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कोरोना काल में शिक्षा की चुनौती

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कोरोना ने शिक्षा के समक्ष एक नयी चुनौती ला खड़ी की है, लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि शिक्षा पर सभी का समान अधिकार है और यह सर्वसुलभ होनी चाहिए.

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आशुतोष चतुर्वेदी, प्रधान संपादक, प्रभात खबर

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ashutosh.chaturvedi@prabhatkhabar.in

उदारवादी अर्थव्यवस्था की सुख-सुविधाओं से हम सब आत्ममुग्ध थे. नित नयी कारों, हवाई यात्राओं और मॉल कल्चर की चकाचौंध में हम व्यस्त थे कि अचानक कोरोना आ गया और इसने हमारी जिंदगी की गाड़ी को जैसे पटरी से उतार दिया है. इसने जिंदगी के हर पहलू को प्रभावित किया है. यहां तक कि कोरोना ने शिक्षा के चरित्र को भी बदल दिया है. कोरोना को लेकर स्वास्थ्य चिंताओं की काफी चर्चा है, पर कोरोना के कारण शिक्षा के स्वरूप में भी अचानक भारी बदलाव आया है, इस पर विमर्श नहीं हो रहा है.

मौजूदा दौर में बच्चों को पढ़ाना आसान नहीं रहा है. कुछ समय पहले तक माना जाता था कि बच्चे, शिक्षक और अभिभावक, ये शिक्षा की तीन महत्वपूर्ण कड़ी हैं. हमारी शिक्षा व्यवस्था इन तीनों कड़ियों को जोड़ने में ही लगी थी कि इसमें डिजिटल की एक और कड़ी जुड़ गयी है. बेशक शिक्षा व्यवस्था की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कड़ी शिक्षक हैं, लेकिन वर्चुअल कक्षाओं ने इंटरनेट को भी शिक्षा की एक अहम कड़ी बना दिया है.

लॉकडाउन में डिजिटल पढ़ाई एक महत्वपूर्ण माध्यम उभर कर उभरी है. वर्चुअल क्लास रूम को लेकर खासी चर्चा हो रही है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश में एक बड़े तबके के पास न तो स्मार्ट फोन है, न ही कंप्यूटर और न ही इंटरनेट की सुविधा. जाहिर है, अब ऐसे अभिभावकों पर बच्चों को ये सुविधाएं उपलब्ध कराने का दबाव रहेगा. गरीब तबका इस मामले में पहले से पिछड़ा हुआ था; कोरोना ने इस खाई को और चौड़ा कर दिया है.

कोरोना के फैलाव के साथ ही मार्च में स्कूलों को बंद कर दिया गया था. अधिकांश स्कूलों में सत्र पूरा नहीं हो पाया. अनेक स्कूलों, इंजीनियरिंग कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में फाइनल परीक्षाएं नहीं हो पायी हैं. यहां तक कि सीबीएसइ जैसा बोर्ड भी अपनी परीक्षाएं पूरी नहीं कर पाया है. लॉकडाउन को लेकर हुई ताजा घोषणा के अनुसार, यदि सब कुछ ठीक रहा, तो जुलाई में स्कूल खोलने पर विचार किया जा सकता है.

लॉकडाउन के कारण कक्षाएं ठप हैं और देश के सभी बच्चों के लिए ऑनलाइन शिक्षा फिलहाल संभव नहीं है. नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस के आंकड़ों के मुताबिक केवल 23.8 फीसदी भारतीय घरों में इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है. इसमें ग्रामीण इलाके भारी पीछे हैं. शहरी घरों में यह उपलब्धता 42 फीसदी है, जबकि ग्रामीण घरों में यह 14.9 फीसदी ही है.

केवल आठ फीसदी घर ऐसे हैं, जहां कंप्यूटर और इंटरनेट दोनों की सुविधा उपलब्ध है. देश में मोबाइल की उपलब्धता 78 फीसदी आंकी गयी है, पर इसमें भी शहरी और ग्रामीण इलाकों में भारी अंतर है. ग्रामीण क्षेत्रों में 57 फीसदी लोगों के पास ही मोबाइल है.

कुछ समय पहले शिक्षा को लेकर सर्वे करने वाली संस्था ‘प्रथम एजुकेशन फांडेशन’ ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट ‘असर’ यानी एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट जारी की थी. इसके अनुसार, 59 फीसदी युवाओं को कंप्यूटर का ज्ञान ही नहीं है. लगभग 64 फीसदी युवाओं ने कभी इंटरनेट का इस्तेमाल ही नहीं किया है. देश में प्राइवेट और सरकारी स्कूलों की सुविधाओं में भारी अंतर है. प्राइवेट स्कूल मोटी फीस वसूलते हैं और उनके पास संसाधनों की कमी नहीं है.

वे तो वर्चुअल क्लास की सुविधा जुटा लेंगे, लेकिन सरकारी स्कूल तो अभी तक बुनियादी सुविधाओं को ही जुटाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, वे कैसे ऑनलाइन क्लास की सुविधा जुटा पायेंगे. बिहार की 10वीं बोर्ड में टॉप करने वाले हिमांशु राज का उदाहरण हमारे सामने है. रोहतास जिले के इस मेधावी बालक ने 500 में से 481 अंक हासिल कर एक बड़ी उपलब्धि हासिल की है. यह बालक 14.95 लाख बच्चों में अव्वल आया है, जिसकी जितनी भी सराहना की जाए, कम है.

हिमांशु चाहता है कि वह आइआइटी में शिक्षा हासिल करे और सॉफ्टवेयर इंजीनियर बने. हिमांशु को लॉकडाउन के दौरान बड़ी मुश्किलों को सामना करना पड़ा. अखबारों में जो खबरें छपी हैं, उनसे यह बात सामने आयी है कि उनके परिवार के पास कंप्यूटर और इंटरनेट की सुविधा नहीं है.

उनके परिवार में केवल एक स्मार्टफोन है. लॉकडाउन के दौरान पढ़ाई की सामग्री व्हाट्सएप अथवा अन्य डिजिटल तरीके से दी जा रही थी. लिहाजा, ये सभी भाई-बहन बारी-बारी से उस एक मोबाइल से शिक्षा सामग्री ग्रहण कर रहे थे. इन कठिन परिस्थितियों में भी इस बच्चे ने कमाल कर दिखाया, लेकिन यह भारत में ऑनलाइन शिक्षा की चुनौती को भी सामने लाता है.

हाल में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने जब आर्थिक पैकेज की घोषणा की थी, तो उसमें डिजिटल पढ़ाई को बढ़ावा देने के लिए पीएम ई-विद्या कार्यक्रम का भी एलान किया गया था. इसके तहत ई-पाठ्यक्रम, शैक्षणिक चैनल और सामुदायिक रेडियो का इस्तेमाल करके बच्चों तक पाठ्य सामग्री पहुंचाने की बात कही गयी थी. यह भी घोषणा की गयी है कि पहली से लेकर 12वीं तक की कक्षाओं के लिए एक-एक डीटीएच चैनल शुरू किया जायेगा.

हर कक्षा के लिए छह घंटे का ई-कंटेंट तैयार किया जा रहा है और इसे छात्रों तक पहुंचाने के लिए रेडियो, सामुदायिक रेडियो और पॉडकास्ट सेवाओं का भी इस्तेमाल किया जायेगा. साथ ही मानव संसाधन मंत्रालय ने देश के 100 शीर्ष विश्वविद्यालयों को ऑनलाइन कोर्स शुरू करने की मंजूरी भी दी है. दूरदर्शन पर पहले भी ज्ञान-दर्शन जैसे कार्यक्रम आया करते थे, लेकिन वे बहुत सफल नहीं रहे.

सरकार की घोषणाओं में विभिन्न माध्यमों से ऑनलाइन पढ़ाई पर जोर दिया गया है, मगर यक्ष प्रश्न यह है कि जहां इंटरनेट, टीवी और निरंतर बिजली उपलब्ध न हो, वहां बच्चे इन सुविधाओं का कैसे लाभ उठा पायेंगे. डिजिटल शिक्षा को बढ़ाना सराहनीय कदम हैं, लेकिन इसके समक्ष चुनौतियां बहुत हैं.

शिक्षा और रोजगार का चोली-दामन का साथ है. यही वजह है कि हर माता-पिता बच्चों की शिक्षा को लेकर बेहद जागरूक रहता है. उनकी आकांक्षा रहती है कि उनका बच्चा अच्छी शिक्षा पाए, ताकि उसे रोजगार मिल सके. वे बच्चों की शिक्षा के लिए पूरी जमा पूंजी दांव पर लगा देने को तैयार रहते हैं. साथ ही किसी भी देश की आर्थिक और सामाजिक प्रगति भी उस देश की शिक्षा पर निर्भर करती है.

अच्छी शिक्षा के बगैर बेहतर भविष्य की कल्पना नहीं की जा सकती. अगर शिक्षा नीति अच्छी नहीं होगी, तो विकास की दौड़ में वह देश पीछे छूट जायेगा. ये बातें हम सब बखूबी जानते हैं. बावजूद इसके, पिछले 70 वर्षों में हमने अपनी शिक्षा व्यवस्था की घोर अनदेखी की है. कोरोना ने अब शिक्षा के समक्ष एक नयी चुनौती ला खड़ी की है, लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि शिक्षा पर सभी का समान अधिकार है और यह सर्वसुलभ होनी चाहिए.

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