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असम के कार्बी में शांति की उम्मीद

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सरकार की यह अच्छी पहल है कि इस समझौते में सभी बड़े कार्बी गुटों को शामिल किया गया है, पर कुछ कुकी और दिमासा गुट अब भी इससे बाहर हैं.

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असम के छह सशस्त्र समूहों के साथ हुआ कार्बी आंगलोंग समझौता पूर्वोत्तर में शांति और स्थायित्व की दिशा में एक बड़ी पहल है. इस वर्ष फरवरी में बड़ी संख्या में उग्रवादियों ने अपने हथियार सौंपे थे और इस समझौते के बाद सैकड़ों लोग आत्मसमर्पण कर मुख्यधारा में लौटेंगे. इस समझौते के बाद उस क्षेत्र में शांति और विकास के नये अध्याय की शुरुआत की उम्मीद है. असम में अभी दो पहाड़ी इलाके हैं और इस समझौते के बाद इनकी संख्या तीन हो जायेगी.

असम में कार्बी आंगलोंग सबसे बड़ा जिला है. इस क्षेत्र में कार्बी समुदाय की आबादी सबसे अधिक है. इससे जुड़े समूह लंबे समय से सशस्त्र संघर्ष कर रहे थे. पहले इनकी मांग एक स्वायत्त राज्य बनाने की थी. दशकों पहले असम में खासी-गारो क्षेत्र में राज्य के भीतर संवैधानिक व्यवस्था के तहत स्वायत्त उप-राज्य बनाया गया था, जो बाद में मेघालय राज्य बना. उसी तर्ज पर कार्बी समूह भी दो जिलों को मिलाकर स्वायत्त उप-राज्य की मांग कर रहे थे. इस क्षेत्र में कार्बी के अलावा दिमासा, गारो, कुकी, रेंगमा नागा और तिवास जनजातीय समुदायों का भी निवास है.

बाद में कार्बी और दिमासा जनजातीय समुदाय से जुड़े समूहों ने अलग-अलग स्वायत्त क्षेत्र की मांग करनी शुरू कर दी. ये समूह कभी साथ आते रहे, तो कभी अलग हुए तथा छोटे-छोटे नये समूह भी बनते रहे. बाद में दो बड़े समूहों और यूपीए सरकार एवं असम सरकार का युद्धविराम समझौता हुआ और उसके बाद लगभग एक दशक से उनके साथ सरकार की बातचीत जारी थी. उस समझौते में इस क्षेत्र को स्वायत्त क्षेत्र बनाने और परिषद की स्थापना का प्रावधान था. साथ ही, विशेष आर्थिक कोष देने की भी बात हुई थी.

लेकिन, इसके विरोध में कुछ लोगों ने नये-नये सशस्त्र गुट बना लिए और हमले करते रहे. वह समझौता एक ही समूह के साथ हुआ था, तो कहा जा रहा था कि सभी गुटों के साथ एक ही समझौता होना चाहिए ताकि अस्थिरता समाप्त हो सके. अब हालिया समझौते में छह गुटों के शामिल होने से वह अवरोध एक हद तक हट गया है.

समझौते में पहाड़ी क्षेत्रों के िलए निर्दिष्ट संविधान की छठी अनुसूची के तहत स्वायत्तता देने का प्रावधान किया गया है. अब स्वायत्त परिषद की सीटों में बढ़ोतरी कर उसे क्षेत्रीय परिषद का रूप दिया जायेगा. पहाड़ी क्षेत्रों के लिए विशेष पुलिस महानिदेशक का पद सृजित होगा और उसकी नियुक्ति में राज्य सरकार स्वायत्त परिषद की सलाह लेगी.

यह प्रावधान बोडो क्षेत्र के लिए बनी व्यवस्था जैसा ही है. परिषद में दस सीटें ऐसी होंगी, जो गैर-जनजातीय आबादी का प्रतिनिधित्व करेंगी. इन क्षेत्रों में यह आबादी अच्छी-खासी है, जिसमें असमी, बंगाली और हिंदी भाषी शामिल हैं. जैसा पहले उल्लिखित है, यहां कार्बी के अलावा दिमासा, गारो, कुकी, रेंगमा नागा और तिवास जनजातीय समुदायों के लोग हैं. इनके अलावा कुछ बोडो भी हैं. लेकिन इस समझौते में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि जो कार्बी, बोडो या अन्य मैदानी इलाकों में रहते हैं, उनके लिए क्या प्रावधान हैं.

अभी तक की व्यवस्था के अनुसार, पहाड़ों के जनजाति मैदानी इलाकों में जनजाति होने का लाभ नहीं ले पाते हैं और मैदानी इलाकों के जनजाति लोगों को पहाड़ों में विशेष नियमों का लाभ नहीं मिलता. विभिन्न समूहों की यह मांग रही है कि कार्बी आंगलोंग में बोडो को और मैदानी इलाकों में बसे कार्बी को भी लाभ मिलना चाहिए.

स्थानीय खबरों की मानें, तो कुछ नागरिक समूह समझौते से संतुष्ट नहीं हैं. उनका कहना है कि जो दस सीटें गैरजनजाति आबादी के लिए प्रस्तावित की गयी है, वह ठीक नहीं है और उससे जनजातीय वर्चस्व कमतर हो सकता है. हमें यह समझना होगा कि छोटे समुदायों की भी सक्रियता किसी भी क्षेत्र में होती है. इस क्षेत्र में नागा आबादी भी है और उस पर नागालैंड के समूहों का दावा रहता है. पूर्वोत्तर में नागा सशस्त्र समूह सबसे बड़ा है.

उसने कुछ समय पहले कहा था कि रेंगमा नागा वाले हिस्से को नागालैंड में मिलाना चाहिए, जो कभी अंग्रेजों ने बिना नागा समुदाय से पूछे अलग कर दिया था. उनका दावा ग्रेटर नागालैंड का है. समझौते पर अभी उनकी प्रतिक्रिया नहीं आयी है. एक बड़ी चुनौती कार्बी और दिमासा जनजातियों के आपसी संबंधों से जुड़ी है. इनके बीच में अगर तनाव पैदा होता है, तो समझौते को लागू करा पाना मुश्किल हो जायेगा. साल 2000 से 2009 तक विभिन्न जनजातियों के समूहों में कई आपसी झगड़े हो चुके हैं.

सरकार की यह अच्छी पहल है कि इस समझौते में सभी बड़े कार्बी गुटों को शामिल किया गया है, पर कुछ कुकी और दिमासा गुट अब भी इससे बाहर हैं और सक्रिय हैं. इनके साथ सरकार क्या बात कर रही है या इन्हें क्या आश्वासन दिया गया है, यह अभी पता नहीं है. ये समूह वैसे तो आकार में छोटे हैं, लेकिन परेशान करने की क्षमता जरूर रखते हैं. बीते साल नागरिकता संशोधन कानून को लेकर पूरे पूर्वोत्तर में राजनीतिक माहौल गर्म हो गया था.

उसे आगे किस प्रकार लागू किया जाता है, उसका भी असर इस समझौते पर पड़ेगा. यह सराहनीय है कि केंद्र ने पांच वर्षों में विकास के लिए एक हजार करोड़ रुपये देने की घोषणा की है, लेकिन कोरोना से पैदा हुईं समस्याओं का भी एक आयाम इस क्षेत्र में शांति से जुड़ता है.

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