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जलवायु परिवर्तन और अर्थव्यवस्था

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संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण आ रही प्राकृतिक आपदाओं के कारण भारत को सालाना करीब सात लाख करोड़ रुपये की क्षति हो रही है.

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भारत में इस साल हमने जबरदस्त लू व गर्म हवाओं के बाद मॉनसून का मनमौजी बर्ताव देखा है. पहले 122 सालों में मार्च के रिकॉर्डतोड़ तापमान ने सबको हैरान किया और अब मौसम विभाग बता रहा है कि राजस्थान में जुलाई में सात दशकों की सबसे अधिक बरसात दर्ज हुई है, जो औसत से 67 प्रतिशत अधिक है. इस बीच देश के कई हिस्सों में बरसात में देरी और उसकी कमी से किसानों की फसल नष्ट हुई है.

तकरीबन हर साल की तरह असम में बाढ़ की मार ने तबाही जारी रखी. असम, मेघालय, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश समेत पूरे उत्तर-पूर्व में बाढ़ से 200 से अधिक लोगों की जान गयी और अब असम में जापानी बुखार का प्रकोप है, जिससे करीब 50 लोगों की जान चली गयी है. मौसमी चक्र में उतार-चढ़ाव और प्राकृतिक आपदाओं की मार नयी बात नहीं है, लेकिन पिछले कुछ दशकों में बदलाव की रफ्तार और उसकी तीव्रता का ग्राफ तेजी से बढ़ा है.

आंकड़े बताते हैं कि 1950 से 2017 के बीच भारत में बाढ़ की 285 घटनाएं हुईं, जिनसे 85 करोड़ लोग प्रभावित हुए और 71 हजार लोगों की मौत हो गयी. वहीं 2017 से 2020 के बीच बहुत अधिक बारिश या अतिवृष्टि की घटनाओं में 70 प्रतिशत से अधिक की बढ़ोतरी हो गयी है. आजादी के बाद से 2017 तक छह हजार करोड़ डॉलर यानी 4.80 लाख करोड़ रुपये के बराबर क्षति बाढ़ की इन घटनाओं से हुई.

स्पष्ट है कि मौसम की अति तीव्रता (एक्सट्रीम वेदर) की ऐसी मार देश की अर्थव्यवस्था और जनहानि दोनों के लिए जिम्मेदार है. पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की एक रिपोर्ट कहती है कि बाढ़, चक्रवाती तूफान, लू और शीतलहर ने पिछले पांच दशकों में 1.5 लाख लोगों की जान ली है. संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि ऐसी घटनाओं के कारण भारत को सालाना 8700 करोड़ डॉलर यानी करीब सात लाख करोड़ रुपये की क्षति हो रही है.

इस क्षति का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि अभी केंद्र सरकार का कुल बजट ही करीब 40 लाख करोड़ रुपये का है. जहां एक ओर विश्व के मौसम विज्ञानी चेता रहे हैं कि बढ़ते तापमान के कारण भारत जैसे देशों पर जलवायु परिवर्तन की मार सबसे अधिक होगी, वहीं विश्व मौसम संगठन की चेतावनी सही साबित हुई, तो अगले पांच साल में ही धरती की तापमान वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस का बैरियर पार कर जायेगी. इसका मतलब है कि सूखे, बाढ़ और शक्तिशाली चक्रवातों की संख्या और मारक क्षमता बढ़ेगी तथा हमारी कृषि, अर्थव्यवस्था, रोजगार और स्वास्थ्य पर इसका सीधा नकारात्मक असर दिखेगा.

संतोषजनक बात यह है कि भारत ने जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए एक सुदृढ़ रोडमैप तैयार किया है. केंद्र सरकार ने 2008 में ही एक नेशनल एक्शन प्लान बनाया था और फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल अधिक महत्वाकांक्षी घोषणाएं की, जिनमें 2030 तक 500 गीगावॉट क्षमता के स्वच्छ ऊर्जा संयंत्रों को लगाने का लक्ष्य शामिल है. केंद्र सरकार ने वादा किया है कि अगले 10 सालों में वह अपनी बिजली का 50 प्रतिशत हिस्सा स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों से हासिल करेगी.

लेकिन भारत के सामने जलवायु परिवर्तन और इसके कुप्रभावों से लड़ने की दोहरी चुनौती है. एक ओर बढ़ते तापमान के कारण हमारे कामगारों के स्वास्थ्य और उत्पादकता में लगातार गिरावट हो रही है यानी वे बीमार भी पड़ रहे हैं और कड़ी धूप व गर्मी में काम करना भी मुश्किल होता जा रहा है. देश के कई राज्यों में रोजगार का पूरा ढांचा ही कोयले के खनन पर टिका हुआ है, जिसे तुरंत बंद नहीं किया जा सकता है.

भारत के बिजली उत्पादन का 80 फीसदी हिस्सा कोयला बिजलीघरों पर टिका है और देश के 40 प्रतिशत जिलों में रोजगार किसी ने किसी रूप में कोयला खनन से जुड़ा हुआ है. झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश वे राज्य हैं, जहां से भारत का अधिकांश कोयला आता है. यही वे राज्य भी हैं, जहां सबसे अधिक गरीबी है और रोजगार के लिए दूसरे राज्यों में यहां से लोगों का पलायन होता है.

कोयला, ऊर्जा और उससे जुड़ी अर्थव्यवस्था पर शोध कर रहे संदीप पाइ कहते हैं कि कोयले से साफ ऊर्जा की ओर बढ़ना तब तक न्यायपूर्ण नहीं हो सकता है, जब तक इस पर निर्भर गरीबों के लिए रोजगार की समुचित व्यवस्था न हो जाये. यह काम असंभव नहीं है, लेकिन इसके लिए एक वृहद योजना और रणनीति की जरूरत होगी, जिसका अभी अभाव दिखता है.

पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा और केरल उन राज्यों में हैं, जहां रोजगार की तलाश में गरीब कहे जाने वाले राज्यों से प्रवासी जाते हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन न केवल कभी खेती में अग्रणी रहे पंजाब को खोखला कर रहा है, बल्कि समृद्ध माने जाने वाले पश्चिमी तट पर बसे राज्यों में आपदाएं ला रहा है. देश के करीब 25 करोड़ लोग तटीय इलाकों में कृषि करते हैं या फिर वहां पर उपलब्ध रोजगार के अवसरों पर निर्भर हैं.

अब चक्रवाती तूफानों की मार पश्चिम तट पर बढ़ रही है, जिससे वहां कृषि, उद्योग और पर्यटन पर असर पड़ेगा. जलवायु परिवर्तन की मार और उसके रोजगार के प्रभाव को समझने के लिए 2017 में केरल तट पर आये ओखी तूफान का जिक्र करना जरूरी है. यह तूफान तट पर नहीं, बल्कि समुद्र के भीतर आया था,

फिर भी इससे 200 से अधिक लोगों की मौत हुई. जलवायु परिवर्तन के कारण अब पूर्वी तट पर (बंगाल की खाड़ी से उठने वाले) ही चक्रवाती तूफान नहीं आ रहे हैं, जहां तट रेखा पर आबादी कम है, बल्कि पश्चिमी तट पर भी उनकी संख्या बढ़ रही है, क्योंकि अरब सागर का तापमान भी बढ़ रहा है. महत्वपूर्ण है कि पश्चिम में तट रेखा काफी घनी है और बड़ी आबादी वाले शहर तट पर ही बसे हैं यानी यहां विनाश अधिक होने का खतरा है.

इससे यह सवाल उठता है कि ग्लोबल वॉर्मिंग के प्रभावों से लड़ने के लिए कोयले का प्रयोग रोकना तो बहुत जरूरी है, लेकिन इस क्षेत्र में काम कर रहे कामगारों के लिए रोजगार के वैकल्पिक अवसरों को पैदा करना और उन जगहों को सुरक्षित करना है, जहां रोजगार हैं. अभी जिन राज्यों में ये मजदूर काम के लिए जाते हैं, वहां भी बदलते मौसमी चक्र ने अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया है. ऐसे में समावेशी और टिकाऊ विकास का सिद्धांत अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है, जिसमें उपभोग को बढ़ाने वाली पूंजीवादी सोच पर फिर से विचार की जरूरत है.

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