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नये वर्ष में आर्थिक बेहतरी की आस

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नये वर्ष में आर्थिक बेहतरी की आस

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अजीत रानाडे

अर्थशास्त्री एवं सीनियर फेलो तक्षशिला इंस्टीट्यूशन

ये वर्ष का स्वागत हर्षोल्लास से हुआ है, लेकिन उसमें आशा अधिक और आधार कम हैं. जो आर्थिक आंकड़े आ रहे हैं, वे मिले-जुले हैं, पर उनसे आशा जगती है. वैसे 2020 से बच कर निकल आना ही उत्सव का एक कारण है. रोग, मौत, आर्थिक तबाही के साथ सामर्थ्य, धैर्य और दृढ़ निश्चय जैसे भावों से अधिकतर लोगों ने बीते साल का अनुभव किया. देश का अधिकांश हिस्सा 2020 में बहुत समय तक लॉकडाउन में रहा, जिसे धीरे-धीरे से हटाया गया.

अब भी कई राज्यों में लॉकडाउन अलग-अलग तरीके से लागू है. इसका बुरा असर नौकरियों, आमदनी, जीविका आदि पर, खासकर असंगठित क्षेत्र में, पड़ा है. देश के शहरी आप्रवासी मजदूरों की मुश्किलें जगजाहिर हैं. इसका उल्लेख प्रधानमंत्री ने अपने रेडियो संबोधन में भी किया था. ग्रामीण अर्थव्यवस्था ने उन्हें बचाया. छोटे और मझोले कारोबारों पर प्रतिकूल आर्थिक प्रभाव बहुत गंभीर है. भारत के व्यापक असंगठित क्षेत्र की वास्तविक आर्थिक तस्वीर बाद में ही साफ हो सकेगी.

वैक्सीन आ गयी है, पर वायरस अभी भी मौजूद है. पूरी दुनिया के कुल संक्रमण के आधे मामले केवल चार देशों- अमेरिका, भारत, ब्राजील और रूस- में सामने आये हैं. दुनिया की आबादी में भारत का हिस्सा 17 फीसदी है, जबकि संक्रमण के 13 फीसदी मामले हमारे देश में हैं. इसके बावजूद यह भी सच है कि अन्य तीन देशों की तुलना में भारत ने संक्रमण को थामने में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया है. इन तीन देशों में अभी हाल तक संक्रमण भी बढ़ रहा था और मृतकों की संख्या भी.

सकल घरेलू उत्पादन के अनुपात में स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर की बहुत निम्न स्थिति को देखते हुए भारत में कुछ महीनों से रोजाना संक्रमण की घटती संख्या उल्लेखनीय उपलब्धि है. महामारी के प्रबंधन में संभवत: बेहतरी हुई है और संक्रमितों के ठीक होने की दर भी अच्छी है. हो सकता है कि हममें कोई भीतरी प्रतिरोधक क्षमता होगी, जिसका हमें पता नहीं है.

सरकार ने दो टीकों के आपात उपयोग की अनुमति दे दी है, जिनके क्लिनिकल परीक्षण का आखिरी चरण अभी पूरा नहीं हुआ है. जिस गति से दुनिया के प्रमुख वैज्ञानिकों ने टीका विकसित करने में कामयाबी हासिल की है कि वह बेहद शानदार है. यह विज्ञान में वैश्विक सहयोग तथा डिजिटल युग में खुलेपन के लाभ का भी सत्यापन है.

आर्थिक बेहतरी भी उल्लेखनीय है, क्योंकि यह दूसरे देशों की तुलना में बहुत कम वित्तीय राहत में हासिल हुई है. कॉरपोरेट मुनाफे, रियल इस्टेट में कुछ-कुछ सुधार, वस्तु एवं सेवा कर संग्रहण में बढ़त, रबी फसलों की खेती में बढ़ोतरी और रोजगार में वृद्धि में अर्थव्यवस्था के सुधार को देखा जा सकता है. इस साल भारत 301 मिलियन टन अनाज का रिकॉर्ड उत्पादन करेगा और अगले साल भी कृषि में 3.5 फीसदी वृद्धि का अनुमान है.

कुछ ही हफ्तों में पेश होनेवाले बजट का वादा इंफ्रास्ट्रक्चर के जरिये बड़ी वित्तीय राहत का है, और इसमें स्वास्थ्य एवं शिक्षा को बढ़ावा देने के उपाय भी शामिल हैं, जो नरम इंफ्रास्ट्रक्चर के हिस्से हैं. स्टॉक मार्केट लगातार बढ़त की ओर अग्रसर है, मानो उसे अर्थव्यवस्था की स्थिति का पता नहीं है. हम जानते हैं कि स्टॉक मार्केट आगे की ओर देखता है, लेकिन ऐसा लगता है कि उसकी नजर भविष्य में बहुत दूर तक है. सरकार को स्टॉक मार्केट की संपत्ति का उपयोग अपने राहत प्रयासों में करने का उपाय करना चाहिए.

बाजार में उछाल का दौर नीति आयोग द्वारा पहले से चिह्नित सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में सरकारी हिस्सेदारी के विनिवेश के लिए भी सही समय है. एक रास्ता सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के शेयरों को सस्ते ब्याज दर के कर्ज के बदले रिजर्व बैंक को देने का भी है, जिनकी कीमत अभी 15 लाख करोड़ रुपये से अधिक है. इन शेयरों को पांच साल के लिए दिया जा सकता है और फिर उन्हें वापस लिया जा सकता है. ये साल के बारे में आशावाद में हमें कुछ कठिन चुनौतियों को अनदेखा नहीं करना चाहिए, जिन पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है.

पहली चुनौती नये कृषि कानूनों को लेकर संकट की स्थिति के रूप में है. किसानों का आंदोलन एक महीने से अधिक समय से जारी है और कानूनों की वापसी की उनकी मांग लगातार दृढ़ होती जा रही है. उनकी आशंकाएं बहुत वास्तविक हैं, चाहे वे धान व गेहूं के न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर हों या बड़े कॉरपोरेट के साथ कांट्रैक्ट में कानूनी संरक्षण को लेकर हों या फिर दामों के घटने-बढ़ने के बारे में हों.

सरकार को इस आंदोलन को खत्म कर अपने बचाव का कोई रास्ता निकालना चाहिए क्योंकि इससे न केवल उत्तर में खेती प्रभावित हो रही है, बल्कि कोयला, खाद और रेल ढुलाई की अन्य चीजों की आपूर्ति बाधित हो रही है. इससे उत्तरी राज्यों के औद्योगिक उत्पादन और माहौल पर निश्चित ही प्रतिकूल असर होगा.

इस मसले का जल्दी समाधान जरूरी है. क्यों न इन कानूनों को अभी लागू नहीं करने, उन्हें संसद की स्थायी समिति को भेजने, और अगर राजनीतिक रूप से हो सके, तो इसी बीच सत्ताधारी पार्टी से जुड़ी राज्य सरकारों को इन कानूनों को लागू करने देने जैसी संभावनाओं की तलाश की जानी चाहिए?

दूसरी बड़ी चुनौती बैंकिंग में है. कामथ कमिटी ने उन 26 क्षेत्रों को चिन्हित किया है, जहां लेनदारों को बिना दिवालिया बनाये कर्जों को पुनरसंरंचित करना है. कुल चिन्हित कर्ज की मात्रा 48 लाख करोड़ है. लेकिन निर्धारित समय बीतने के बाद बहुत थोड़े कर्जदार ही इस विकल्प के लिए सामने आये.

इसका मतलब क्या यह निकाला जाए कि ज्यादातर कर्जदार मुनाफे में आ गये हैं? या फिर कोई और समस्या है? हमें एक और बैंक की असफलता की आवश्यकता नहीं है. असल में, केंद्रीय बजट में वित्त मंत्री को सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को बड़ी मात्रा में पूंजी मुहैया कराने के लिए आवंटन करना होगा, खासकर महामारी के भयावह असर को देखते हुए.

वृद्धि दर को 8-9 फीसदी करने के लिए बैंक क्रेडिट में कम-से-कम 18 से 20 फीसदी की बढ़त चाहिए और इसके लिए जोखिम पूंजी मुहैया कराना जरूरी है. यह धन कहां से आयेगा? निर्यात में तेज बढ़त करने की दरकार भी है.

बजट के तुरंत बाद नयी विदेश व्यापार नीति की घोषणा होगी. बीते पांच सालों में निर्यात के मामले में हम अपनी गति खो चुके हैं और अभी इसकी वृद्धि दर लगभग शून्य है. कोई संदेह नहीं है कि 2021 बीते साल से बेहतर होगा और हमें इसे उच्च, सतत, समावेशी और हरित वृद्धि हासिल करने के लिए एक पुल के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए.

Posted By : Sameer Oraon

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