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पंजाब में कांग्रेस की चुनौतियां कायम

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पंजाब में कांग्रेस ने लोगों को आमने-सामने खड़ा कर दिया है. दो दिनों में जो हुआ है, उससे यही लगता है कि कांग्रेस नेतृत्व ने अपनी ही तरफ गोल कर दिया है.

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पंजाब में कांग्रेस की राजनीति अभी बदहाली से जूझ रही है. बीते दो दिनों में जो हुआ है, उससे यही लगता है कि कांग्रेस नेतृत्व ने अपनी ही तरफ गोल कर दिया है. छह माह पहले तक पर्यवेक्षकों की यही समझ थी कि आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की ही जीत होगी, लेकिन आज कोई कांग्रेसी विधायक भी निश्चित रूप से नहीं कह सकता है कि चुनाव में क्या होगा?

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इस प्रकरण की शुरुआत इस बिंदु से हुई थी कि पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के प्रभाव को कम करने की जरूरत है, क्योंकि वे स्वायत्त रवैया अपना रहे थे और ऐसा लग रहा था कि कांग्रेस आलाकमान का उन पर नियंत्रण नहीं है. पिछले चुनाव में राज्य में पार्टी को कामयाबी कैप्टन अमरिंदर की वजह से ही मिली थी. उन्होंने तब पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को मुख्यमंत्री का चेहरा तय करने के लिए दो दिन का अल्टीमेटम दिया था कि अगर उन्हें इस पद का उम्मीदवार नहीं बनाया गया, तो कुछ और निर्णय कर सकते हैं. तो, आलाकमान को लंबे समय से यह एहसास था कि उनके पर कतरना जरूरी है.

इस कड़ी में पहले एक बड़े नेता और फिर पार्टी प्रमुख के रूप में नवजोत सिंह सिद्धू को लाया गया, लेकिन उन्होंने पार्टी की आंतरिक राजनीति में स्थिरता लाने की जगह तनातनी को बहुत अधिक बढ़ा दिया. इसका नतीजा आखिरकार यह रहा कि कैप्टन अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा. यह भी उल्लेखनीय है कि विधायक उनसे नाराज रहते थे, क्योंकि वे उनसे मिलते-जुलते नहीं थे.

आलाकमान के संकेत पर ही विधायक दल की तात्कालिक बैठक बुलायी गयी, जिसमें सभी विधायक चले गये. ऐसे में कैप्टन को भी समझ में आ गया कि उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए. या तो प्रशांत किशोर या अन्य सलाहकारों ने राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को यह बताया कि चाहे जो भी स्थिति हो, आलाकमान की बात पार्टी इकाइयों और पार्टी की सरकारों को मानना होगा, जैसे भाजपा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चलती है, लेकिन वे इस तथ्य को भूल गये कि भाजपा में मोदी का नियंत्रण इसलिए है कि वे चुनाव में पार्टी को जीत दिलाते हैं.

यह क्षमता राहुल गांधी या प्रियंका गांधी में नहीं है. इस सलाह के पीछे यह तर्क भी था कि आलाकमान के नियंत्रण से ही आगे के बदलावों को अमल में लाया जा सकेगा. पंजाब में नेतृत्व परिवर्तन की इस घटना से राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को भी पार्टी नेतृत्व की ओर से ठोस संदेश गया है.

पंजाब की इस अस्थिरता में कांग्रेस आलाकमान ने अलग-अलग लोगों को आमने-सामने खड़ा कर दिया है. आलाकमान ने सिद्धू को पार्टी अध्यक्ष बनाया और उन्हें भविष्य में मुख्यमंत्री बनाने का आश्वासन भी दिया गया. इससे यह हुआ कि सिद्धू ने भी आंखें दिखानी शुरू कर दीं. याद करें, उनका ‘ईंट से ईंट बजा देंगे’ का बयान. इस प्रकरण में कांग्रेस ने एक अच्छा काम यह किया है कि मुख्यमंत्री पद चरणजीत सिंह चन्नी को मिला है, क्योंकि इससे दलित समाज, जिसकी बड़ी आबादी है पंजाब में, को सकारात्मक संदेश जायेगा.

राज्य में पहली बार कोई दलित मुख्यमंत्री बना है, लेकिन अब जाट सिख समुदाय की प्रतिक्रिया क्या होगी, यह देखना होगा. वे हमेशा से शासन करते आये हैं. सुखजिंदर रंधावा मुख्यमंत्री नहीं बन सके, क्योंकि सिद्धू उनके विरुद्ध थे कि एक और जाट सिख मुख्यमंत्री नहीं होना चाहिए. सुनील जाखड़ भी नहीं बन सके, क्योंकि राज्य में पार्टी को हिंदू मुख्यमंत्री नहीं चाहिए.

उन्होंने उप मुख्यमंत्री पद भी नहीं स्वीकारा. तो, आज पार्टी के भीतर अनेक खेमे हो गये हैं. एक समय था, जब कैप्टन के नेतृत्व में पार्टी चुनाव में जा रही थी और जीतने की संभावना थी, किंतु आज स्थिति बिल्कुल भिन्न है और पार्टी में बिखराव है. मुख्यमंत्री के अलावा दो उपमुख्यमंत्री हैं, जाखड़ नाराज हैं, सिद्धू पार्टी अध्यक्ष हैं और चार कार्यकारी अध्यक्ष हैं, सिद्धू के चार सलाहकार भी हैं.

कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व बहुत बेहतर ढंग से पंजाब संकट का समाधान कर सकता था. अगर उसे यह लगता है कि कैप्टन के खिलाफ एंटी-इन कंबेंसी है, तो क्या कांग्रेस के खिलाफ ऐसा माहौल नहीं होगा? ऐसा कैसे हो सकता है कि कैप्टन लोकप्रिय नहीं रहे और कांग्रेस की लोकप्रियता बनी हुई है? विधायकों में कैप्टन के खिलाफ नाराजगी जरूर थी, पर ऐसा भी नहीं था कि वे विरोध पर उतारू हो जाते.

जनता में भी सरकार के विरुद्ध कोई आक्रोश नहीं था, तभी लोग कह रहे थे कि अगले चुनाव में भी कांग्रेस जीतेगी. विपक्ष भी बड़ी चुनौती पेश करने की स्थिति में नहीं है. सिद्धू के बारे कहा जा सकता है कि वे गंभीर राजनेता नहीं हैं. अगर कांग्रेस आलाकमान को अपने नियंत्रण के बारे में कोई संदेश ही देना था, तो चुनाव तक ठहरना चाहिए था. पहले पार्टी चुनाव तो जीतती! तब कैप्टन से बात कर के भी गतिरोध दूर किया जा सकता था.

इससे एक संदेश राजस्थान और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों को भी गया है. गहलोत को पहले ही कहा गया है कि सचिन पायलट के समर्थक विधायकों को कैबिनेट में जगह दी जानी चाहिए. बाद में भी बैठकें हुईं, पर टकराव आज भी बना हुआ है. बघेल भी विद्रोही स्वभाव के हैं. शायद अब उनके तेवर ढीले पड़ें. हाल के कुछ प्रकरणों के साथ पंजाब के मामले ने यह भी स्पष्ट किया है कि पार्टी नेतृत्व के रूप में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी अपना पूरा वर्चस्व बनाने की कोशिश में जुटे हैं.

उनकी यह धारणा है कि चाहे पार्टी के हाथ में एक सरकार रहे या एक से अधिक, पार्टी के निर्णयों पर नियंत्रण उन्हीं के हाथ रहेगा. जो भी आलाकमान की नहीं सुनेगा, उसे हाशिये पर जाना होगा. जहां तक पंजाब की बात है, तो अभी इस बारे में कुछ कहना मुश्किल है कि कैप्टन अमरिंदर सिंह अपनी नयी पार्टी बनायेंगे या किसी दूसरे दल को समर्थन देंगे, लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि उन्हें जब भी मौका मिलेगा, वे कांग्रेस और कांग्रेस के नेताओं पर टीका-टिप्पणी करेंगे, जो पार्टी के लिए असहज हो सकता है.

उदाहरण के लिए, अपने इस्तीफे की घोषणा के साथ ही उन्होंने नवजोत सिद्धू पर पाकिस्तान परस्त होने तथा पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के दोस्त होने और पाकिस्तानी सैन्य अधिकारियों से गले मिलने के बारे में चर्चा की है. यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा और बहुत संभव है कि भाजपा इसे राजनीतिक लाभ के लिए भुनाए. वह कह सकती है कि कांग्रेस का इतना वरिष्ठ नेता ही ऐसे आरोप लगा रहा है और यह राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा मामला है. (बातचीत पर आधारित).

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