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कांग्रेस में नीति व नेतृत्व का संकट

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कांग्रेस आलाकमान और असंतुष्ट खेमे की रणनीति इतनी लचर है कि उससे भी विध्वंस से फिर निर्माण होने की कोई संभावना नहीं दिखती.

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हालिया विधानसभा चुनावों के नतीजे कांग्रेस के लिए बेहद निराशाजनक रहे, खासकर पंजाब, उत्तराखंड और गोवा के, लेकिन कांग्रेस के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसमें आत्मविश्वास की कमी है तथा उसे आशा की कोई किरण नजर नहीं आ रही है, जिससे उसका मनोबल बढ़े और 2024 तक जिन राज्यों के चुनाव हैं, वहां उसका प्रदर्शन बेहतर हो.

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कांग्रेस आलाकमान और पार्टी के असंतुष्ट खेमे की रणनीति इतनी लचर है कि उससे भी विध्वंस से फिर निर्माण होने की कोई संभावना नहीं दिखती. पार्टी के लिए यह बड़ा विकट समय है, क्योंकि 1977, 1989 और 1996 की हारों के बाद भी उसका मनोबल ऐसा नहीं गिरा था. कांग्रेस पर चौतरफा हमले भी हो रहे हैं. पार्टी के भीतर उथल-पुथल मची हुई है. इस पार्टी की एक राजनीतिक सोच व विचारधारा रही है, जिसके आधार पर उसे भाजपा के विरोध में एक राष्ट्रीय राजनीतिक शक्ति के रूप में देखा जाता है,

लेकिन पंजाब में बड़ी जीत ने आम आदमी पार्टी को नयी गति और दिशा दी है. कहा जा सकता है कि आगामी विधानसभा चुनावों में, लोकसभा चुनाव में भी, पार्टी कांग्रेस को चुनौती देगी. ऐसे में भाजपा के साथ कांग्रेस की वैचारिक और राजनीतिक लड़ाई तो चलेगी ही, उसे आम आदमी पार्टी का भी सामना करना होगा.

कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी को एक गूढ़ और सधी हुई नेत्री माना जाता है. नब्बे के दशक के अंतिम वर्षों से, जब वे सक्रिय राजनीति में आयी थीं, से लेकर 2014 में यूपीए सरकार के रहने तक उन्होंने अपने राजनीतिक कौशल और नेतृत्व क्षमता का लोहा मनवाया था, पर अब वे रक्षात्मक मुद्रा में नजर आती हैं. कांग्रेस कार्य समिति की हालिया बैठक में उन्होंने कह दिया कि यदि कांग्रेसजन नेहरू-गांधी परिवार को हार का दोषी मानते हैं,

तो वे, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी पदत्याग करने के लिए तैयार हैं. आज की कांग्रेस उस स्थिति में नहीं है कि वह नेहरू-गांधी परिवार से संबंध विच्छेद कर ले. यह परिवार भी वैसी स्थिति में नहीं है कि वह कांग्रेस के बिना सार्वजनिक जीवन में रह सके. यह ऐसी समस्या है, जिसका कोई समाधान नजर नहीं आ रहा है. असंतुष्टों की बात करें, तो उनके पास भी कोई नेता नहीं है.

कभी विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कांग्रेस से अलग होकर जन मोर्चा बनाया था और फिर उसके बरक्स एक राजनीतिक विकल्प खड़ा किया था. असंतुष्ट नेताओं के पास मुद्दे भी नहीं हैं. भारतीय राजनीति में जब भी बदलाव हुआ है, तो उस प्रक्रिया में आदर्शवाद एक कारक होता है. उदाहरण के लिए हम जयप्रकाश नारायण के आंदोलन को देख सकते हैं.

विश्वनाथ प्रताप सिंह ने और बाद में अन्ना हजारे-अरविंद केजरीवाल ने भ्रष्टाचार का मामला उठा कर लामबंदी की. आज विपक्ष के पास ऐसा कुछ नहीं है. राहुल गांधी ने जरूर कोशिश की थी और उन्होंने कुछ उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने, राफेल खरीद में गड़बड़ी होने, कोरोना महामारी का ठीक से प्रबंधन नही होने आदि मसले उठाये, पर जनता में कोई असर होता नहीं दिखता.

हार का विश्लेषण करते हुए कांग्रेस इस सवाल का जवाब खोजने से चूक गयी कि वह उत्तराखंड में क्यों हारी, जहां मुख्यमंत्री को हार का सामना करना पड़ा, जहां पार्टी के पास एक अनुभवी चेहरा था, जहां सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की स्थिति भी नहीं थी. क्या कांग्रेस की ऐसी ही हालत हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक या गुजरात में नहीं होगी, जहां आगे चुनाव होने हैं?

साल 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी चुनाव होंगे. इन जगहों पर कांग्रेस जिस आंतरिक तनातनी से गुजर रही है, उसे देखते हुए यह कह पाना मुश्किल है कि इन राज्यों में कांग्रेस अपना पिछला प्रदर्शन दोहरा सकेगी. राज्य के नेताओं के आपसी तनाव को हल करने के आलाकमान के उपाय बहुत कामयाब नहीं हुए हैं.

पार्टी के संकट का एक मुख्य पहलू यह है कि नेहरू-गांधी परिवार अपने अस्तित्व को बचाने की कोशिश में है और वह कांग्रेस के भीतर अपने नेतृत्व को स्वीकार्य बनाने के लिए प्रयासरत है. उन्हें अपनी राजनीतिक धरोहर की भी याद नहीं है कि कांग्रेस का राजनीतिक नेतृत्व हमेशा उस परिवार के पास ही रहा है, भले ही पार्टी अध्यक्ष कोई हो. इस बारे में उन्हें कोई संशय नहीं रखना चाहिए. ऐसे में परिवार अध्यक्ष पद नहीं छोड़ना चाहता है. सोनिया गांधी ने जो त्यागपत्र देने की पेशकश की, वह कोई ठोस पेशकश नहीं थी.

पार्टी ने चिंतन-मनन के लिए भी कुछ महीने बाद का समय तय किया है. प्रश्न यह उठता है कि कांग्रेस के पास कौन-सा ऐसा महत्वपूर्ण काम है कि पार्टी के वर्तमान व भविष्य पर सोच-विचार के लिए भी उन्हें इतना बड़ा अंतराल चाहिए. संसद सत्र होने की बात कही जा रही है, पर संसद में पार्टी की बड़ी मौजूदगी भी नहीं हैं और अधिकतर पदाधिकारियों का संसद से लेना-देना भी नहीं है. ऐसे रवैये से साफ है कि पार्टी में कोई जोश या सरगर्मी नहीं है.

असंतुष्ट खेमा भी सोच को लेकर स्पष्ट नहीं है और उसकी दिलचस्पी पार्टी में अपना वर्चस्व बनाये रखने की है. वे नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों में भी भेद कर रहे हैं. उन्हें सोनिया गांधी या प्रियंका गांधी की कार्यशैली और उनके व्यक्तित्व से कोई नाराजगी नहीं है और उनके सभी सवाल राहुल गांधी से हैं. वे चाहते हैं कि सोनिया गांधी बहुत बड़ा त्याग करते हुए राहुल गांधी को राजनीति से किनारे कर दें. ऐसी अपेक्षा का न तो कोई औचित्य है और न ही मानवीय दृष्टि से यह संभव है. यह सर्वविदित है कि परिवार में आपसी संबंध बहुत घनिष्ठ हैं.

यह सवाल भी है कि विचारधारात्मक मसलों पर भी पार्टी में कोई चर्चा नहीं होती. उदाहरण के लिए, पिछले दिनों राहुल गांधी ने हिंदू धर्म और हिंदुत्व को लेकर जो राय दी, उस पर पार्टी में बहस नहीं हुई. इसी प्रकार हाल में हिजाब का मुद्दा आया, जो कर्नाटक में एक राजनीतिक मुद्दा भी बना है, इस पर भी कांग्रेस की कोई राय नहीं है. कुछ अल्पसंख्यक नेताओं ने बयान दिये हैं, पर पार्टी चुप ही रही है. राजनीति में नैतिक साहस की बड़ी भूमिका होती है.

केजरीवाल एक दशक से भ्रष्टाचार विरोध और शासन में पारदर्शिता को लेकर सक्रिय हैं. अब वे इन मुद्दों पर कितने गंभीर हैं, इस पर अलग-अलग बातें की जा सकती हैं, लेकिन उन्हें अपने नैतिक साहस का लाभ मिल रहा है. कांग्रेस को पारंपरिक ढंग से काम न कर अपने निर्णयों और नीतियों पर तुरंत गंभीर आत्ममंथन करना चाहिए.

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