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विपक्ष को चिंतन की जरूरत

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यदि विपक्ष, खासकर कांग्रेस और आरजेडी मिलकर काम करते, तो उनके परिणाम अच्छे होते. जहां उन्होंने मिलकर काम किया वहां परिणाम अच्छे आये.

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राशिद किदवई, राजनीतिक विश्लेषक

rasheedkidwai@gmail.com

बिहार चुनाव बहुत बराबरी और कांटे का लड़ा गया. लेकिन चुनाव प्रबंधन में भाजपा ने बाजी मारी है. चुनाव लड़ना एक कला होती है, जिसमें सिर्फ अपनी ताकत का आकलन करना ही पर्याप्त नहीं होता, बल्कि चुनाव की तैयारी, सहयोगियों को साथ लेकर चलना आदि तमाम बातें होती हैं, जिन पर काम करना होता है. वर्ष 2014 से भाजपा ने चुनाव को एक नयी दिशा प्रदान की है. अब चुनाव प्रबंधन पूर्णकालिक चीज हो गयी है. बहुत समय पहले से उसकी योजना बनती है.

भाजपा के भीतर बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु आदि में होनेवाली चुनाव की रूपरेखा, पूरी रणनीति बनी हुई है और उसी के आधार पर काम हो रहा है, जबकि विपक्ष जब जिस राज्य में चुनाव आता है, वह उसके लिए उसी समय काम करना शुरू करता है. कांग्रेस, जो एक राष्ट्रीय पार्टी है, अंदरूनी चुनौतियों से जूझ रही है. पूर्व में जिस तरह का राजनीतिक कौशल उसके पास था, वह धीरे-धीरे कमजोर पड़ता जा रहा है. दूसरे, चुनाव की घोषणा हो जाने के बाद कांग्रेस अपनी तैयारी शुरू करती है. यदि आप भाजपा से तुलना करें तो दोनों की चुनावी तैयारी में जमीन-आसमान का फर्क नजर आयेगा.

यह परिणाम में साफ-साफ परिलक्षित होता रहता है. छत्तीसगढ़ को यदि छोड़ दें, तो भाजपा बुरी तरह परास्त नहीं होती है. वह हारती भी है, तो मजबूती के साथ. बिहार के चुनाव में छोटे-बड़े कुल 27 दल मैदान में थे. जिसमें घोषित-अघोषित रूप से 22 दल एक तरफ रहे, जबकि महागठबंधन में कांग्रेस, आरजेडी व तीन वामदल रहे. इन 22 दलों ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भाजपा को ही मजबूत किया. आरएलएसपी, बीएसपी या ओवैसी की पार्टी एआइएमआइएम का भाजपा के साथ तालमेल नहीं था, लेकिन अंततः इनका लाभ भी भाजपा को ही मिला. दूसरे, चिराग पासवान ने जिस तरह नीतीश कुमार के विरुद्ध अभियान चलाया, भले ही उन्हें एक ही सीट मिली, लेकिन जो पांच-छह प्रतिशत मत मिला, उससे भी विपक्ष को नुकसान हुआ. चिराग का मत यदि महागठबंधन को मिलता, तो उन्हें ज्यादा आसानी होती. तेजस्वी और राहुल गांधी का अति उत्साह और नौसिखियापन भी हार का कारण रहा.

मांझी की हम, वीआइपी आदि तमाम दल, जो पहले महागठबंधन का हिस्सा थे, उन्हें जाने नहीं देना चाहिए था. इन्होंने बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचाया. यदि सब साथ मिलकर लड़े होते तो परिणाम अलग होता. भाजपा ने भी तो नीतीश कुमार को सम्मान देने व अपने साथ बनाये रखने के लिए उनको एक सीट ज्यादा दी. और अपनी सीटों में से वीआपी आदि पार्टी को भी सीटें दीं. जबकि कांग्रेस ने ऐसा नहीं किया. सीटों के लिए बारगेन कर 70 पर लड़ी व महज 19 पर जीत दर्ज की. कांग्रेस और आरजेडी में भी शह-मात का खेल चल रहा था. आरजेडी ने अपने हिसाब से अच्छी-अच्छी सीटें रख लीं और बची हुई कांग्रेस को दे दी.

दूसरे, कांग्रेस को जब उम्मीदवार नहीं मिले, तो उसने बाहर से आये लोगों जैसे काली पांडे, शत्रुघ्न सिन्हा के बेट लव सिन्हा आदि को टिकट दिया. यदि विपक्ष, खासकर कांग्रेस और आरजेडी मिलकर यथार्थ की धरातल पर थोड़ा काम करते, तो उनके परिणाम अच्छे होते. जहां उन्होंने मिलकर काम किया वहां परिणाम अच्छे आये. जैसे एमएल को साथ लेने से महागठबंधन को फायदा मिला है. विपक्ष को लगा कि जो तमाम लोग महागठबंधन से अलग होकर चुनाव लड़ रहे हैं, वे नीतीश का वोट काटेंगे, लेकिन यह दांव उल्टा पड़ गया. आरएलएसपी को सीट तो नहीं मिली, लेकिन जो वोट उसे मिले वे महागठबंधन से ही उसके खाते में गये.

मुस्लिम मतदाता भी एक कारक रहा. सीएए के विरोध के बाद देश का मुस्लिम मतदाता राजनीतिक रूप से थोड़ा उग्र हुआ है. उसको लगता है कि कांग्रेस और दूसरी जो धर्म-निरपेक्ष पार्टियां हैं, वह उनके लिए खड़ी नहीं हो रही हैं. इसका विकल्प उसने एआइएमआइएम में तलाशा. यह कांग्रेस और दूसरे धर्म-निरपेक्ष दलों के लिए एक चुनौती है कि वे हिंदू व मुस्लिम दोनों के मत खो रहे हैं. बिहार चुनाव परिणाम के मद्देनजर विपक्ष को चिंतन की जरूरत है. लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं होगा, क्योंकि विपक्ष बिखरा हुआ है. राजनीतिक प्रतिस्पर्धा सभी पार्टियों में होती है. अभी अगला पड़ाव बंगाल का है. वहां टीएमसी है, कांग्रेस और वाम दल हैं. औवैसी जैसे अन्य वोटकटवा राजनीतिक दल भी हैं.

तो प्रश्न है कि उनकी क्या भूमिका होगी. भारत का इतिहास देखें, तो जब-जब धर्म और आस्था का राजनीति में मिश्रण होता है, तब ऐसे दल वैचारिक तौर पर अलग होते हुए भी एक-दूसरे को मजबूती प्रदान करते हैं. लेकिन ऐसे परिवेश में धर्म-निरेपक्ष दल हाशिए पर चले जाते हैं, क्योंकि वे न ही हिंदू और न ही मुस्लिम अधिकार के साथ खड़े हो सकते हैं. नीतीश 15 वर्ष मुख्यमंत्री रहे और उसके बाद भी जदयू को 43 सीटें मिली हैं, तो कहना होगा कि नीतीश अपना अस्तित्व और अपनी जमीन बचाने में सफल रहे हैं. क्योंकि अकाली दल या छत्तीसगढ़ में भाजपा की स्थिति तो बहुत खराब हो गयी थी.

हो सकता है कि उन्हें नरेंद्र मोदी या वोटकटवा दलों का लाभ मिला हो. जहां तक तेजस्वी की बात है तो इक्क्तीस-बत्तीस वर्ष की उम्र में, बिना लालू यादव की मौजूदगी के खुद के दम पर उन्होंने अच्छा प्रदर्शन किया है. जीत में अनुभव की कमी जरूर आड़े आयी. राहुल को तेजस्वी से सीखना चाहिए कि किस तरह उन्होंने अपने आप को मुख्यमंत्री का दावेदार बनाया. राहुल तो अपने आप को किसी चीज का दावेदार भी नहीं बनाते हैं. जब तक आप दावेदारी नहीं ठोकेंगे, तब तक जनता आपको उस नजर से नहीं देखेगी.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

Posted by: Pritish Sahay

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