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ओवैसी की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाएं

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ओवैसी की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाएं

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प्रभु चावला

एडिटोरियल डायरेक्टर

द न्यू इंडियन एक्सप्रेस

prabhuchawla@newindianexpress.com

राजतिक विज्ञान के अनुसार, हर क्रिया की सामान और विपरीत प्रतिक्रिया होती है. नरेंद्र मोदी के गत्यात्मक व्यक्तित्व ने हिंदू मानस को एकजुट कर एक राष्ट्रीय राजनीतिक आंदोलन बना दिया. संगठित हिंदुत्व, जो तुष्टीकरण और छद्म बाजार-राजनीति के घिनौने मलबे से एकाकार रूप में उभरा, ने एक खालीपन पैदा किया, जिसे भरने की कोशिश हो सकती थी.

ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन जैसे लंबे नाम के संगठन के वारिस तथा हैदराबाद के राजनीतिक वंश की तीसरी पीढ़ी के 51 वर्षीय असदुद्दीन ओवैसी ऐसे ही अवसर की प्रतीक्षा में थे. एक राष्ट्रीय इस्लामिक पार्टी भारत के 19.5 करोड़ मुस्लिम आबादी का सपना है, जिसे लिंकंस इन के बैरिस्टर ओवैसी अपने लिए साकार करना चाहते हैं.

वैकल्पिक राजनेता मूल वंशाणु के ही अंश हैं, इसी वजह से भारतीय राजनीति एक आयामीय रही है. उनके पास अपने धार्मिक और/या जातिगत जुड़ाव एवं पहचान से परे कोई वैकल्पिक एजेंडा नहीं है. ऑल इंडिया मुस्लिम लीग से लेकर रिपब्लिक पार्टी ऑफ इंडिया जैसे अनेक संगठन राष्ट्रीय प्रभाव और केंद्र व राज्यों में सत्ता में समानुपातिक हिस्सा पाने की आकांक्षा में बनाये गये.

ऑल इंडिया मुस्लिम लीग से लेकर रिपब्लिक पार्टी ऑफ इंडिया जैसे अनेक संगठन राष्ट्रीय प्रभाव और केंद्र व राज्यों में सत्ता में समानुपातिक हिस्सा पाने की आकांक्षा में बनाये गये. किसी भी राष्ट्रीय पार्टी ने किसी मुस्लिम नेता को राष्ट्रीय प्रतीक नहीं बनने दिया, या तो उन्हें दरकिनार कर दिया गया या कोई सजावटी पद देकर प्रभावहीन कर दिया गया, किंतु ओवैसी की शेरवानी अलग कपड़े से बनी है.

किसी भी राष्ट्रीय पार्टी ने किसी मुस्लिम नेता को राष्ट्रीय प्रतीक नहीं बनने दिया, या तो उन्हें दरकिनार कर दिया गया या कोई सजावटी पद देकर प्रभावहीन कर दिया गया, किंतु ओवैसी की शेरवानी अलग कपड़े से बनी है. वे मानते हैं कि उनके पास महान भारतीय मुस्लिम नेता होने की समुचित शिक्षा और वंशावली है. उनकी गोल टोपी के पीछे एक चतुर एमबीए (मुस्लिम ब्रदरहुड ऑल्टरनेटिव) रणनीतिक है, जो मुस्लिमों और दलितों को राष्ट्रीय मुख्यधारा से अलग ध्रुवीकृत कर अपना बाजार बढ़ा रहा है. महाराष्ट्र और हाल में बिहार में जीत का स्वाद चखने के बाद

उनकी नजर अब पश्चिम बंगाल पर है. भाजपा-विरोधी मतों को विभाजित करनेवाला भाजपा का छुपा हुआ सहयोगी होने के आरोपों की परवाह किये बिना ओवैसी स्वतंत्र भारत के सबसे बड़े मुस्लिम नेता होने की राह पर हैं. उम्मीद है कि ओवैसी तृणमूल कांग्रेस के परंपरागत आधार को विभाजित कर सकते हैं, इसी कारण ममता बनर्जी ने उनकी पार्टी को भाजपा की बी-टीम की संज्ञा दी है. इसके उत्तर में ओवैसी ने कहा कि कोई ऐसा आदमी पैदा नहीं हुआ है, जो उन्हें पैसों से खरीद सके.

उल्लेखनीय है कि किसी भी महानगरीय नेता को ऐसी राष्ट्रीय प्रसिद्धि और मीडिया का ध्यान नहीं मिला है. भारतीय मुसलमानों के पास ऐसा बौद्धिक और लोकप्रिय नेतृत्व नहीं है, जो एक एकीकृत रणनीति बना सके. इस अभाव ने ओवैसी को खलीफा का आसन ग्रहण करने में मदद की है.

ओवैसी की पार्टी का अरुचिकर इतिहास रहा है और उसका वर्तमान विवादित है. कांग्रेस, अकाली दल, शिव सेना, डीएमके, नेशनल कांफ्रेंस, समाजवादी पार्टी आदि की तरह मजलिस को भी डीएनए ही नियंत्रित करता है. जहां अन्य पार्टियों की स्थापना आजादी की लड़ाई के लिए या जातिगत और क्षेत्रीय हितों का प्रतिनिधित्व करने के लिए हुआ था, मजलिस का उद्देश्य भारत से लड़ना था. हैदराबाद के शाही राज्य में 1927 में इसकी स्थापना एक मुस्लिम रियासत के लिए लड़ने के लिए हुई थी.

साल 1944 में इसके उग्रपंथी नेता कासिम रिजवी ने हैदराबाद के भारत में विलय के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष के लिए एक लाख से अधिक रजाकारों को जमा किया था. उन्होंने हजारों हिंदुओं को मारा, लूटा और उनका बलात्कार किया था. भारतीय सेना ने इस विद्रोह को कुचला था और रिजवी को जेल हुई थी. साल 1957 में पाकिस्तान जाने से पहले रिजवी ने अब्दुल वाहिद ओवैसी को अपना उत्तराधिकारी चुना था. दादा ओवैसी ने मजलिस के नाम के साथ ऑल इंडिया जोड़ा, ताकि पूरे भारत के मुसलमानों से जुड़ सकें और हैदराबाद व आसपास के मुस्लिमों के निर्विवाद नेता बन सकें.

लगभग 18 सालों में उन्होंने मजलिस को एक मजबूत राजनीतिक साम्राज्य में बदल दिया. उनके पुत्र सुल्तान सलाहुद्दीन ओवैसी इतने ताकतवर और लोकप्रिय थे कि उन्हें सालार-ए-मिल्लत कहा जाता था. उन्होंने स्थानीय चुनावों में जीत हासिल की और लोकसभा के सदस्य बने. इस पार्टी का इतना प्रभाव था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी इसके मुख्यालय गयीं. अब असदुद्दीन अपने पिता की सीट का प्रतिनिधित्व करते हैं. इनके छोटे भाई अकबरूद्दीन, जो अपने अतिवादी भारत-विरोधी विचारों को छुपाते नहीं हैं, तेलंगाना विधानसभा में अपनी पार्टी के नेता हैं.

ओवैसी ऐसी जगहों का सावधानी से चयन कर रहे हैं, जिससे सीटें भले न बढ़ें, पर वोट जरूर बढ़ें. राष्ट्रीय पार्टी होने के लिए चुनाव आयोग ने वोटों और सीटों की न्यूनतम सीमा निर्धारित की है. अभी मजलिस के पास दो लोकसभा और 14 विधानसभा सीटें हैं. राष्ट्रीय स्तर पर मतों में इसकी हिस्सेदारी एक प्रतिशत से कम है और इसे तेलंगाना समेत किसी भी राज्य में तीन प्रतिशत से अधिक वोट नहीं मिला है. इससे ओवैसी के विस्तारवादी कार्यक्रम को समझा जा सकता है, जिसके तहत वे जातिगत और गैर-हिंदू समुदायों से गठबंधन कर रहे हैं.

साल 2017 में उत्तर प्रदेश के स्थानीय निकायों में 78 में से 31 सीटों की जीत ने उन्हें उम्मीद दी है. हालांकि वे एक राष्ट्रीय साम्राज्य का सपना देखते हैं, पर केवल आठ राज्यों में ही उनकी मामूली उपस्थिति है. जैसे अन्य राष्ट्रीय पार्टियां नाममात्र के लिए मुस्लिम प्रत्याशी खड़े करती हैं, ओवैसी ने भी अपनी कठोर इस्लामिक छवि को हल्का करने के लिए कुछ हिंदुओं को स्थानीय और राज्यों के चुनाव में खड़ा किया है.

उनकी पार्टी ने बिहार, तमिलनाडु, उत्तराखंड और केरल में बाढ़ राहत के लिए उदारता से खर्च किया है, पर इसके नेता हिंदुओं के खिलाफ जहर उगलते रहते हैं. ओवैसी का तर्क है कि ‘मजलिस मुस्लिमों का ही नहीं, दलितों और अन्य वंचितों के मुद्दे भी उठाती है. यह एक मुस्लिम पार्टी नहीं है. किसने किसी को यह अधिकार दिया है कि वह मुझे सेकुलर, सांप्रदायिक या देश-विरोधी कहे?’ पर वे भूल जाते हैं कि उनकी पार्टी के नाम का अनुवाद ‘मुस्लिमों की एकता के लिए अखिल भारतीय परिषद’ है.

शायद ओवैसी जिन्ना की तरह चल रहे हैं, जिन्होंने कहा था- उम्मीद सबसे अच्छे की रखो, तैयारी सबसे बुरे के लिए करो.’ उनकी सबसे अच्छी रणनीति अपने को एक छोटे अल्पसंख्यक मोदी के रूप में तैयार करने की है, जिसमें प्रबल विचारधारा और अभिव्यक्त आकांक्षा का योग हो, लेकिन हिंदुस्तान का शहंशाह होने की कोशिश कर रहे हैदराबाद के नव-निजाम के लिए यह हमेशा मरीचिका ही रहेगा.

posted by : sameer oraon

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