं, तब उसे इस तरह पेश करते हैं कि मानो यह आय सबमें बराबर-बराबर बंटी हुई है. आज देश में प्रति व्यक्ति जीडीपी 1,84,000 रुपये सालाना है. इस आधार पर पांच लोगों के परिवार की औसत आय 9,20,000 वार्षिक या 76,666 रुपये मासिक होगी. जबकि देश के 80 फीसदी परिवारों की मासिक आय 20,000 रुपये से भी कम है. यानी प्रति व्यक्ति जीडीपी का आंकड़ा दुनिया भर में व्याप्त असमानता को ढकने का जरिया है.

मनुष्यता की बेहतरी के लिए सर्वांगीण विकास आवश्यक

जिस तरह एक स्वस्थ शरीर के लिए सभी अंगों का स्वस्थ होना जरूरी है, उसी तरह मनुष्यता की बेहतरी के लिए उसका सर्वांगीण विकास आवश्यक है. जीडीपी में वृद्धि से अर्थव्यवस्था तो मजबूत हो सकती है, लेकिन वह सभी लोगों के लिए कल्याणकारी नहीं हो सकती. बेहतर जीवन के लिए भोजन, आवास और साफ-सफाई जरूरी है. शरीर और मन की बेहतरी के लिए स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा आवश्यक है. अगर पृथ्वी का अस्तित्व संकट में हो और हम रोजगार में वृद्धि कर रहे हों, तो उसका कोई मतलब नहीं है. हमें अच्छे रिश्ते बनाने की भी जरूरत है. हमें साफ हवा और पानी, गैर जहरीले भोजन, और स्वस्थ पर्यावरण चाहिए. देश का विकास इसी के अनुरूप होना चाहिए. सिर्फ जीडीपी वृद्धि की आलोचना नयी नहीं है. भूटान के जीएनएच (ग्रॉस नेशनल हेपीनेस) से लेकर पर्यावरणवादी अर्थशास्त्रियों द्वारा जीपीआइ (ग्लोबल पीस इंडेक्स) तक को महत्व देना बताता है कि सिर्फ आर्थिक विकास बेहतरी का पैमाना नहीं हो सकता. हम भारतीय इनसे प्रेरणा ले सकते हैं और विकास का अपना नया मॉडल बना सकते हैं.
(ये लेखकद्वय के निजी विचार हैं.)

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