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बीबीसी की विश्वसनीयता का संकट

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गैरी लिनेकर की छवि ऐसे शालीन खिलाड़ी की रही है, जिसे उसके 16 साल लंबे खेल जीवन में एक बार भी पीला या लाल कार्ड नहीं दिखाया गया. शायद यही कारण है कि इस विवाद को सुलझाने के लिए टिम डेवी को न केवल गैरी लिनेकर को वापस बुलाना पड़ा है

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केंद्रीय लंदन में बीबीसी के मुख्यालय ब्रॉडकास्टिंग हाउस के बाहर एनिमल फॉर्म और 1984 के लेखक और बीबीसी प्रसारक जॉर्ज ऑरवेल की एक कांस्य प्रतिमा है, जिसके पीछे दीवार पर एनिमल फॉर्म की भूमिका से ली गयी यह पंक्ति खुदी है, ‘स्वतंत्रता का यदि कोई अर्थ है, तो वह है लोगों को वह बताने का अधिकार, जिसे वे सुनना नहीं चाहते.’

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इंग्लैंड के पूर्व फुटबॉल कप्तान और बीबीसी के लोकप्रिय खेल प्रसारक गैरी लिनेकर ने पिछले सप्ताह सुनक सरकार की नयी शरणार्थी नीति की निंदा के अपने ट्वीट में बेबाक बात को कहने की स्वतंत्रता के उसी अधिकार का प्रयोग करने की कोशिश की थी, परंतु एक सार्वजनिक मीडिया संस्थान होने के नाते बीबीसी का दायित्व है कि इस स्वतंत्रता का निष्पक्षता, वस्तुनिष्ठता और रचनात्मकता के साथ प्रयोग करते हुए ऐसी सामग्री पेश करे, जो जनहित में भी हो,

क्योंकि बीबीसी के पहले महानिदेशक जॉन रीथ ने कहा था कि निष्पक्षता और वस्तुनिष्ठता प्रसारण की आत्मा है. गैरी लिनेकर ने अपने ट्वीट में लिखा था, ‘यह ऐसी निहायत ही निर्दयी नीति है, जो अत्यंत लाचार लोगों को उस भाषा में निशाना बना रही है, जो तीस के दशक के जर्मनी की भाषा से बहुत भिन्न नहीं है.’ लिनेकर को निजी तौर पर सरकार की शरणार्थी नियंत्रण नीति की निंदा या प्रशंसा करने का पूरा अधिकार है, परंतु बीबीसी प्रस्तुतकर्ता के नाते वे सार्वजनिक मंच पर ऐसी एकपक्षीय राय नहीं रख सकते, जो बीबीसी की तटस्थता और वस्तुनिष्ठता के दायित्व का उल्लंघन करती हो.

समाचार और सामयिक चर्चा के कार्यक्रमों में काम करने वालों पर यह नियम और सख्ती से लागू होता है, पर लिनेकर खेल कार्यक्रमों को पेश करते हैं और बीबीसी के नियमित कर्मचारी नहीं हैं, बल्कि अनुबंध पर काम करते हैं. उन्होंने टिप्पणी भी अपने ट्विटर के मंच पर की है, बीबीसी के किसी मंच पर नहीं. फिर भी जब उनके ट्वीट पर सत्ताधारी कंजर्वेटिव पार्टी के कई सांसदों समेत गृहमंत्री सुवेला ब्रेवरमैन ने आपत्तियां कीं, तो बीबीसी प्रबंधकों ने उन्हें तलब किया और उनको सप्ताहांत के शो ‘मैच ऑफ द डे’ से हटा दिया गया, जिसे वे पिछले 24 वर्षों से पेश करते आ रहे हैं.

इस पर विपक्षी लेबर नेताओं ने शोर मचाया और बीबीसी पर सरकार के दबाव में काम करने के आरोप लगे. उस शो में भाग लेने वाले खेल प्रस्तुतकर्ताओं, संवाददाताओं और विशेषज्ञों ने भी लिनेकर के समर्थन में बहिष्कार करने का फैसला लिया, जिसे एजेंसियों ने बीबीसी में बगावत की संज्ञा दे डाली. शनिवार का शो आधा-अधूरा दिखाना पड़ा, जिससे दर्शक बेहद नाराज हुए. ट्विटर पर गैरी लिनेकर के चहेतों की संख्या 88 लाख है. उनकी छवि ऐसे शालीन खिलाड़ी की रही है, जिसे उसके 16 साल लंबे खेल जीवन में एक बार भी पीला या लाल कार्ड नहीं दिखाया गया.

शायद यही कारण है कि इस विवाद को सुलझाने के लिए टिम डेवी को न केवल गैरी लिनेकर को वापस बुलाना पड़ा है और दर्शकों से माफी मांगनी पड़ी है, बल्कि एक समीक्षा समिति बिठानी पड़ी है, जो सोशल मीडिया पर निजी राय प्रकट करने के लिए नये दिशानिर्देश तैयार करेगी. संभावना है कि समाचार और सामयिक चर्चा से इतर विषयों पर और अनुबंध पर काम करने वालों के लिए नियमों को फिर से ढीला कर दिया जाए, क्योंकि बीबीसी के सामने तटस्थता का असली संकट बीबीसी के चैयरमैन रिचर्ड शार्प को लेकर है. चैयरमैन का काम बीबीसी के काम पर नजर रखने के साथ-साथ उसे सरकारी दबाव और हस्तक्षेप से बचाना है, लेकिन अभी वे अपने ही अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं.

बीबीसी चैयरमैन की नियुक्ति सरकार की सिफारिश पर ब्रितानी राजा द्वारा की जाती है. रिचर्ड शार्प प्रतिष्ठित व्यावसायिक बैंक गोल्डमैन सैक्स के बैंकर और प्रधानमंत्री ऋषि सुनक के बॉस रहे हैं. उन्होंने अपने एक बैंकर मित्र से पूर्व प्रधानमंत्री बोरीस जॉनसन के लिए आठ लाख पाउंड के कर्ज की गारंटी दिलवायी थी. आरोप है कि उन्होंने यह बात उस समिति को नहीं बतायी, जो चैयरमैन पद के लिए उनके आवेदन पर विचार कर रही थी.

वे कंजर्वेटिव पार्टी को चंदा भी देते रहे हैं, जिससे एहसान के बदले पद लेने का संदेह पैदा होता है. इसलिए विपक्ष उनका इस्तीफा मांग रहा है. बीबीसी महानिदेशक टिम डेवी के सामने अभी दो बड़ी चुनौतियां हैं. पहली, यह सुनिश्चित करना कि लिनेकर जैसे प्रभावशाली लोगों के लिए बनाये जाने वाले नियम न्यायसंगत हों और भेदभाव के बिना लागू हों. यदि आप लिनेकर पर कार्रवाई करेंगे पर एप्रेंटिस के प्रस्तुतकर्ता एलन शुगर पर लेबर पार्टी के पूर्व नेता जैरमी कॉर्बिन के खिलाफ बोलने के बावजूद कुछ नहीं करेंगे, तो सवाल उठेंगे.

दूसरी, यह सुनिश्चित करना है कि राजनीतिक दबाव के सामने न झुकने की नीति समान रूप से लागू हो. यदि आप भारत के प्रधानमंत्री की आलोचना करने वाली डॉक्यूमेंट्री को दबाव की परवाह न करते हुए दिखायेंगे, परंतु डेविड एटेनबरॉ द्वारा ब्रिटेन के पर्यावरणी विनाश पर बनायी डॉक्यूमेंट्री को देश के दक्षिणपंथियों के भय से चैनल पर न दिखाकर आइप्ल्यर पर दिखायेंगे तो भी सवाल उठेंगे.

कंजर्वेटिव पार्टी बीबीसी पर वामपंथी झुकाव का आरोप लगाती रही है और लेबर पार्टी दक्षिणपंथी झुकाव का. बीबीसी का सबसे गंभीर टकराव 2003 में प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर की लेबर सरकार के साथ इराकी रासायनिक हथियारों की क्षमता की रिपोर्ट को लेकर हुआ था जिस कारण एंड्र्यू गिलिगन के साथ-साथ बीबीसी चैयरमैन गैविन डेविस और महानिदेशक ग्रेग डाइक को भी इस्तीफा देना पड़ा था. दूसरा ऐसा टकराव अस्सी के दशक में मारग्रेट थैचर की कंजर्वेटिव सरकार के साथ फॉकलैंड युद्ध और उत्तरी आयरलैंड में चल रही हिंसा को लेकर हुआ था.

इसके बाद 1983 के चुनाव से पहले बीबीसी ने अपने साप्ताहिक स्तंभ पैनोरामा में थैचर पर एक डॉक्यूमेंट्री दिखायी थी, जिसके शीर्षक ‘मैगीज मिलिटेंट टेंडेंसीज’ ने खलबली मचा दी थी. बीबीसी की तटस्थता को लेकर जितने सवाल ब्रिटेन में उठते रहे हैं उतने ही विदेशों में भी उठे हैं. दक्षिण एशिया में भारत और पाकिस्तान की सरकारों को उसकी तटस्थता पर संदेह रहा है, परंतु बीबीसी को मालूम है कि कई बार शिकायतें इसलिए भी होती हैं, क्योंकि सब पक्षों को कुछ अपेक्षाएं रहती हैं. यही उसकी असली शक्ति भी है. इसलिए यदि उसे अपना अस्तित्व बनाये रखना है, तो जॉन रीथ की बातें याद रखते हुए सबसे पहले अपनी निष्पक्षता और वस्तुनिष्ठता को बचाना होगा. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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