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बेसहारों की माई ‘सिंधु ताई’

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सिंधुताई के अनुसार समाजसेवा बोल कर नहीं की जाती. अनजाने में आपके द्वारा की गयी सेवा ही समाजसेवा है. यह करते हुए मन में यह भाव नहीं आना चाहिए कि आप समाजसेवा कर रहे हैं.

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प्रतिष्ठित सामाजिक कार्यकर्ता सिंधुताई सपकाल का मंगलवार को 74 वर्ष की आयु में निधन हो गया. सिंधुताई को महाराष्ट्र की ‘मदर टेरेसा’ कहा जाता है. उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी अनाथ बच्चों की सेवा में गुजारी. उन्होंने लगभग 1400 अनाथ बच्चों को गोद लिया और इस नेक काम के लिए उन्हें प्रतिष्ठित पद्मश्री समेत कई पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया.

ताई का जन्म उस दौर में हुआ जब लड़की का पैदा होना, वो भी एक गरीब के घर, किसी अभिशाप से कम नहीं माना जाता था. उसका नाम रखा गया, ‘चिंदी’ (मतलब एक फटे हुए कपड़े का टुकड़ा). घर के हालात कुछ ऐसे थे कि उन्हें भैंस चराने जाना पड़ता. कुछ वक्त निकालकर वे स्कूल भी जाने लगीं.

पारिवारिक रूढ़िवादी विचारों के कारण आगे की पढ़ाई बंद हो गयी. मात्र 10 साल उम्र में उनकी शादी 30 वर्षीय ‘श्रीहरी सपकाल’ से हुई. 20 साल की उम्र में एक बच्ची की मां बनीं. एक घटना ने उनके जीवन को बदल दिया. एक दिन सिंधु ताई ने गांववालों को उनकी मजदूरी के पैसे नहीं देनेवाले गांव के मुखिया की शिकायत जिला अधिकारी से कर दी. इस अपमान का बदला लेने के लिए मुखिया ने श्री हरी को सिंधुताई को घर से बाहर निकालने के लिए दबाव डाला. उस समय वह गर्भवती थीं.

उसी रात उन्होंने तबेले में (गाय-भैंसों के रहने की जगह) में एक बेटी को जन्म दिया, फिर पिता के देहांत के कारण मां ने भी अस्वीकार कर दिया. मजबूरी में अपनी बेटी के साथ रेलवे स्टेशन पर रहने लगी थीं. वह भीख मांगती और रात में खुद को सुरक्षित रखने के लिए श्मशान में रहती. इस संघर्ष काल में सिंधुताई अपनी और बच्ची की भूख मिटाने के लिए ट्रेन में गा-गाकर भीख मांगने लगी.

जल्द ही उसने देखा कि स्टेशन पर और भी कई बेसहारा बच्चे हैं, जिनका कोई नहीं है. सिंधुताई अब उनकी भी माई बन गयी. भीख मांगकर जो कुछ भी उन्हें मिलता, वह उन सब बच्चों में बांट देती. कुछ समय तक तो वह श्मशान में रहती रहीं, वही फेंके हुए कपड़े पहनती रहीं. इस बीच कुछ आदिवासियों से उनकी पहचान हो गयी. वह उनके हक के लिए भी लड़ने लगी और एक बार तो उनकी लड़ाई लड़ने के लिए वे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तक भी पहुंच गयीं.

अब वह और उनके बच्चे इन आदिवासियों के बनाये झोपड़े में रहने लगे. धीरे-धीरे लोग सिंधुताई को माई के नाम से जानने लगे और स्वेच्छा से उनके अपनाये बच्चों के लिए दान देने लगे. अब इन बच्चों का अपना घर भी बन चुका था. धीरे-धीरे सिंधुताई और भी बच्चों की माई बनने लगी. ऐसे में उन्हें लगा कि कहीं उनकी अपनी बच्ची, ममता के रहते वे उनके गोद लिए बच्चों के साथ भेदभाव न कर बैठे, इसीलिए उन्होंने ममता को दगडूशेठ हलवाई गणपति के संस्थापक को दे दिया.

ममता भी एक समझदार बच्ची थी और उसने इस निर्णय में हमेशा अपनी मां का साथ दिया. सिंधुताई अब भजन गाने के साथ-साथ भाषण भी देने लगी थीं और धीरे-धीरे लोकप्रिय होने लगी थीं. उन्होंने 1400 से अधिक अनाथ बच्चों को गोद लिया. वह उन्हें पढ़ातीं, उनकी शादी करातीं और जिंदगी को नये सिरे से शुरू करने में मदद करतीं. ये सभी बच्चे उन्हें माई कहकर बुलाते हैं. उनके इस परिवार में आज 207 दामाद और 36 बहुएं और 1000 से भी ज्यादा पोते-पोतियां है.

उनकी खुद की बेटी वकील है और उनके गोद लिये बहुत सारे बच्चे आज डॉक्टर, अभियंता, वकील हैं और उनमें से बहुत सारे खुद का अनाथाश्रम भी चलाते हैं. उनके अनाथाश्रम पुणे, वर्धा, सासवड (महाराष्ट्र) में स्थित है. उनकी बेटी भी एक अनाथालय चलाती है. राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय समेत करीब 172 अवॉर्ड पा चुकीं ताई अपने बच्चों को पालने के लिए किसी के आगे हाथ फैलाने से नहीं चूकतीं.

वह कहती थीं कि मांगकर यदि इतने बच्चों का लालन-पालन हो सकता है, तो इसमें कोई हर्ज नहीं. सभी बच्चों को वह अपना बेटा या बेटी मानती और उनके लिए किसी में कोई भेद नहीं था. रेलवे स्टेशन पर मिला वो पहला बच्चा आज उनका सबसे बड़ा बेटा है और पांचों आश्रमों का प्रबंधन उसके कंधों पर हैं.

सिंधुताई के अनुसार समाजसेवा बोल कर नहीं की जाती. अनजाने में आपके द्वारा की गयी सेवा ही समाजसेवा है. यह करते हुए मन में यह भाव नहीं आना चाहिए कि आप समाजसेवा कर रहे हैं. मन में ठहराकर समाजसेवा नहीं होती. समाजसेवा जैसे शब्द को लेकर ही वे इतने सारे वाक्य एक के बाद एक बोल जातीं कि आपको लगता कि यह महिला सही मायने में अन्नपूर्णा है या सरस्वती. समाजसेवा जैसे भारी शब्द भी सिंधुताई के आगे पानी भरते नजर आने लगते. सिंधु ताई करोड़ों लोगों के लिए एक मिसाल थीं.

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